राहुल गांधी के देखते-देखते MP-राजस्थान भी हो जाएंगे कांग्रेस-मुक्त
एक तरफ बीजेपी शिकार की ताक में नजर टिकाये हुए है, कांग्रेस का अंदरूनी झगड़ा खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. लगता नहीं कि राहुल गांधी MP-राजस्थान को कर्नाटक और गोवा होने से बचा पाएंगे.
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कर्नाटक और गोवा की हालत देख, कांग्रेस मध्य प्रदेश और राजस्थान में हाई अलर्ट पर है, ऐसा मालूम है. वैसे ये कौन सी कांग्रेस है जो अलर्ट पर है? कांग्रेस की वो कोर टीम अलर्ट पर है - जो अब तक नये अध्यक्ष के चुनाव के लिए जरूरी मीटिंग तक नहीं बुला पायी है. या फिर राहुल गांधी, जिनका बाकी बातों से ज्यादा जोर इस पर है कि वो अब कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं हैं - और न ही नये अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया में उनका कोई रोल है.
आखिर राहुल गांधी कर्नाटक और गोवा की परवाह करें या मानहानि के मामलों में अदालतों में पेश होकर जमानत लें. हफ्ते भर में राहुल गांधी तीन अदालतों में हाजिर होकर जमानत ले चुके हैं. इसके लिए इसी अवधि में राहुल गांधी को मुंबई से पटना और अहमदाबाद तक दौड़ते रहना पड़ा है.
वैसे तो ऑपरेशन लोटस का एपिसेंटर कर्नाटक रहा है, लेकिन गोवा में उससे भी तेज असर दिखा चुका है. यही वजह है कि अब मध्य प्रदेश और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों को लेकर खतरे की आशंका जतायी जा रही है. अभी तक कांग्रेस नेतृत्व की ओर से सरकार बचाने को लेकर कोई ठोस पहल तो देखने को नहीं ही मिली है.
नाजुक दौर से गुजर रहे हैं MP-राजस्थान
कांग्रेस में रस्म और रिवाज पूरी तरह निभाये जाते रहे हैं. जितनी रस्में राहुल गांधी ने खुद की ताजपोशी में निभायीं, नये अध्यक्ष के चुनाव में भी उतना ही चाहते हैं. मुसीबत ये है कि रस्में निभाने के लिए कांग्रेस में कोई यजमान बनने को तैयार ही नहीं हो रहा. अगर किसी के मन में कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने का ख्याल आता भी है तो कुछ बातें सोच कर खामोश रह जाता है. कांग्रेस नेताओं को पता है कि बरसों से जमे हुए दरबारी कुर्सी पर बैठ जाने के बाद भी उसकी तो सुनने से रहे और उसे गांधी परिवार का कठपुतली बन कर ही रहना होगा. फिर क्या फायदा.
कर्नाटक और गोवा के लोकतांत्रिक मूल्यों का मामला संसद में भी गूंजा था. सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने संसद परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास विरोध प्रदर्शन और धरना भी दिया था. कुल मिलाकर ये सब पुरानी रस्में निभाने से कुछ ज्यादा किसी को समझ में आया भी नहीं.
कर्नाटक के छह महीने के भीतर ही मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हुए थे. कर्नाटक में कांग्रेस की सत्ता थी और बीजेपी चुनाव लड़कर हासिल करना चाहती थी. जब मुमकिन नहीं हो पाया तो बीएस येदियुरप्पा ने ताकत के जरिये सत्ता पर कब्जे की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दखल से सारे मंसूबों पर पानी फिर गया.
गुजबाजी के माममें में MP और राजस्थान कांग्रेस का हाल एक जैसा ही है
जब मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनावों के नतीजे आये तो पता चला हार जीत का अंतर मामूली ही रहा. अगर वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान चाहते तो कर्नाटक दोहराने का उनके पास पूरा मौका था. फिर भी ऐसा कुछ नहीं हुआ. या तो वसुंधरा और शिवराज खुद को उतने दुस्साहसी नहीं पाये होंगे जितने कि येदियुरप्पा रहे - या फिर कर्नाटक में हुई चौतरफा फजीहत के चलते दिल्ली से हरी झंडी नहीं मिली होगी.
होने को तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में अब भी वैसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है जैसा कर्नाटक में हो रहा है और गोवा में हो चुका. कांग्रेस को लेकर खतरे की आशंका इस बात से ज्यादा है क्योंकि अंदरूनी गुटबाजी के चलते कांग्रेस की डांवाडोल स्थिति कर्नाटक-गोवा के मुकाबले MP-राजस्थान में भी जरा भी कम नहीं है.
मध्य प्रदेश और राजस्थान दोनों ही राज्यों में कांग्रेस सरकारों के पास जो बहुमत है वो किनारे पर ही है. थोड़ा सा इधर से उधर हुआ नहीं कि बहुमत कब अल्पमत में बदल जाये समझना मुश्किल नहीं है.
कांग्रेस के पास कोई काउंटर मेकैनिज्म है भी तो नहीं
बहुमत पर खतरे की तलवार तो लटक ही रही है, उससे कम खतरनाक दोनों ही राज्यों में दो बड़े नेताओं का झगड़ा है. मध्य प्रदेश से राहुल गांधी ने भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को यूपी लाकर झगड़ा खत्म करने की कोशिश की लेकिन हालत में जरा भी सुधार नहीं हुआ है. राजस्थान का हाल तो और भी बुरा है, बजट सत्र के दौरान अशोक गहलोत और सचिन पायलट की बयानबाजी ने साफ कर दिया कि अंदर कुछ भी ठीक से नहीं चल रहा है.
200 सदस्यों वाली राजस्थान विधानसभा में कांग्रेस के 100 विधायक हैं जबकि बीजेपी के पास 73. कांग्रेस की सरकार सपोर्ट सिस्टम से चल रही है. मध्य प्रदेश में भी आलम वही है, 2018 में, 230 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 114 तो बीजेपी को 109 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. कांग्रेस ने यहां भी बहुमत का आंकड़ा 116 हासिल करने के लिए बाहरी सपोर्ट सिस्टम की सहायता ली है.
ये सपोर्ट सिस्टम कितना मजबूत है कहने की जरूरत नहीं है. मध्य प्रदेश से मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए राहत की बात निर्दलीय कोटे से मंत्री बने प्रदीप जायसवाल वो बयान जरूर है - 'मध्य प्रदेश की स्थिति कर्नाटक और गोवा जैसी नहीं है और इसलिए यहां पर कमलनाथ सरकार पर कोई संकट नहीं है.' ये बात प्रदीप जायसवाल ने एक डिनर में कही जिसमें कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित सूबे के तमाम विधायक शामिल हुए.
कर्नाटक और गोवा कांड के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने एकजुटता दिखाने के लिए मंत्रियों और विधायकों को दावत दी गयी. आयोजन के होस्ट रहे कमलनाथ सरकार में मंत्री तुलसी सिलावट. वैसे तुलसी सिलावट को ज्योतिरादित्य सिंधिया का करीबी माना जाता है. न्योता पाकर समर्थन देने वाले बीएसपी, समाजवादी पार्टी और निर्दलीय विधायक भी आये लेकिन न तो दिग्विजय सिंह पहुंचे न ही अजय सिंह. मालूम हुआ दोनों मध्य प्रदेश से बाहर होने के चलते नहीं पहुंच पाये.
मुख्यमंत्री कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की बंद कमरे में एक मीटिंग भी हुई जो करीब आधे घंटे तक चली. सिंधिया विधानसभा भी पहुंचे और अपने गुट के मंत्रियों से मुलाकात की - कमलनाथ के मंत्री गोविंद सिंह राजपूत, प्रद्युम्न सिंह तोमर, महेंद्र सिंह सिसोदिया, तुलसी सिलावट, प्रभुराम चौधरी और इमरती देवी को सिंधिया के साथ काफी देर तक देखा गया.
राजस्थान विधानसभा में बजट पेश होने के बाद अशोक गहलोत ने सीधे सीधे कह डाला कि विधानसभा चुनाव में वोट तो उन्हीं के नाम पर मिले थे. अशोक गहलोत समझाना चाह रहे थे कि लोगों ने उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस को वोट दिया था. अशोक गहलोत ने कहा कि यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया है और जो लोग दौड़ में नहीं थे वे भी कुर्सी के लिए अपना नाम आगे बढ़ा रहे हैं.
अशोक गहलोत के मुंह से इतना सुनने के बाद सचिन पायलट कहां चुप रहते. सचिन पायलट ने भी साफ कर दिया कि लोगों वोट अशोक गहलोत के नाम पर वोट नहीं दिया, बोले - राजस्थान के लोगों ने राहुल गांधी के नाम पर वोट दिया था.
ये तो हाल है दोनों राज्यों में बड़े नेताओं के दो-हाथ पर आमादा रहने का. राहुल गांधी चुनावों में कभी बाइक पर बिठा कर तो कभी साथ खड़ा कर तस्वीरों के जरिये लोगों को सब साथ-साथ हैं समझाने में तो कामयाब रहे - लेकिन ये रोज रोज का झगड़ा खत्म करना मुश्किल क्या नामुमकिन हो चला है. पहले तो मुख्यमंत्री का नाम ही तय करना मुश्किल हो रहा था, अब कांग्रेस नेतृत्व क्या करेगा जब सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया कुर्सी छीनने पर तुले हुए हैं.
जब कांग्रेस का आपस में ही ये हाल है तो बीजेपी को ऑपरेशन लोटस चलाने में क्या मुश्किल आनी है. सब कुछ आसानी से ही हो सकता है. जब सचिन पायलट और सिंधिया को लगेगा कि कुर्सी तो उन्हें मिलने से रही तो वे खामोश होकर बैठ जाएंगे और कोई तीसरा खेल कर देगा. ऐसा ही अशोक गहलोत और कमलनाथ भी सोच ही रहे होंगे - फिर तो कांग्रेस का हाल वैसा ही होगा जैसा कर्नाटक और गोवा में हो रहा है.
सबसे बड़ी मुश्किल तो ये है कि न तो राहुल गांधी के पास न ही कांग्रेस को फिलहाल चला रही कोर कमेटी के पास ऐसा कोई मेकैनिज्म है जो पार्टी को गृह युद्ध से बचा सके - और जब आपस में ऐसे ही लड़ते रहेंगे तो किसी को ऑपरेशन लोटस भी चलाने की जरूरत कहां पड़ेगी. गोवा कांड तो कभी भी हो सकता है. अब तो वैसे भी बीजेपी दो-तिहाई से कम आने पर एंट्री भी नहीं देती. टीडीपी के राज्य सभा सांसदों और गोवा में कांग्रेस विधायकों के मामले में तो यही देखने को मिला है.
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