एक गांधी की तलाश- न आतंक रहेगा, न कश्मीर समस्या
क्या मौजूदा स्थिति में भारतीय नेता के पास इस तरह का कोई साहसिक, सहनशील और दूरदर्शी नेतृत्व है जो प्रयास कर सके कि मैं आतंक और कश्मीर समस्या को संयम की बदौलत सफलता में बदल दूंगा.
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क्या भारत के पास ऐसा कोई मजबूत नेतृत्व नहीं है जिसके पास दृढ़ निश्चय, अबंध शक्ति, अदम्य साहस, साफ-सुथरी नियत और साहसिक नीतियां हो. जिस तरह का देश में माहौल है वो डराता है. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आतंकवाद की समस्या का समाधान गांधीवाद में नजर अगर दक्षिण कोरिया में जाकर आता है तो गांधीवाद के दर्शन से जन्मे भारतीय गणराज्य के लिए इससे ज्यादा और शर्मनाक बात नहीं हो सकती है. जिस देश में महात्मा गांधी जैसा मजबूत और सुदृढ़ नेतृत्व पैदा हुआ हो वहां किसी नेता को इतनी साहस नहीं हो कि मौजूदा माहौल में कह सके कि महात्मा गांधी के रास्ते पर चलकर हम कश्मीर को जीत लेंगे. ये भारतीय महाद्वीप के लिए ही नहीं पूरे भूगोल के लिए भयावह परिस्थिति है.
क्या मौजूदा स्थिति में किसी नेता के पास इतना नैतिक साहस है कि गांधीवाद के रास्ते आतंकवाद की समस्या का हल निकालने के लिए वह बात कर सके. पुलवामा की घटना के बाद उन्माद पैदा कर हम उस चौराहे पर आ खड़े हैं जहां हर चौराहे पर खून का बदला खून के नारे सुनाई दे रहा है. मौजूदा माहौल में वह गद्दार कहा जाएगा जो शांति और अहिंस्त्मक तरीके से जटिल से जटिल समस्या का हल निकालने की बात करता है. लेकिन ऐसी बात नहीं है गांधी जी ने इन आरोपों को कभी नहीं झेला हो. उन्होंने झेला था और सहा था. इसी बदौलत ही जनरल डायर के खानदान से हमें आजादी दिलवाई थी. आज कौन कह सकता है कि देश में गांधी के रास्ते पर चल कर हम आतंकवाद को हरा देंगे. गांधी जी कहा करते थे रोज प्रति रोज के किसी के व्यवहार से तंग आकर अपना व्यवहार बदल लेने वाला कायर कहलाता है. गांधीवाद का रास्ता बेहद कठिन है, थकाऊ है, उबाऊ है. खीझ पैदा करने वाला और पराजय का बोध बार-बार करानेवाला है मगर आखरी सत्य यही है. इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है. एक डर जब दूसरे डर के विरुद्ध होता है तो युद्ध होता है. हमेशा डरा हुआ आदमी हथियार लेकर चलता है. इंसान की बात तो छोड़िए जानवर भी डरकर ही हमला करता है.
गांधीवाद के रास्ते आतंकवाद की समस्या का हल निकालने की जरूरत
हथियार के बल पर कश्मीर को जीतने की बात करनेवालों को समझना चाहिए कि दुनिया में कोई ऐसा उदाहरण है, जहां हथियार के बल पर इंसान या भूभाग को जीता गया हो. एक देश हुआ करता था यूएसएसआर यानी यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक. 1991 में उसके 15 टुकड़े हुए. सोवियत संघ रूस से ज्यादा हथियार अमेरिका के पास भी नहीं थे. सोवियत संघ के पास अमेरिका से बड़ी फौज भी थी लेकिन जब इंसान ने तय कर लिया तो पूरी की पूरी फौज धरी रह गई और सोवियत संघ के 15 टुकड़े हो गए. हमें समझना होगा कि हथियारों के बल पर इंसानों के दिल नहीं जीते जाते. हथियारों के बल पर अगर दुनिया जीती जाती तो महात्मा गांधी, नेलसन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और आंग सान सू के जैसे लोग महान नहीं होते बल्कि हिटलर, मुसोलिनी, लेनिन और गद्दाफी जैसे लोग इतिहास में महान कहे जाते. यूरोप के खूंखार आतंकी संगठन आयरिश रिपब्लिक आर्मी की दहशतगर्दी ब्रिटेन की मुहब्बत ने ऐसी खत्म कर दी कि पिछली बार जब आयरलैंड में इंग्लैंड के साथ बने रहने के चुनाव हुए तो अलगाववादी एक वोट से हार गए.
कहते हैं कि 1919 में जब अंग्रेजों के अत्याचार से तंग आकर गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन और असहयोग आंदोलन की परिकल्पना की थी तो पूरा देश एक साथ अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था. 1922 में उत्तर प्रदेश चौरा चोरी कांड हुआ तो आंदोलन हिंसक बन गया. गांधी जी ने इस आंदोलन को स्थगित कर दिया. उस वक्त गांधी जी के खिलाफ देश में माहौल बन गया. कहा गया कि भारत आजाद हो सकता था मगर गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया. गांधीजी से करीब सभी लोग नाराज हो गए. तब गांधी जी ने कहा था हो सकता है कि हम इस रास्ते पर चलकर आजादी पा लेते मगर आने वाली पीढ़ियां यही समझतीं कि हर समस्या का हल ऐसे ही निकलता है और हम एक हिंसक समाज की तरफ बढ़ जाते. जरा सोचिए 1896 में महात्मा गांधी ने पहली बार मुंबई में तिलक और गोखले से मुलाकात कर परतंत्रता की पीड़ा को समझा था. 1907 में पहला सत्याग्रह किया था. मगर भारत की आजादी के लिए उन्होंने 1947 तक इंतजार किया. क्या मौजूदा स्थिति में भारतीय नेता के पास इस तरह का कोई साहसिक, सहनशील और दूरदर्शी नेतृत्व है जो प्रयास कर सके कि मैं आतंक और कश्मीर समस्या को संयम की बदौलत सफलता में बदल दूंगा.
हिंसा के बल पर दुनिया ने न तो कभी कुछ पाया है ना कुछ पाएगा. देश-दुनिया की बात तो छोड़िए, अगर घर में बेटी बागी हो जाए कि पड़ोसी से शादी करूंगी तो दुनिया का कोई हथियार काम नहीं आता है. इंसान का सॉफ्टवेयर मशीनों से कंट्रोल नहीं होता है. नेल्सन मंडेला ने 27 साल दक्षिण अफ्रीका की जेल में काटे. उनके इस संयम भरे अनुशासनात्मक अहिंसक आंदोलन से तंग आकर उनकी पत्नी विन्नी मंडेला तक भी उनका साथ छोड़ गईं और हिंसक आंदोलन के साथ खड़े होकर हथियार उठा लिए. लेकिन नेल्सन मंडेला जानते थे हथियारों के बल पर कोई स्थाई समाधान नहीं निकल सकता लिहाजा काल कोठरी में 27 साल गुजारे मगर देश को रंगभेद से आजादी दिलवाई. इसी तरह से म्यनमार आंग सान सू की 21 साल तक पुलिस हिरासत में रहीं मगर उन्होंने कभी हार नहीं मानी. तब तक हार नहीं मानी जब तक जुंटाओं ने म्यानमार में चुनाव का ऐलान नहीं कर दिया. यह किसी कमजोर नेता के बस की बात नहीं है. अहिंसात्मक आंदोलन की अगुवाई करने के लिए बहुत बड़ा माद्दा चाहिए होता है.
स्थायी हल के लिए चलने वाला अहिंसात्मक आंदोलन मूढ़- मगज वालों को बेहद बुरा लगता है. जानकार अशिक्षित या कम अक्ल के लोग इतना परेशान होते हैं कि धरती पर महात्मा गांधी से लेकर मार्टिन लूथर किंग और अब्राहम लिंकन तक को गोली मार दी. गांधी, मार्टिन और लिंकन जैसे लोग इस दुनिया में ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जो कि आदर्श हो. मार्टिन लूथर किंग ने गांधीजी के रास्ते पर चलकर अमेरिका में काले गोरे का भेद खत्म कर दिया. यह रास्ता बेहद मुश्किल था. उनकी हत्या कर दी गई. अमेरिका में कई राष्ट्रपति जिन मुद्दों पर मारे जा चुके थे उस पर दुनिया का ये वीर सैनिक मार्टिन लूथर किंग चला था तो पता था कि वो शहीद हो सकता है. मगर वो शहादत गुमनाम या क्षणिक या आवेश या फौरी समाधान वाला नहीं था. 1860 के दौरान अमेरिका अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा था. अमेरिका भयंकर सिविल वार में घिरा था. तब तत्कालिन रिपब्लिकन पार्टी में ही राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के खिलाफ रेडिकल रिपब्लिकन खड़े थे तो सामने उन्माद में हिंसा के लिए लालायित वार डेमोक्रेट्स खड़े थे. लेकिन लिंकन ने इस परिस्थिति में भी दास्तां प्रथा को खत्म करके एक नए अमेरिका को जन्म दिया.
मैं ये सब इसलिए कह रहा हूं कि दुनिया में कोई ऐसा इतिहास नहीं है जहां पर हथियार के बल पर समस्या का समाधान हुआ हो. हिंसा और हथियार केवल नफरत पैदा करता है, अत्याचार पैदा करता है. सोवियत संघ का विघटन क्यों हुआ. ऐसी बात नहीं है कि सोवियत संघ की स्थापना करने वाले लनिन के विचारों में कोई बुराई थी मगर जार के अत्याचार ने लेनिन को हिंसक बना दिया. सत्ता ने लेनिन के भाई को मौत के घाट उतार दिया इसके सदमे में पिता की मृत्यु हो गई और वहीं से 21 साल का नौजवान लेनिन हिंसा के रास्ते पर चल पड़ा. जब उसने सोवियत संघ की स्थापना की तो रोमोनोव सम्राज्य के साथ साथ मोनशेविकों के खून से सने धरती पर लेनिन ने बोलशेविक साम्राज्य स्थापना की थी और परिणीति यही हुई कि उसी लेनिनग्राड में रस्सियों से खींच-खींच कर लेनिन की मूर्तियां ढाह दी गईं. साफ है जिस हिंसा ने लेलिन पैदा किया उसी हिंसा की भेंट हिंसक लेनिन का सम्राज्य चढ़ गया, जर्मनी में लोग हिटलर को पसंद नहीं करते तो गद्दाफी को लीबिया में पसंद नहीं करता है और इराक में कोई सद्दाम हुसैन का नाम लेवा नहीं है. यह सारी बातें हम इसलिए कह रहे हैं कि हमें किसी आबादी से जुड़ी समस्या का हल असलहों से इतर भी खोजना चाहिए.
दुनिया में कोई ऐसा इतिहास नहीं है जहां पर हथियार के बल पर समस्या का समाधान हुआ हो
अगर कुत्ता दांत से काटे तो क्या हम कुत्ते को दांत से काट सकते हैं. इंसान और कुत्ते में फर्क होना चाहिए. मेरे एक दोस्त ने इसके जवाब में कहा कि कुत्ता काटे तो गोली मार दो. मैंने कहा कि फिर किसने रोका है पाकिस्तान पर एटम बम गिराने से. गिरा दो. मगर क्या हमारे पास इतना साहस है कि हम पाकिस्तान पर एटम बम गिरा सकें. अगर हमारे पास इतना साहस नहीं है तो हम 10 मारेंगे, तुम 20 मारो, तुम पच्चीस मारोगे तो मैं 50 मार दूंगा, ये खेल हमें बंद कर देना चाहिए. भारत माता के जयकारों के बीच जब शहीद का शव घर पर पहुंचता है तो 2-3 घंटे की देश भक्ति के बाद मरने वाले शहीद के घर पर सन्नाटा पसरा होता है. इसकी अस्थियां लेकर हरिद्वार के किस घाट पर उसका भाई, पिता, बेटा भटक रहा है कोई नहीं जानता है. कोई भी अपने बेटे को मरने के लिए सीमा पर नहीं भेजता है. सच्चाई तो यह है कि लोग रोजी-रोटी के जुगाड़ में सेना में भर्ती हो रहे हैं. मां सुबह-सुबह 4 बजे उठा देती है कि बेटा दौड़ने जा. भागने-दौड़ने की परीक्षा में पास होना है इसलिए घी और दूध निकाल कर खिलाती है कि बेटा मजबूत बनेगा तो बहाली के दौरान सेना में भर्ती हो पाएगा. एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि पाकिस्तान पर हमला कर दिया जाए. क्या पाकिस्तान पर हमला कर देना समस्या का समाधान है.
कुछ लोग श्रीलंका का उदाहरण देते हैं कि देखो लिट्टे के शासन को सेना ने कैसे खत्म कर दिया. अब कठदिमागों को कौन समझाए कि प्रभाकरण का आतंक का इलाका इसलिए खत्म हुआ क्योंकि वो हिंसक तरीके से काबिज हुआ था. प्रभाकरण इतनी मेहनत गांधीवादी तरीके से करता तो हो सकता है कि वक्त लंबा लगता मगर उसका नामोनिशा खत्म नहीं होता. कहते हैं कि इंदिरा गांधी ने सेना के बल पर बंग्लादेश बना दिया. ये अर्धसत्य है. ये संभव हुआ क्योंकि गांधीवादी मुजिबुर्रहमान के साथ पूरी आवाम खड़ी थी.
मेरे दादा जी कहा करते थे कि अपने बच्चों को पढ़ाओ लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है कि पड़ोसियों को बच्चों को पढ़ाओ क्योंकि किसी दिन पड़ोस में झगड़ा होगा तो तुम्हारा सिर नहीं फोड़ेगा बल्कि पढ़ा लिखा होगा तो थाने जाएगा. यह बातें पाकिस्तान पर भी लागू होती हैं. मगर क्या कभी देश दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते भारत की तरफ से कोशिश की गई कि एक मजबूत पाकिस्तान बने. मजबूत पाकिस्तान से अर्थ है कि मजबूत लोकतांत्रिक पाकिस्तान बने जहां पर कभी कोई नफरत की गुंजाइश ना हो. क्या हमने पड़ोसी के नाते पाकिस्तान को सुधारने की कोशिश की. दुनिया का कोई भी देश हथियारों से मजबूत नहीं होता वह इंसान से मजबूत होता है. हमें समझना होगा कि हम एक मजबूत पाकिस्तान कैसे बनाएं जहां पर नफरत की कोई जगह नहीं हो.
हमारे सामने दूसरी समस्या है कि देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि हमारे तमाम मुश्किलात के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं. मुसलमान ही हैं जिनकी वजह से हम चैन से जी नहीं पा रहे हैं वरना राम राज्य आ जाता. जरा सोचिए पाकिस्तान में तो सिर्फ मुस्लिम हीं है, वहां क्यों इतना ज्यादा आतंकवाद और हिंसा है. ईरान और इराक का मजहब एक था फिर भी क्यों 20 साल से ज्यादा वक्त तक लड़ते रहे. सऊदी अरब और यमन का झगड़ा तो खत्म ही नहीं हो रहा है वहां भी तो एक ही धर्म है. अगर आप कहते हैं कि मुसमान तो लड़ने वाले ही हैं तो फिर दक्षिण और उत्तर कोरिया के बीच झगड़ा क्यों है. ब्रिटेन और फ्रांस के लंबे युद्ध को कौन भूल सकता है. दो विश्व युद्ध तो हम बिना इस्लाम के ही लड़ चुके हैं. हमें समझना होगा कि हमारे देश में हमारे साथ मुसलमान नहीं रहते तो हो सकता है कि हम अगड़े और पिछड़े के नाम पर, जाति के नाम पर झगड़ लेते. क्योंकि जब तक इंसान का पुनर्जागरण नहीं होगा, इंसान शिक्षित नहीं होगा (जानकारी होने से शिक्षा का कोई संबंध नहीं है) तब तक वह झगड़ने के लिए कोई न कोई बहाना खोज लेगा. इंसान इंसानियत और पशुता के बीच फर्क उसकी सोच का ही होता है और उस सोच से हमें आगे निकलना होगा. जिस अमेरिका में काले घोड़े के नाम पर 8 राष्ट्रपति मारे गए हों वहां आज एक काले और मुसलमान को राष्ट्रपति बनाने के लिए देश तैयार हो जाता है. तो हमें समझना होगा कि इंसान के रूप में उन लोगों में हमसे ज्यादा इनलाइटमेंट है. इसकी वजह ये भी हो सकती है कि वो हमसे सौकड़ों दशक पहले 1785 में आजाद हुए थे. हमारे यहां तो इटली से आई सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री के बनने के नाम से ही हाहाकार मच गया था.
समाचार पत्रों समाचार चैनलों को देखकर लगता है कि उन्माद बाजारवाद का एक प्रोडक्ट बन गया है इसे बेचने की होड़ लगी है. ऐसा लगता है कि ऐसे ऐसे लोग संपादक बन गए हैं जैसे डीजीपी के पोस्ट पर कोई कॉन्स्टेबल बैठा दिया गया हो. जिनकी सोच बौनी है और सोचने का दायरा तंग है. उन्माद पैदा करते माहौल को में कोई आशा की किरण तलाशना मुमकिन दिख नहीं रहा है. शाम को दफ्तर से लौटते वक्त सड़कों पर पाकिस्तान मुर्दाबाद कहने वालों का मेला लगा रहता है. आप भी सोचिए क्या इस तरह से समस्या का हल निकल सकता है.
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