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Updated: 17 अप्रिल, 2015 02:45 PM
शहजाद पूनावाला
शहजाद पूनावाला
  @shehzadpoonawalla
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मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, कांग्रेस उपाध्यक्ष की 56 दिनों की छुट्टी, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष ने मंजूर की थी, के बाद उनकी दिल्ली वापसी को लेकर सड़क पर निकल पड़ा है. एक बात तो साफ हो जाती है कि यह युवा नेता आधे अप्रासंगिक तो नहीं हैं, जैसा कि उनके विरोधी हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं. अगर उनकी गैरमौजूदगी मीडिया में इतनी दिलचस्पी और हाय-तौबा मचा सकती है, तो साफ तौर पर उनकी मौजूदगी से और ज्यादा की उम्मीद की जा सकती है.

लगता है राहुल अब जरा भी समय बर्बाद नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने खुद को लगातार बातचीत और किसानों के साथ बड़ी मीटिंग के लिए तैयार किया है, जो 19 अप्रैल को मोदी सरकार के विवादित भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ होने जा रही है. राहुल अपने वरिष्ठ सहयोगियों के साथ कांग्रेस अध्यक्ष की उस बात को आगे बढ़ाएंगे जिसे उन्होंने 14 विपक्षी पार्टियों के साथ राष्ट्रपति भवन तक मार्च कर पहुंचाया था.

राहुल के खिलाफ 'असहमति' के रूप में शीला दीक्षित या कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे नेताओं के बयानों को उछालने में मीडिया ने थोड़ी जल्दबाजी दिखा दी. कितनी अजीब बात है कि सोनिया के पक्ष में कही हुई कोई बात कैसे राहुल के लिए सवालिया निशान हो सकती है. लेकिन पार्टी में इस तरह के मुद्दों पर बातचीत होने से कोई नुकसान नहीं होना चाहिए, जब तक कि कोई ठोस बात सामने न आ जाए. ये बात किसी को रास नहीं आएगी कि कांग्रेस को भी अपनी पार्टी के नेताओं के खिलाफ अरविंद केजरीवाल स्टाइल में मुहिम चलानी चाहिए, जिस तरह आप ने अपनी बात रखने के लिए योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के खिलाफ "सार्वजनिक अपमान" अभियान चलाया था. या ऐसे नेताओं को किनारे करने के लिए मार्गदर्शक समिति में भेजना चाहिए जैसे नरेंद्र मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ किया. भाजपा के असली लौह पुरुष को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी बोलने की अनुमति नहीं मिली, डर था कि कहीं वो मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ कुछ बोल न दें. जबकि कांग्रेस ने साबित किया है कि वहां नेतृत्व, आर्थिक नीति, विचारधारा और रणनीति जैसे मुद्दों पर बहस की पूरी गुंजाइश रहती है.

जिन्हें राहुल के नेतृत्व के बारे में नकारात्मक चीजें ही करनी है या फिर उन्हें और सोनिया को लेकर किस्से गढ़ने हैं और बांटने की बात फैलानी है, जिसका कोई वजूद नहीं है, उससे किसी को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला.
कांग्रेस अध्यक्ष ने पार्टी का अच्छे से नेतृत्व किया है. एक वक्त ऐसा भी रहा जब चुनावों में हार के चलते उनके नेतृत्व पर भी सवाल उठे थे. बाद के दिनों में उन्होंने बड़ी जीत हासिल की. हार और जीत लोकतंत्र और राजनीतिक पार्टी के जीवन में एक चक्र की तरह चलते रहते हैं. इंदिरा गांधी के नेतृत्व को लेकिन भी कभी ऐसी ही चीर-फाड़ हुई थी. उनके विरोधियों ने बेरहमी के साथ उन पर "गूंगी गुड़िया'' का ठप्पा लगा दिया था. आज भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता इसी तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. राहुल को लेकर कभी "आइटम नंबर" तो कभी "बोझ" जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है, जिनका किसी सभ्य राजनीतिक बहस में कोई स्थान नहीं होनी चाहिए. मैं कह सकता राहुल बिल्कुल अपनी दादी की तरह हैं, जो यकीनन भारत की सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री रही हैं.
 
मीडिया के लिए "राहुल वापसी" तो हो गई. अब "ज़मीन वापसी", "घर वापसी" और "काला धन" वापसी के असली मुद्दों की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आप क्या कर रहे हैं?

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