2019 तक गहलोत और पायलट की लड़ाई कांग्रेस का भट्ठा न बैठा दे
राहुल गांधी ने राजस्थान का झगड़ा फौरी तौर पर भले ही सुलझा दिया हो, हकीकत ये है कि मामला और उलझ गया है. कांग्रेस नेतृत्व ने समस्या का ऐसा हल ढूंढा है जो 2019 में पार्टी को पांच साल पीछे धकेल सकता है.
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राजस्थान में फैसले की घड़ी बहुतों के लिए तनावपूर्ण रही. कुछ नारे लगाते रहे तो कुछ ने हदें भी लांघ डालीं - ऐन वक्त पर एक ऐसी तस्वीर सामने आयी जिससे सस्पेंस कुछ देर और बना रहा. ये तस्वीर किसी और ने नहीं बल्कि खुद राहुल गांधी ने ट्वीट किया था.
The united colours of Rajasthan! pic.twitter.com/D1mjKaaBsa
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 14, 2018
यूनाइटेड कलर ऑफ बेनेटन की तर्ज पर राहुल गांधी ने लिखा है - यूनाइटेड कलर ऑफ राजस्थान. बाकी सब तो ठीक है, सहज तौर पर सिर्फ एक सवाल उभर रहा है कि ये मुस्कान सहज क्यों नहीं लग रही. ये मुस्कान सिर्फ फोटो मुस्कान क्यों लग रही है? सबसे बड़ी बात इनमें वास्तव में मन से कौन मुस्कुरा रहा है?
गहलोत ने तो पूरी रॉयल्टी ही वसूल डाली
राजस्थान उपचुनावों में जब कांग्रेस को दो लोक सभा और एक विधानसभा सीट पर जीत मिली तो सचिन पायलट की वाहवाही होने लगी. सचिन ने कांग्रेस की झोली में अलवर के साथ अजमेर सीट भी डाल दी जिस पर 2014 में खुद उन्हें हार का मुहं देखना पड़ा था.
ये जज्बा कब तक कायम रहेगा...
विधानसभा चुनावों से पहले सचिन पायलट ही राजस्थान में सर्वेसर्वा नजर आते रहे. जब चुनाव प्रचार जोर पकड़ा तो राजस्थान कांग्रेस के कुछ नेताओं ने राष्ट्रीय नेतृत्व को फीडबैक दिया कि अशोक गहलोत का सीन से नदारद रहना कांग्रेस के लिए घाटे का सौदा हो सकता है. राजस्थान कांग्रेस के कुछ सीनियर नेताओं का कहना रहा कि अगर अशोक गहलोत को मैदान में खुल कर नहीं उतारा गया तो वसुंधरा राजे के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का जो फायदा मिल सकता है, वो हाथ से फिसल सकता है. इसके बाद ही दिल्ली में फैसला हुआ कि सचिन पायलट और अशोक गहलोत दोनों ही नेता विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे ताकि लोगों में संदेश जा सके.
बावजूद इस व्यवस्था के कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा नहीं घोषित किया. जैसे ही अशोक गहलोत को थोड़ी ढील मिली सवालों के गोलमोल जवाब के जरिये वो खुद को ही मुख्यमंत्री पद का चेहरा बताने लगे. ये तो साफतौर पर कभी नहीं कहा कि वो ही सीएम कैंडिडेट हैं, लेकिन हाव भाव और लहजा उसी ओर इशारा कर रहा था.
2013 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद से अशोक गहलोत जैसे तैसे वक्त बिताते रहे, जबकि सचिन पायलट बीजेपी से लगातार मोर्चा लेते रहे. 2014 की मोदी लहर में अपनी सीट नहीं बचा पाने के बावजूद सचिन पायलट राजस्थान में पूरे वक्त डटे रहे और वसुंधरा सरकार की नाक में दम किये रहे.
दूसरी तरफ अशोक गहलोत दिल्ली में फिट होने की जुगत में लगे रहे. जब कमान सोनिया से राहुल गांधी के हाथ शिफ्ट हो रही थी तो राहुल गांधी के साथ लग गये. गुजरात चुनाव ने तो जैसे अशोक गहलोत की किस्मत का पिटारा ही खोल दिया.
सोनिया गांधी का विश्वास पाकर गुजरात चुनाव में गहलोत राहुल गांधी के इर्द-गिर्द परछाईं की तरह डटे रहे. तब की तस्वीरें गूगल करने पर हर मौके पर राहुल गांधी के करीब अशोक गहलोत और अहमद पटेल ही नजर आते हैं - क्योंकि सैम पित्रोदा तो अंतर्राष्ट्रीय मामले देख रहे थे और उनकी ड्यूटी परदे के पीछे लगी हुई थी.
क्या 2019 में भी ये साथ बना रहेगा?
गुजरात चुनावों के बाद ही सचिन पायलट को राजस्थान की कमान मिली और अशोक गहलोत को कांग्रेस में सबसे ताकतवर संगठन महासचिव का पद. तब ये चर्चा भी खास रही कि जनार्दन द्विवेदी के ही हस्ताक्षर से उनकी विदाई कर दी गयी. अशोक गहलोत से पहले बरसों से वो जिम्मेदारी जनार्दन द्विवेदी के पास ही हुआ करती थी.
ये तो नहीं मालूम कि अशोक गहलोत कांग्रेस की जीत के प्रति कितने आश्वस्त थे, लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद कुर्सी के लिए वो सीधे फैल गये. ऐसा लगता है जैसे अशोक गहलोत ने अपनी ब्रांड वैल्यू की रायल्टी में राजस्थान के सीएम की कुर्सी ही ले ली है.
सचिन पायलट का संघर्ष चालू है
चुनावों में राजस्थान की जो लड़ाई कांग्रेस बनाम बीजेपी रही, नतीजे आने के बाद वो कांग्रेस बनाम कांग्रेस का रूप ले ली. लग तो ऐसा रहा था कि वसुंधरा से भी मुश्किल लड़ाई सचिन पायलट को अशोक गहलोत के खिलाफ लड़नी पड़ी. अगर सचिन ने अपनी लड़ाई नहीं लड़ी होती तो उन्हें डिप्टी सीएम की कुर्सी से भी हाथ धोना पड़ा होता. फिर तो सचिन पायलट भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह दिल्ली में राफेल डील पर राहुल गांधी के बचाव में टीवी पर साउंडबाइट दे रहे होते.
गहलोत ने चुनावों में राहुल गांधी के लिए जितना काम नहीं किया उससे कहीं ज्यादा इनाम में ले लिया है. वरना, सचिन पायलट ने गहलोत पर जितने गंभीर आरोप लगाये थे उसकी जांच में दोषी पाये जाने पर पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में उन्हें छह साल के लिए बाहर का रास्ता तक दिखाया जा सकता था.
ये बात तो जगजाहिर रही कि टिकट बंटवारे में पूरी तरह अशोक गहलोत की ही चली. सचिन की बातों को अहमियत मिली लेकिन गहलोत को जहां भी मौका मिला टांग अड़ाने से नहीं चूके. सचिन के खिलाफ एक ही चीज गयी वो रही उनके समर्थकों का उत्पात. सचिन पायलट की साफ और गंभीर छवि पर समर्थकों का बवाल कुछ देर के लिए धब्बे के तौर पर नजर आने लगा.
सचिन का आरोप है कि अगर अशोक गहलोत ने अगर खेल नहीं किया होता तो कांग्रेस को बहुमत का आंकड़ा छूने के लिए तरसना नहीं पड़ता, बल्कि बहुमत से बहुत ज्यादा सीटें मिली होतीं. सचिन का आरोप है कि बड़ा बहुमत रोकने के लिए गहलोत और उनके आदमियों ने बागियों का साथ दिया. ऐसा होने से कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशियों को काफी मुश्किलें फेस करनी पड़ी. सचिन का मानना है कि गहलोत ने ये सब इसलिए किया ताकि सचिन पूरी क्रेडिट ही न लूट लें.
ऐसा क्यों लगता है कि राहुल गांधी ने राजस्थान का झगड़ा सुलझाने के चक्कर में और ज्यादा उलझा दिया है.
दरअसल, राहुल गांधी ने दोनों नेताओं को एक-एक कुर्सी इसलिए दी है क्योंकि अब लड़ाई 2019 की लड़नी है. अब तक तो जैसे भी राहुल गांधी ने कभी बाइक पर बैठाकर तो कभी साथ में तस्वीर दिखा कर गाड़ी निकाल ली - लेकिन आगे का रास्ता कुछ ज्यादा ही ऊबड़-खाबड़ नजर आ रहा है.
2019 को लेकर भी सचिन पायलट ने एक तरीके से इरादे साफ कर ही दिये हैं. सचिन पायलट ने गहलोत का ट्रैक रिकॉर्ड पेश करते हुए पुराना बही खाता सामने रख दिया है. मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी को लेकर ही सचिन पायलट ने याद दिलाने की कोशिश की कि 1998 में मुख्यमंत्री बनने के बाद 2003 के आम चुनाव में अशोक गहलोत कांग्रेस को सीटें क्यों नहीं दिला पाये? 2008 में भी मुख्यमंत्री बनने के बाद 2013 तक कांग्रेस की राजस्थान में ये हालत हो गयी कि साल भर बाद 2014 में पार्टी साफ हो गयी.
सचिन की बातों में दम तो है. सचिन पायलट ये बातें तब कह रहे हैं जब कांग्रेस उपचुनावों में हार का बदला लेने के साथ ही विधानसभा चुनाव जीत कर सरकार बनाने जा रही है.
बेशक राहुल गांधी ने एक दूसरे से आमने सामने भिड़े दो करीबी नेताओं को अलग अलग कुर्सी देकर बिठा दिया है - लेकिन इसके दुष्परिणाम बहुत ही गंभीर हो सकते हैं. 2019 तक दोनों में रार इस कदर ने बढ़ जाये कि राजस्थान में फिर से कांग्रेस का भट्ठा बैठ जाये.
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