कृषि कानून वापसी के बाद मोदी सरकार के सामने तनातनी का अगला दौर ये है...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देशवासियों से माफी मांगने के साथ अपने कदम को पीछे खींचने का निर्णय अगर पहले ही ले लिया गया होता, तो आज उनकी छीछालेदर नहीं होती और न सरकार की इतनी बदनामी होती.
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कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के संघर्ष की एक वर्षीय यात्रा का फिलहाल अंत हो गया. आंदोलन से उपजा जनाक्रोश, भाजपा से दूर होता वोटर, गड़बड़ता चुनावी गणित, सरकार की गिरती छवि को ध्यान में रखकर कृषि कानूनों की बर्खास्तगी का एलान बेशक हो गया हो. लेकिन आंदोलन से निकली सियासी तपिश जल्द कम नहीं होगी. निश्चित रूप इस निर्णय से केंद्र सरकार की नैतिक हार हुई है. इसे किसानों की जीत कही जाएगी. नए कृषि कानूनों का अंत इस निराले अंदाज और खट्टे-मीठे अनुभवों से होगा, ऐसी आशंकाएं पहले से थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देशवासियों से माफी मांगने के साथ अपने कदम को पीछे खीचने का निर्णय अगर पहले ही ले लिया गया होता, तो आज उनकी छीछालेदर होती और न सरकार की इतनी बदनामी होती. कृषि कानूनों के चलते बीते साल भर से भाजपा और केंद्र सरकार की संयुक्त रूप से चौतरफा थू-थू हो रही थी? प्रधानमंत्री के सात वर्षीय कार्यकाल में ये उनका मात्र इकलौता फैसला रहा, जिसे उन्हें जनसमूह की बुलंद आवाज के चलते बदलना पड़ा? वरना इससे पहले कभी झुके नहीं, फैसला सही हो या गलत झुकना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं? लेकिन ये पहली मर्तबा हुआ जब उनको अपने कदम पीछे खींचने पड़े हों.
भले ही पीएम मोदी ने नए कृषि कानूनों को रद्द किया हो लेकिन किसानों का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ है
मोदी हुकूमत को अबतक की सबसे कठोर सरकार का तमगा दिया गया. नोटबंदी, जीएसटी जैसे कठोरतम फैसलों के इतर कुछ पूर्ववर्ती उनके ऐसे भी निर्णय रहे जिनकी सराहना भी हुई. कई फैसले देश हित के लिए रहे. जैसे, राम मंदिर मसले पर प्रधानमंत्री प्रतिबद्धता और उनका पटाक्षेत्र? मंदिर मसले पर उनकी पहल ईमानदार रही.
वहीं, जम्मू-कश्मीर के नए उदयभाग के लिए धारा-37, आर्टिकल 35ए सरीखे ऐतिहासिक फैसले सदियों तक याद किए जाएंगे. लेकिन सवा साल पहले बनाए गए नए तीनों कृषि कानूनों का हश्र ऐसा होगा, इसकी कल्पना शायद सरकार ने नहीं की होगी. सरकार की तकरीबन सभी चालों को किसान नेताओं ने विफल किया.
उन्हें, आंदोलनजीवी, पाकिस्तानी, खालिस्तानी व गुंडा ना जाने क्या-क्या बोला गया, लेकिन अड़े रहे. उनके इसी अड़ियल रूख से हताश होकर सरकार को पीछे हटना पड़ा.बहरहाल, कानून तो अमल में नहीं आ पाए, लेकिन कानूनों ने खून जमर पिया. करीब सात सौ किसानों की जाने गईं, सर्दी, गर्मी, बारिश, तृफान सभी मौसम में किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहे.
इसी दरम्यान लाल किला कांड हुआ, लखीमपुर में रक्तरंजित हिंसक घटना घटी, आंदोलन से बंद हाईवे से आम जनों ने भारी परेशानियां उठाई और भी बहुत कुछ हुआ. ये घटनाए बीते 12 महीनों तक निरंतर होती रही, लेकिन सरकार अपने फैसले से टस-मस नहीं हुई. देखिए, किसी भी हुकूमत के लिए चुनाव बहुत मायने रखते हैं, चुनावी भट्टियों से ही उनकी सियासी रोटियां सिखती हैं.
वही चुनाव इस वक्त दहलीज पर खड़े हैं और वह भी उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में, जहां की जीत दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाती है. भाजपा ने यूपी की नब्ज टटोली, तो पता चला कि मौजूदा किसान आंदोलन उनके लिए मुसिबत पैदा कर रहा है और उस मुसिबत का कारण कृषि कानून हैं. तभी आनन-फानन में गुरूवार देर रात प्रधानमंत्री अपने चुनिंदा साथियों को अपने आवास पर बुलाकर मंथन किया.
साथियों के साथ प्रधानमंत्री ने तय किया कि जबतक कृषि कानून वापस नहीं होंगे, देश की फिजा उनके खिलाफ रहेगी. तभी बड़ा मास्टर स्ट्रॉक खेलते हुए शुक्रवार सुबह राष्टृ के नाम संबोधन के माध्यम से कृषि कानून को निरस्त करने एलान कर दिया. प्रधानमंत्री को माफी के साथ कृषि कानूनों के निर्णय से क्यों पीछे हटना पड़ा, क्यों फैसला बदला, इसके पीछे कई सियासी राज छिपे हैं.
प्रधानमंत्री भांव चुके थे कि कृषि कानूनों से उपजे जनाक्रोश से उनकी छवि धूमित हो जाएगी. पर मुझे लगता है प्रधानमंत्री ने फैसला लेते-लेते बहुत देर कर दी. बिल बहुत पहले वापस हो जाने चाहिए थे, लेकिन सरकार दीवार की तरह खड़ी रही. आज वह दीवार ढह गई. मुझे ऐसा भी प्रतीत होता है चुनावों से पहले अगर केंद्र सरकार को लगता है कि कृषि कानूनों की बर्खास्मगी से उनकी साख बची रहेगी और आगामी विधानसभा चुनावों में फायदा होगा, शायद गलतफहमी होगी.
एक कहावत है, कि ‘अब पछतावे से क्या हो, जब चिड़िया चुग गईं खेत’! लेकिन आने वाला वक्त तय करेगा कि कानूनों से पीछे हटना केंद्र सरकार की मजबूरी थी या सियासी मास्टर स्ट्रोक? जो भी हो, किसान नेता भी सरकार की हर चाल से वाकिफ हैं. सरकार डाल-डाल तो किसान पात-पात. किसान आंदोलन स्थलों से अब भी हटने को राजी नहीं हैं.
कानूनों की बर्खास्तगी का सर्टिफिकेट उन्हें चाहिए, मुंह जुबानी बात पर आंदोलन खत्म करके घर नहीं जाएंगे. हालांकि प्रधानमंत्री ने घर जाने की उनसे अपील जरूर की है. अब किसानों ने एक पेंच और भिड़ा दिया है, वो है फसलों पर एमएसपी गारंटी कानून? हालांकि ये मांग बाद में शामिल की गई थी, लेकिन उसे अब प्रमुख माना जा रहा है.
चलिए कानूनों की बर्खास्तगी से एक बात तो तय हो गई कि आखिरकार सरकार ने आंदोलित किसानों को किसान तो माना, वरना अभी तक उन्हें खालिस्तानी आतंकवादी ही बताती आई थी. संभावनाएं ऐसी जाग उठी है कि सरकार-किसान के बीच तनातनी का एक दौर और शुरू होगा आगे.
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