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Updated: 22 अगस्त, 2021 12:57 PM
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) आखिर चुनाव हार कर भी लोगों का दिल कैसे जीत लेते हैं - ऐसी बातें तो खेलों में खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर हौसलाअफजाई के क्रम में सुनने को ही मिलतीं है, लेकिन मूड ऑफ द नेशन सर्वे (Mood Of The Nation) के आंकड़ों में तो ऐसे ही रिकॉर्ड दर्ज हुए हैं.

लगातार तीसरी बार चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री बनीं ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के मुकाबले प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी ज्यादा लोगों की पसंद बने हुए हैं - बीते साल भर में ममता की लोकप्रियता में भी चार गुणा इजाफा हुआ है, फिर भी वो राहुल गांधी से आंकड़ों के मामले में पीछे ही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में देखें तो मालूम पड़ता है कि सिर्फ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही राहुल गांधी से मामूली बढ़त लिये हुए हैं.

राहुल गांधी का ये हाल तब है जब 2019 के आम चुनाव के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस की किसी भी जीत में उनका योगदान न के बराबर है. महाराष्ट्र और झारखंड में कांग्रेस सत्ता में हिस्सेदार है या तमिलनाडु में सत्ताधारी डीएमके की गठबंधन में पार्टनर है तो भी राहुल गांधी का रोल उंगलियों पर गिना जा सकता है - कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े सुलझाने से ज्यादा उलझाने में दिलचस्पी नजर आती है.

जिन मोदी-शाह को डंके की चोट पर चैंलेज करते हुए ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में न सिर्फ जीत हासिल की, बल्कि बीजेपी को सौ सीटों की संख्या तक न पहुंचने दिया, उनसे मुकाबला करते हुए राहुल गांधी अमेठी की अपनी सीट तक नहीं बचा सके - और अब भी सोशल मीडिया के कंधे पर बंदूक रख कर मोदी सरकार के खिलाफ इंसाफ की जो लड़ाई राहुल गांधी लड़ रहे हैं उसका भी कोई मतलब समझ नहीं आ रहा है. मकसद भले सही हो, लेकिन तरीका भी सही है, ऐसा तो नहीं ही लग रहा है.

चुनाव हार कर दिल जीतते राहुल गांधी

अपनी राजनीति के शुरुआती दौर में भी राहुल गांधी का दलितों के घरों का दौरा काफी चर्चित हुआ करता था - और अक्सर ही वो बीएसपी नेता मायावती के निशाने पर आ जाते रहे. फिर भी अपने दलितो वोटर को समझाने का तरीका मायावती निकाल ही लेती रहीं, कहती थीं - 'दलितों के घर से दिल्ली लौटने के बाद राहुल गांधी एक विशेष प्रकार के साबुन से नहाते हैं.'

राजनीतिक विरोधियों की बातों से बेपरवाह और धुन के पक्के राहुल गांधी अपने मिशन में लगे रहते और कांग्रेस की तरफ से दावा किया जाता कि कैसे वो गरीब, कमजोर और समाज के वंचित तबकों के हक और इंसाफ की लड़ाई लड़ते हैं. राहुल गांधी जैसे पहले राहुल गांधी के दौरों की तस्वीरें मीडिया से शेयर की जातीं, वैसे ही हाल ही में दिल्ली की रेप पीड़ित बच्ची के परिवार से मुलाकात की तस्वीरें राहुल गांधी के ट्विटर अकाउंट से शेयर की गयीं - मीडिया से शेयर किये होते तो मोजेक करके ही प्रकाशित की जा सकती थीं, लेकिन कोई चेक प्वाइंट न होने से हादसा हो गया.

शिकायत मिलने पर पहले ट्विटर और फिर फेसबुक ने इंस्टाग्राम से वे पोस्ट हटा दी है, लेकिन राहुल गांधी का कहना है कि इंसाफ की लड़ाई जारी रहेगी - और ये लड़ाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ है.

rahul gandhi, mamata banerjee, sonia gandhiराहुल गांधी और ममता बनर्जी में आगे तो वहीं बढ़ेगा जो मंजिल पर फोकस होगा, न कि किसी खास मुकाम पर

क्या राहुल गांधी के इंसाफ की लड़ाई का ये तरीका ही है जो लोगों को ज्यादा पसंद आ रहा है?

या फिर उनका गांधी परिवार से होना उनकी फैन फॉलोविंग बरकरार रखे हुए है?

क्योंकि राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता न तो कहीं नजर आ रही है - और न ही कांग्रेस के अंदर ही महसूस किया जा रहा है. राहुल गांधी के करीबी नेता कांग्रेस छोड़ कर चले जा रहे हैं.

ऐसा भी नहीं लगता कि ये सब राहुल गांधी को कहीं प्रभावित भी करता हो - महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं सुष्मिता देव को भी ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद की ही तरह राहुल गांधी के बेहद करीबी कांग्रेस नेताओं की सूची में शामिल किया जाता रहा - वो हाल ही में ममता बनर्जी की ही पार्टी तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन कर चुकी हैं.

कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखे G 23 के पत्र में भी राहुल गांधी के प्रति वही नजरिया दिखा जैसा अशोक गहलोत ने सचिन पायलट के लिए कहा था - 'निकम्मा और नकारा'. सोनिया गांधी को लिखे पत्र में कांग्रेस नेताओं ने ऐसे अध्यक्ष की जरूरत बतायी थी 'जो वास्तव में काम करता हुआ नजर भी आये'. निश्चित तौर पर ये राय नेताओं की राहुल गांधी के पिछले कार्यकाल में उनकी कार्यशैली को देखते हुए ही बनी होगी.

2019 के आम चुनाव में गांधी परिवार की गढ़ मानी जाती रही अपनी अमेठी सीट ही राहुल गांधी हार गये - वो भी गुजरात से आकर चैलेंज कर रहीं बीजेपी नेता स्मृति ईरानी से. वो तो पहले ही कांग्रेस के रणनीतिकारों को सद्बुद्धि आ गयी और वो वायनाड से भी चुनाव लड़ चुके थे, वरना ट्विटर प्रोफाइल में सांसद लिखने तक को मोहताज हो जाते. बाकी बुजुर्ग नेताओं की तरह कार्यकारिणी सदस्य लिख कर ही काम चलाना पड़ता या पूर्व अध्यक्ष.

चुनाव नतीजे आने के बाद वायनाड पहुंचे तो कहने लगे, ऐसा लग रहा है जैसे बचपन से ही रहा हूं. राजनीतिक बयान के तौर पर तो ये सही हो सकता है, लेकिन केरल विधानसभा चुनाव के दौरान उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों की समझ में तुलना करके क्या हासिल किये - जो नेता राष्ट्रीय राजनीति में लंबा वक्त गुजार चुका हो, ऐसा बयान किसी के लिख कर देने पर भी कैसे पढ़ सकता है? ऐसी बातें तो क्षेत्रीय नेताओं को ही सूट करता है.

और नतीजा क्या रहा? केरल से राहुल गांधी के सांसद होने के बावजूद कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में कोई फायदा नहीं मिला. तमिलनाडु और पुद्दुचेरी तक एक्टिव रहे. असम में जरूर प्रियंका गांधी वाड्रा जमी रहीं और बंगाल में आखिर में एक रैली जरूर किये थे.

बिहार में तो चुनाव नतीजे आने के बाद गठबंधन साथी आरजेडी नेता ही टूट पड़े थे - आरजेडी में ये धारणा बनी कि राहुल गांधी सीटों की जिद पर नहीं अड़े होते तो महागठबंधन की सरकार बनायी जा सकती थी.

पंजाब कांग्रेस का झगड़ा जिस तरीके से सुलझाया गया है वो सभी ने देखा ही है. पंसद और नापसंद के आधार पर कैप्टन और सिद्धू के बीच फैसला लिया गया.

राजस्थान में विवाद गहराता ही जा रहा है. अशोक गहलोत ने तो ऐसी राजनीति शुरू की है कि जैसे गांधी परिवार को ही नो एंट्री का बोर्ड दिखा रहे हों. कोई अजय माकन के मन से तो पूछे - कैसे अशोक गहलोत ने उनके फोन तक उठाने बंद कर दिये थे.

एक बार फिर यूपी चुनाव सामने हैं और भाई-बहन की नाराजगी के चलते ही अखिलेश और मायावती दोनों ही विपक्षी जमावड़े से दूर हो चुके हैं. मायावती को प्रियंका गांधी वाड्रा के चलते बुलाया नहीं गया और अखिलेश यादव राहुल गांधी की वजह से आये ही नहीं. प्रियंका गांधी कह रही हैं कि वो यूपी में गठबंधन की पक्षधर हैं और दोनों क्षेत्रीय नेता अकेले चुनाव लड़ने की बात दोहरा रहे हैं. अखिलेश यादव की ही तरह बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा हर ब्राह्मण सम्मेलन में ये जरूर याद दिलाने की कोशिश करते हैं कि बीएसपी किसी के साथ पंजाब की तरह चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं करने जा रही है.

इंडिया टुडे के लिए कार्वी इनसाइट्स की तरफ से कराये गये सर्वे मूड ऑफ द नेशन के मुताबिक राहुल गांधी और ममता बनर्जी के बीच प्रधानमंत्री पद को लेकर अब भी 2 फीसदी का फासला है. साल भर पहले ये फासला 6 फीसदी का रहा.

सर्वे के मुताबिक, अगस्त, 2021 के सर्वे में राहुल गांधी को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप देखने वाले 10 फीसदी लोग हैं, जबकि ममता बनर्जी को पसंद करने वाले 8 फीसदी ही हैं. हालांकि, ठीक एक साल पहले अगस्त, 2020 में राहुल गांधी 8 फीसदी लोगों की प्रधानमंत्री पद की पसंद हुआ करते थे और ममता बनर्जी महज 2 फीसदी लोगों की. इसी साल जनवरी में राहुल गांधी को पसंद करने वाले 1 फीसदी घट कर 7 फीसदी हो गये थे, जबकि ममता बनर्जी को पसंद करने वाले लोगों की तादाद डबल होकर 4 फीसदी हो गयी थी.

सर्वे ये तो बता रहा है कि फाइटर राजनीकि छवि वाली ममता बनर्जी को पसंद करने वाले हर छह महीने बाद डबल होते जा रहे हैं, लेकिन राहुल गांधी यूं ही रेस में आगे बने हुए हैं - ये समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है.

विपक्ष की मीटिंग में ममता ने दिखाया आईना

एक बात तो हर किसी ने नोटिस किया ही था कि ममता बनर्जी के दिल्ली आते ही, राहुल गांधी काफी एक्टिव हो गये थे. अचानक विपक्ष के नेताओं को बुलाकर मीटिंग करने लगे थे. फिर कभी जंतर मंतर तक तो कभी विजय चौक तक मार्च करते देखे गये.

जिस तरीके से ममता बनर्जी ने तब राहुल गांधी की तरफ से बुलायी गयी विपक्ष की मीटिंग से दूरी बनायी - और राहुल गांधी की तीन बैठकों में से सिर्फ एक में अपना प्रतिनिधि भेजा वो भी गौर करने वाली बात रही. तृणमूल कांग्रेस के एक सीनियर नेता ने तो साफ साफ बोल दिया - अब ऐसे ही कोई थोड़े चला जाएगा.

तृणमूल कांग्रेस सांसद सौगत रॉय से जब पूछा गया तो बोले, 'किसी को लगता है कि हम हर कार्यक्रम में शामिल होंगे, तो ऐसा मुमकिन नहीं है... हमें बताना होगा... हम अपने नेता से बात करेंगे फिर तय करेंगे - हम हर मामले को मेरिट पर देखते हैं.'

ममता बनर्जी ने हमेशा की तरह 10, जनपथ जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात भी की थी, लेकिन पाया कि राहुल गांधी विपक्षी नेताओं के साथ लगातार मीटिंग किये जा रहे हैं और कोलकाता से ही जिस मीटिंग की उम्मीद में वो कार्यक्रम बनायीं वो तो हुई ही नहीं. लौटते वक्त बड़े ही दुखी मन से ममता ने बताया कि एनसीपी नेता शरद पवार से उनकी फोन पर बात हुई है, लेकिन मुलाकात नहीं हुई. ये चीज तो ममता बनर्जी को भी समझ आ ही गयी होगी कि शरद पवार खुद चल कर मिलने लालू यादव के पास पहुंच गये, लेकिन तृणमूल कांग्रेस नेता को मुलाकात का समय तक नहीं दिया.

सोनिया गांधी के विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाने पर ममता बनर्जी शामिल तो हुईं, लेकिन नये तेवर के साथ जिस तरीके से आईना दिखाने की कोशिश की. वो सब लोग लंबे अरसे तक याद रखेंगे.

ममता बनर्जी को बुरा ये लगा कि सबको बुलाया गया लेकिन अरविंद केजरीवाल को इनवाइट नहीं किया गया. आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज ने ने तो पहले ही बता दिया था कि AAP को कांग्रेस की ओर से न्योता नहीं दिया गया है.

ममता बनर्जी ने बड़ी ही संजीदगी से ये मुद्दा उठाया और समझाया कि बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में कहां फोकस होना चाहिये और कहां जरूरत नहीं होनी चाहिये. बड़े ही सोफियाने लहजे में ममता बनर्जी ने कांग्रेस नेतृत्व को समझाने की कोशिश की कि लड़ाई में साथ रहना है तो निजी हितों को अलग रख कर सोचना होगा. हालांकि, सोनिया गांधी बातें तो ऐसी ही कर रही थीं, लेकिन ममता बनर्जी के पैमाने पर तो सच से परे साबित हुईं.

ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों की मीटिंग में जो एक बड़े और अनुभवी नेता की जो अपनी छवि पेश की है, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को हमेशा याद रहेगा. ममता बनर्जी ने सबको साथ लेकर चलने की बातें की. समझाया कि लक्ष्य के प्रति समर्पण जरूरी है, न कि नेता कौन होगा जैसे चक्करों में पड़ने की जरूरत है. ममता बनर्जी जानती हैं कि सोनिया गांधी अब तक अपने उस मोह को त्याग नहीं पा रही हैं कि प्रधानमंत्री पद पर तो राहुल गांधी की ही दावेदारी रहेगी - और सारा खेल इसीलिए हो रहा है - लेकिन ये नहीं भूलना चाहिये कि खेल के इस तरीके में पहले से ही हार तय है. दरअसल, ममता बनर्जी अपने तरीके से गांधी परिवार को ऐसी ही समझाइश दे रही हैं - ये बात अलग है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी समझ कर भी समझने को तैयार नहीं हैं.

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