राहुल गांधी की मुश्किलों की वजह कोई और है, बीजेपी तो बस मौके का फायदा उठाती है
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को सोशल मीडिया पर जिस तरीके से ट्रीट किया जाता है, ऐसा लगता है जैसे बीजेपी (BJP) या बाकी राजनीतिक विरोधी तो बस मौके का अपने हिसाब से फायदा उठाते हैं - मुश्किलों की जड़ें तो कांग्रेस (Congress) के भीतर ही हैं.
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) एक वीडियो की वजह से निशाने पर आ गये हैं. वीडियो को लेकर तो बड़े बड़े दावे किये जा रहे थे, लेकिन सारे दावे सच नहीं हैं. बेशक वीडियो नेपाल के एक नाइट क्लब का है, लेकिन उनके साथ नजर आ रही युवती चीन की राजदूत नहीं, बल्कि जिस दोस्त की शादी में वो गये हैं, उसकी दोस्त है.
वीडियो को लेकर बीजेपी स्वाभाविक तौर पर हमलावर है. बीजेपी (BJP) की तरफ से सार्वजनिक जीवन में किसी नेता की नैतिकता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं - और कांग्रेस (Congress) नेता सामाजिकता और संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं.
राहुल गांधी से जुड़ा ये वीडियो भी टारगेट करने का बहाना ही है. जैसे बाकी मौके बहाना बनते हैं. ये कोई अश्लील सीडी नहीं है, लेकिन सीधे उसे देश की सुरक्षा से जोड़ दिया जाता है. एक मिलते जुलते चेहरे वाली युवती को चीन का राजदूत होने का दावा कर दिया जाता है, लेकिन सवाल ये भी है कि ऐसा क्यों किया जाता है?
असल में राहुल गांधी का बीता हुआ ट्रैक रिकॉर्ड ही इसके लिए जिम्मेदार है. ये सही है कि चीन के जिस राजदूत होउ यांकी का जिक्र छिड़ा है, पहले से ही नेपाल में उनकी गतिविधियों को संदेह की नजर से देखा जाता रहा है.
दरअसल, राहुल गांधी की चीन के तत्कालीन राजदूत से एक पुरानी मुलाकात काफी विवादित रही है. वो मुलाकात उतनी विवादित भी नहीं होती अगर कांग्रेस की तरफ से एक सीधा स्टैंड लिया गया होता. उस मुलाकात को लेकर पहले तो कांग्रेस की तरफ से इनकार किया गया, लेकिन बाद में राहुल गांधी की तरफ से ही बताया गया कि सच में वो मिले थे.
पार्ट-टाइम से पार्टी-टाइम पॉलिटिशियन: चीन के साथ सीमा विवाद का मुद्दा संवेदनशील तो रहा ही है, गलवान घाटी में सेना के जवानों और चीनी सैनिकों के संघर्ष के बाद से राहुल गांधी हरदम ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं. लिहाजा जब भी कहीं मौका मिलता है, राहुल गांधी के खिलाफ उनके विरोधी चीन-कार्ड कार्ड का इस्तेमाल कर लेते हैं, भले ही वो फेक ही क्यों न साबित हो जाये. नेपाल का मामला भी मिलता जुलता ही लगता है.
लेकिन हुआ ये है कि राहुल गांधी के जो विरोधी अभी तक पार्ट-टाइम पॉलिटिशन कहते रहे, नेपाल के नाइटक्लब से मार्केट में पार्टी का वीडियो आने के बाद पार्टी-टाइम पॉलिटिशियन कहने लगे हैं.
Rajasthan burns but RAHUL GANDHI prefers partying over his own party !! He tweets about various crisis in India but prefers bars over Bharat ke log! Rahul is not even a part time politician but a party time politician !Not the first time .. remember his party mode post 26/11 pic.twitter.com/745S5tNCoD
— Shehzad Jai Hind (@Shehzad_Ind) May 3, 2022
Regular Parties, Vacations, Holidays, Pleasure Trips, Private Foreign Visits etc are nothing new to the nation now.As a private citizen there's no issue at all but when an MP, a permanent boss of a national political party who keeps preaching others..... https://t.co/r7bgkmHmvT
— Kiren Rijiju (@KirenRijiju) May 3, 2022
राहुल गांधी की पार्टी को लेकर कानून मंत्री किरण रिजिजु और बीजेपी के आईटी सेल के चीफ अमित मालवीय ने अलग अलग सवाल खड़े किये हैं. अमित मालवीय ने राहुल गांधी के नाइटक्लब दौरे को मुंबई हमले से जोड़ने की कोशिश की है. अमित मालवीय की नजर में कांग्रेस की मौजूदा हालत वैसी ही है. बीजेपी के कुछ नेताओं ने प्रशांत किशोर के साथ कांग्रेस की हालिया बैठकों और प्रजेंटेशन की तरफ ध्यान दिलाकर भी राहुल गांधी को निशाना बनाया है.
केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजु को राहुल गांधी के पार्टी करने से कोई एतराज नहीं होता, बशर्ते वो सार्वजनिक जीवन में नहीं होते, सांसद नहीं होते या कम से कम कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता नहीं होते - दरअसल, यही वो नाजुक मोड़ है जिसने राहुल गांधी का सियासी जिंदगी हराम कर रखी है और उसी के चलते सोशल लाइफ भी करीब करीब तबाह होती लगती है.
स्थान विशेष के साथ राहुल गांधी की परफॉर्मेंस बदल जाती है. कुछ जगह तो वो बड़े कम्फर्टेबल नजर आते हैं, कई जगह बस जैसे तैसे रस्मअदायगी करते देखे जा सकते हैं. राहुल गांधी अक्सर अपने अनुभवों का जिक्र तभी का करते हैं जब वो किसी निजी कंपनी में वो कंसल्टैंट हुआ करते थे. हाल ही में राहुल गांधी गुजरात कांग्रेस के चिंतन शिविर में मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर दिखे थे. बातें, किस्से और सेंस ऑफ ह्यूमर, सब कुछ तो था. ऐसे ही दिवाली के मौके पर तमिलनाडु के एक स्कूल स्टाफ के साथ बातचीत में राहुल गांधी ने बच्चों की परवरिश के सवाल पर बड़े ही खूबसूरत जवाब दिये थे. तब राहुल गांधी ने कहा था, "अगर मुझसे कोई ये पूछे कि आप अपने बच्चे को कौन सी एक चीज सिखाएंगे, तो मैं कहूंगा विनम्रता - क्योंकि विनम्रता से आपको चीजों की समझ आती है."
शायद यही वजह है कि जिन जगहों पर वो जबरन भेजे जाते हैं या कुछ थोपी हुई जिम्मेदारियों की वजह से मजबूरन पहुंचते हैं - हादसे हो ही जाते हैं. शायद संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले लगना और फिर दोस्तों से नजर मिलते ही आंख मार देना, किसी और बड़ी वजह से हुआ हादसा ही लगता है.
अगर काम बोझ लगने लगे, प्रदर्शन तो प्रभावित होगा ही!
ये तो राहुल गांधी के एक्शन से ही लगता रहा, लेकिन अब तो वो खुल कर कह भी चुके हैं कि न तो राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी है, न ही सत्ता में. ये तो राहुल गांधी की बातों से ही लगता है कि राजनीति वो मजबूरी में करते हैं - और मजबूरी में किया गया काम कैसे नतीजे दे सकता है?
फिर लगता तो यही है कि राहुल गांधी के राजनीतिक विरोधी, विशेषकर भारतीय जनता पार्टी के नेता तो महज मौके का फायदा भर उठाते हैं, राहुल गांधी की जिंदगी में मुश्किलें तो कहीं और से ही खड़ी की जाती हैं.
क्या ये मिड-कॅरियर क्राइसिस जैसी स्थिति है?
ऐसा लगता है जैसे राहुल गांधी जो मन में आता है करते रहते हैं. राहुल गांधी को किसी चीज ही परवाह नहीं होती. लेकिन ये सच नहीं लगता. ऐसा क्यों लगता है जैसे राहुल गांधी को अपने मनमाफिक काम करने ही नहीं दिया जाता!
पुराने कांग्रेसी कहते हैं कि पार्टी नेताओं या कार्यकर्ताओं से बात करते वक्त भी वो अपने पालतू पिड्डी से कहीं ज्यादा जुड़ कर खेल रहे होते हैं. ऐसी बातों से एक समझ तो ये बनती है कि राहुल गांधी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं से गुलामों सा व्यवहार करते हैं, लेकिन दूसरा पक्ष ये भी है कि जिस काम में व्यक्ति की दिलचस्पी ही न हो, भला उसे परवाह क्यों होगी?
शायद इसीलिए, स्कूल और कॉलेज के दोस्त रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया साथ छोड़ कर चले जाते हैं तब भी वो कुछ नहीं बोलते. बोलना पड़ता जरूर है. पूछा जाएगा तो बोला ही जाएगा. फिर बता देते हैं कि वो डर गये इसलिए चले गये. फिर ऐसे नेताओं को डरपोक कैटेगरी में डाल दिया जाता है. सचिन पायलट तो अभी अभी बड़ी मुश्किल से उस कैटेगरी से निकल पाये हैं.
सत्ता और विपक्ष की रजानीति में बड़ा फर्क होता है: राहुल गांधी ने जब से आंख खोली करीब से सिर्फ सत्ता की राजनीति देखी है. विपक्ष की राजनीति क्या होती है, ये तो बस 2014 के बाद ही मालूम हुआ है. वो भी तब जब नेशनल हेराल्ड केस में जमानत कराने कोर्ट जाना पड़ा. मानहानि के कई मुकदमों के लिए खुद कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं. एसपीजी सुरक्षा वापस ले ली गयी. साथी नेताओं को जेल की हवा खानी पड़ी - और बहनोई पर हर चुनाव से पहले ऐसे खतरे मंडराने लगते हैं.
जब तक कांग्रेस केंद्र की सत्ता में रही, राहुल गांधी की राजनीति बड़े आराम से चलती रही. जब वो किसान यात्राओं से लौट कर कलावती के किस्से सुनाते रहे. जब वो अचानक एक सुबह मोटरसाइकिल पर पीछे सवार होकर भट्टा पारसौल पहुंच गये थे. जब 2009 के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के खाते में 2004 की 9 सीटों के मुकाबले 21 सीटें झोली में भर दिये थे.
लेकिन तभी 2014 में ऐसी उलटी बयार बही कि बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए ने फिर से केंद्र की सत्ता पर कब्जा कर लिया - और कांग्रेस के अच्छे दिन तो जैसे चले ही गये. अगले चुनाव की जिम्मेदारी सोनिय गांधी ने राहुल गांधी को सौंप दी, लेकिन एक बार फिर मोदी लहर में कांग्रेस पैर ही नहीं जमा सकी. हार का ठीकरा राहुल गांधी के सिर आ गया और वो जिम्मेदारी लेते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिये.
क्या राहुल गांधी ने गलत कॅरियर चुन लिया है?
या राहुल गांधी को हालात ने कॅरियर चुनने का मौका ही नहीं दिया?
या फिर राहुल गांधी के सामने मिड-कॅरियर क्राइसिस जैसी स्थिति आ खड़ी हुई है?
क्या राहुल गांधी को फंसा दिया गया है?
असली वजह जो भी हो लेकिन अभी तो राहुल गांधी बुरी तरह फंसे हुए ही लगते हैं. देश के मौजूदा राजनीतिक हालात ऐसे हैं जिसमें बेहद मजबूत बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के खिलाफ कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी राहुल गांधी के कंधों पर डाल दी गयी है - और चीजों को संभालना मुश्किल हो गया है.
देश में कॅरियर ऑप्शन को लेकर बड़ा कन्फ्यूजन है. शायद इसलिए भी क्योंकि कम ही लोग ऐसे हैं जो अपने हिसाब से कॅरियर चुन पाते हैं. वरना, कोई मां-बाप के सपनों के हिसाब से, तो कोई आस पास के किसी टैलेंट को देख कर भविष्य को शेप देने की तैयारी करता है - और बाकी मजबूरी में चुनते हैं.
आलम ये होता है कि जो शख्स क्रिएटिव तरीके से सोचता है वो कहीं किसी सरकारी या निजी ऑफिस में अकाउंट्स मेनटेन कर रहा होता है - और जिसका ऐसे कामों में मन लगता है, जबरन कहीं फालतू की डिजाइनिंग कर रहा होता है. नतीजा ये होता है कि दोनों ही तरह के लोग अलग अलग जगह से अपना भी और औरों का भी नुकसान कर रहे होते हैं.
किसी भी काम के लिए इंटरेस्ट जरूरी है: राहुल गांधी का केस भी कुछ ऐसा ही लगता है. राहुल गांधी के लिए राजनीति खानदानी कारोबार जैसा वो बोझ है जिसे न चाह कर भी ढोना पड़ रहा है - और राजनीति में 'वारिस तो बेटा ही होता है' की जो थ्योरी पेश की जा चुकी है, राहुल गांधी भी उसी के शिकार हो रहे हैं.
नेहरू और पटेल की राजनीति को चाहे जैसे समझाया जाये, लेकिन इंदिरा गांधी को तो विरासत में आधी ही राजनीति मिली थी. इंदिरा गांधी ने जो कुछ सीखा वो पिता के प्रधानमंत्री बनने के दौरान ही सीखा था, लेकिन तब उनकी स्थिति वैसी नहीं रही जैसी संजय गांधी की इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते देखी गयी.
नेहरू से इंदिरा गांधी को राजनीति विरासत में सीधे नहीं मिली थी, जैसा राहुल गांधी का मामला है - बल्कि, इंदिरा गांधी ने सब कुछ बाकियों से छीन कर हासिल किया था. वो भी तब जब उनको कोई देने को तैयार न था. या फिर गूंगी गुड़िया के गफलत में लुटा बैठे.
राजीव गांधी की भी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी - और न ही सोनिया गांधी ही कभी ऐसा चाहती थीं, तभी तो इंदिरा ने पहले संजय को एंट्री दी थी. राजीव गांधी को तो तब ड्राइविंग सीट पर बैठने को मजबूर होना पड़ा जब छोटे भाई के साथ हादसा हो चुका था और मां आतंकवाद की शिकार हो गयी - वरना, राजीव को तो पायलट की सीट ही पसंद आती थी.
सोनिया गांधी ने भी राजनीति में आने का फैसला काफी सोच समझ कर किया था - और ऐसा करने के लिए वक्त भी काफी लिया था. हो सकता है, राहुल गांधी के लिए भी सोनिया गांधी ने पहले ऐसा ही सोच रखा हो, लेकिन गुजरते वक्त के साथ प्राथमिकताएं बदलती गयी होंगी.
राहुल गांधी की मौजूदा हालत के लिए जिम्मेदार कौन है? अगर कांग्रेस को लगता है कि देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर राहुल गांधी का ही हक है, तो ऐसे लोगों को ये भी नहीं भूलना चाहिये कि उनके और भी अधिकार हैं. वे अधिकार जो उनको देश के संविधान और समाज ने मिले हुए हैं - जिन्हें बरसों से कुचलने की कोशिश हो रही है.
हाल ही में राहुल गांधी, शरद यादव से मिलने गये थे. राहुल गांधी शरद यादव को राजनीति में अपना गुरु मानते हैं और मीडिया के सामने आये तो भी ऐसा ही कहा था. तभी शरद यादव का कहना रहा, राहुल गांधी 24 घंटे कांग्रेस को चला रहे हैं, लिहाजा कांग्रेस को चाहिये कि वो उनको फिर से अध्यक्ष बना दे.
लेकिन जब राहुल गांधी से उनकी राय जानने की कोशिश हुई तो बोले, 'ये देखने वाली बात होगी.'
और फिर कुछ ही देर बाद मौका देख कर राहुल गांधी साफ पूरी तस्वीर साफ कर दी. न तो सत्ता में उनका इंटरेस्ट है और न ही राजनीति में उनकी कोई भी दिलचस्पी है.
अगर वास्तव में ऐसा ही है तो आखिर क्यों राहुल गांधी से उनके सुकून का हक छीना जा रहा है?
सवाल ये है कि राहुल गांधी को अपने मन का काम क्यों नहीं करने दिया जा रहा है?
वो कौन है जो राहुल गांधी को अपने मन की जिंदगी नहीं जीने दे रहा है?
अगर फिटनेस और नाइट क्लब राहुल गांधी को पसंद है, तो किसी को दिक्कत क्यों हो रही है - ये दिक्कत भी इसलिए नहीं क्योंकि राहुल गांधी के विरोधी शोर मचा रहे हैं. बल्कि इसलिए कि राहुल गांधी का मुख्य काम राजनीति के रूप में पेश किया जाता है, जबकि सबको लगता है, वो इसे पार्ट टाइम या शौकिया करते हैं - कहते भी हैं कि वो ये सब इसलिए करते हैं क्योंकि वो अपने देश से प्यार करते हैं और उसे, उसके लोगों को समझने की कोशिश करते हैं.
अगर राहुल गांधी को अपने मन से जिंदगी जीने की आजादी होती तो निश्चित तौर पर कुछ अच्छा कर सकते थे - क्या ऐसा कोई भी होता है जिसमें कम से कम एक खासियत न हो? हर स्वस्थ मनुष्य में ये गुण होता है. इसे अभिलाक्षणिक गुण कहते हैं - निश्चित तौर पर कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं, लेकिन सब तो नहीं ही हो सकते. स्पेशल चाइल्ड का मामला अलग है.
अभी तो जो कुछ भी हो रहा है, कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते ये सारी जिम्मेदारी सोनिया गांधी की ही बनती है - जाहिर है जवाब भी राहुल गांधी को सोनिया की तरफ से ही मिलना चाहिये.
राहुल गांधी ने कभी अपनेआप को फकीर होने का दावा नहीं किया है. बस ये कहा है कि न तो उनको सत्ता का मोह है, न राजनीति में दिलचस्पी - और ये भी नहीं कहा कि जिस दिन मन करेगा वो झोला उठाकर चल देंगे. बेशक वो बार बार बाहर जाते हैं, लेकिन लौट कर घर ही आते हैं - अगर राहुल गांधी अपने तरीके से जिंदगी जीना चाहते हैं तो इस हक से उनको महरूम क्यों किया जाता है?
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