कांग्रेस की हार के लिए राहुल गांधी कब तक भाजपा को दोषी ठहराएंगे
बीते कई दिनों से मीडिया की सुर्ख़ियों में रहने वाले कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी इस्तीफ़ा दे चुके हैं. कुमारस्वामी के इस्तीफे के साथ एक बार फिर सियासत तेज हो गई है और इसी के साथ कांग्रेस ने भाजपा पर इल्जाम लगाने शुरू कर दिए हैं.
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कर्नाटक में 12 दिनों तक चले लम्बे ड्रामे के बाद आखिरकार कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री का पद गंवाना पड़ा. मंगलवार को हुए फ्लोर टेस्ट में जेडीएस और कांग्रेस के गठबंधन को बहुमत प्राप्त न हुआ, नतीजन उनकी सरकार गिर गई. बागी विधायक जिन्होंने सरकार गिराने का काम किया, उस वक़्त मुंबई के भव्य होटलों में ठहरे हुए थे, और फ्लोर टेस्ट में हुए इतनी लम्बी देरी के बावजूद, दोनों पार्टियां उनको मनाने में नाकामयाब साबित हुईं. अब फिर वही - ढाक के तीन पात, कांग्रेस और जेडीएस इलज़ाम मढ़ने उतर गए हैं. सरकार गिरने के बाद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष, राहुल गांधी ने मंगलवार को ट्वीट किया और कहा कि 'पहले दिन से ही अपने निहित स्वार्थों के चलते कांग्रेस-जेडीएस के इस गठबंधन को अंदर-बाहर से उनके द्वारा टारगेट किया जा रहा था जिन्हें इससे खतरा महसूस हुआ और लगा कि यह गठबंधन उनकी सत्ता पाने की चाह में रोड़े अटका रहा था. उनके लालच की आज जीत हुई. लोकतंत्र, ईमानदारी और कर्नाटक के लोग हर गए'. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के पास दूसरों पर उंगली उठाने का पूरा अधिकार है पर लीपा पोती के इस खेल में वे यह न भूलें कि यदि आप किसी पर एक उंगली उठाते हैं तो तीन अंगुलियां आप पर ही उठ जाती हैं.
विश्वास मत में जेडीएस -कांग्रेस के गठबंधन को बहुमत न मिलने के कारण एचडी कुमारस्वामी को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा
सबसे पहली बात तो यह कि कांग्रेस और जेडीएस का यह गठबंधन ही नापाक था. चुनाव उपरांत अपने कट्टर दुश्मनों से हाथ मिलाते समय कांग्रेस ने एक बार भी नहीं सोचा कि ऐसा करने से पार्टी को क्या नुक्सान होगा. भाजपा को हराने और सत्ता पाने के लालच में कांग्रेस इतनी लीन थी कि उसने अपनी ही पार्टी के मूल्यों और उसके समर्थकों के विश्वास से मुंह फेर लिया. 2018 के विधानसभा चुनावों में ऐसी 43 सीटें थीं जहां पर कांग्रेस-जेडीएस आमने सामने लड़ रही थीं यानी दोनों ही पहले दूसरे स्थान पर विराजमान थी.
विधानसभा के नतीजे आने के बाद हुए इस गठबंधन से न जाने कितने ही हारे हुए उम्मीदवारों, कार्यकर्ताओं, समर्थकों और सबसे ज़्यादा वोटरों को चोट पहुंची होगी. क्या तब लालच की जीत नहीं हुई थी? क्या तब लोकतंत्र, ईमानदारी और कर्नाटक के वोटरों की हार नहीं हुई थी? और तो और ये बागी नेता भी कोई बड़ी जीत न दर्ज कर पाए थे. इनमें से चार तो विधायक ऐसे थे जो लगभग एक परसेंट के मार्जिन से जीते थे. आधे से ज़्यादा बागी नेताओं के जीत के मार्जिन 10 प्रतिशत से भी कम थे. दुश्मनों से हाथ मिलाना, कम मार्जिन वाले विधायकों का ध्यान न रखना इस गठबंधन को महंगा पड़ा नतीजन 14 महीनों में ही इस गठबंधन की हवा निकल गई.
सिर्फ कर्नाटक ही नहीं बाकी बड़े चुनावों में भी कांग्रेस की हार की ज़िम्मेदार भाजपा नहीं वह खुद थी. अब 2019 का लोक सभा चुनाव ही देख लीजिए. राहुल गांधी जिनको न जाने कितने चुनावों से मैं युवा नेता के रूप में देख रहा हूँ 49 वर्ष के हो गए हैं (मेरे पिता जी ही 50 साल के हैं). देश की आधी से ज़्यादा आबादी अभी 29 साल से कम की आयु की है. ऐसे समय में जब युवा शक्ति की बातें हो रही हैं, ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने हर बार की तरह इस बार भी बूढ़े नेताओं का ही सहारा लिया. इस बार के हुए लोक सभा चुनावों में कोंग्रेसी नेताओं की औसत आयु 57 वर्ष थी जोकि देश की औसत आयु से लगभग दुगुना है.
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या कांग्रेस पार्टी के पास युवा शक्ति नहीं? कांग्रेस पार्टी के पास दो युवा पूंजियां हैं- एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस. 1960 के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यूथ कांग्रेस की स्थापना की. युवाओं को सामाजिक गतिविधियों में उतारने और दक्षिणपंथी पार्टियों के खिलाफ आवाज़ उठाने के उद्देश्य से उन्होंने इसे बनाया. लेकिन आज के समय में यूथ कांग्रेस शायद ही कभी सामाजिक कार्यों में आगे आते हुए दिखती है. और तो और कांग्रेस पार्टी की यह युवा शाखा उस समय उपहास का पात्र बन गई जब इसके कार्यकर्ताओं की रफाल मामले को लेकर पूछे सवालों में हवा निकल गई. वो भी तब जब उनको दिल्ली में इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जुलूस करने के लिए एकत्रित किया गया था.
कर्नाटक चुनाव हार जाने के बावजूद कांग्रेस ने जिस तरह जेडीएस के कंधे पर चढ़कर सत्ता पाई, उसी से उसकी कमजोरी उजागर हो गई थी.
एनएसयूआई, जो यूथ कांग्रेस के सामने थोड़ी समझदार दिखाई पड़ती है का कुछ तो बोल बाला है. गत वर्ष ही एनएसयूआई इलाहबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों को जीतने के साथ-साथ राजस्थान और गुजरात में भी जीत दर्ज कर गई थी. लेकिन युवाओं से भरी इस शक्ति का फायदा कांग्रेस नहीं उठा पाती. विद्यार्थी परिषद् से उभरे नेताओं को वह राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा नहीं बनाती और जब वह ऐसा करती है तब तक वे नेता बूढ़े हो चुके होते हैं.
कर्नाटक के केस में तो पार्टी ने युवाओं का ध्यान खींचने के लिए कुछ किया ही नहीं. कर्नाटक एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के सोशल मीडिया हैंडलों को ही देख लीजिए. उस वक्त में जब कर्नाटक राजनीतिक संकट से जूझ रहा था, कर्नाटक एनएसयूआई अपने अध्यक्ष नीरज कुंदन को ही रीट्वीट करने में लगी हुई थी और यूथ कांग्रेस तो सोशल मीडिया पर दूर दूर तक नज़र नहीं आ रही थी. सिर्फ युवा ही नहीं, पार्टी को आम जनता और अपने वोटरों का दर्द भी दिखाई नहीं देता खासतौर से तब जब वह विपक्ष में है, जबकि उसकी प्रतद्वंद्वी भाजपा अब भी लोगों का विश्वास बटोरने में लगी हुई है.
कोई ज़माना था जब पेट्रोल के दाम 2 रुपये भी बढ़ते थे तो भाजपा पूरे देश में बढ़ चढ़कर भारत बंध के आयोजन करने में फट से जुट जाती थी. पेट्रोल के दाम जो आज 2014 की तुलना में काफी ज़्यादा हैं, ने आम आदमी को निचोड़ कर रख दिया है लेकिन इसके प्रति विपक्षी कांग्रेस के कानों में जूं तक नहीं रेंगती. अब न ही भारत बंध देखने को मिलते हैं और न ही आम आदमी पर हो रहे ज़ुल्मों को लेकर रोष प्रदर्शन.
भाजपा (जो खुद करोड़पतियों की पार्टी है) ने लोगों को यह साबित करने में जद्दोजहद कर दी कि कांग्रेस एक शाही पार्टी है, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इसके खिलाफ मोर्चा खोला तो नहीं और तो और उन्होंने "चौकीदार चोर है" का नारा भी जप दिया जिससे यह "शाही पार्टी " वाली इमेज और भी ज़्यादा साफ़ हो गई. इससे यह साफ हो जाता है कि आम आदमी की दुखती रगों पर कांग्रेस पार्टी की नज़रें अब तक न पड़ी हैं.
कर्नाटक हाथ से गया और गोवा में भी कुछ ऐसे ही आसार लग रहे हैं. और तो और ऐसे समय में जब पार्टी इतने सारे संकटों से जूझ रही है, पार्टी के अध्यक्ष जी ने ही इस्तीफ़ा दे दिया है! कांग्रेस अब कोमा में पड़ी मरीज़ जैसी हो गई है जिसका इलाज राहुल गांधी भी नहीं कर सकते. तो क्या इसके लिए भी भाजपा को ज़िम्मेदार ठहराया जाए?
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