वोटों की मंडी में 72 हजार रुपए का दांव
सबसे बड़ा सवाल बिना शर्त, बगैर काम कराए किसी व्यक्ति या परिवार को साल में 72 हजार रु. क्यों दिए जाएं. दरअसल ये चुनावी राजनीति है. जमीनी स्तर पर ऐसा करना लगभग असंभव है.
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नेता अपनी नाकामियां छिपाने के लिए खैरात का एलान करते हैं और इससे लोकतंत्र के साथ कर्मशीलता का भी क्षरण होता है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 72 हजार रु. सालाना पांच करोड़ परिवारों को देने का चुनावी वादा किया है. गणना की गई तो पता चला इस पर 3 लाख साठ हजार करोड़ रु. का खर्च आएगा. ये रकम भारत सरकार के स्वास्थ्य बजट और भारत के रक्षा बजट से ज्यादा है.
भारत में पहली बार यूनिवर्सल बेसिक इनकम के विचार ने औपचारिक रूप 2016-17 के आर्थिक सर्वे में ग्रहण किया था. इसमें सरकारी सब्सिडी के पुनर्वितरण की इस बदलावकारी धारणा का जिक्र किया गया है. सब्सिडी की अलग-अलग करीब 950 योजनाएं चलाने पर केंद्र सरकार करीब जीडीपी का पांच फीसदी या 32 हजार करोड़ डॉलर (22,40,000 करोड़ रुपए) खर्च करती है और इनका लाभ आबादी के अलग-अलग समूहों के लोगों को हो रहा है. सचमुच मिलता है या नहीं ये कहा नहीं जा सकता क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मुताबिक रुपए में 15 पैसे ही लाभार्थी तक पहुंच पाते थे. कांग्रेस की न्याय योजना का लाभ कब और किसे मिलेगा ये चुनावी नतीजों और इसके बारीक ब्योरों के सामने आने बाकी हैं. कांग्रेस के मुताबिक ये दुनिया की सबसे अनोखी योजना है. राहुल गांधी ने इस योजना को धमाके की संज्ञा दी जो कि लोकसभा चुनाव के मौके के हिसाब से व्याख्या है.
राहुल गांधी ने 72 हजार रु. सालाना पांच करोड़ परिवारों को देने का चुनावी वादा किया है
अब तथ्यों पर आते हैं. पहली बात तो ये दुनिया की सबसे अनोखी योजना नहीं है. अलास्का में 65 अरब डॉलर के एक अलास्का परमानेंट फंड से वहां के सभी नागरिकों को 2000 डॉलर (करीब डेढ़ लाख रुपए) सालाना दिए जाते हैं जिसे अब घटाकर परिवार के चार लोगों के परिवार के लिए चार से आठ हजार डॉलर कर दिया गया है. अलास्का में गैस और तेल के विशाल भंडार हैं और इन कंपनियों से टैक्स के बजाय इनके लाभांश से एक तय रकम लेकर इस फंड में डाली जाती है. फंड का पैसा निवेश किया जाता है और उससे हासिल रकम (यील्ड) को लोगों में बांटा जाता है. ये रकम हर साल अलग-अलग होती है. लेकिन वो अलास्का है और वहां कमाई तेल-गैस से हो रही है और आबादी है करीब 7.40 लाख. भारत में अकेले भिखारियों की संख्या चार लाख से ज्यादा है.
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की 2018 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 57 फीसदी रेगुलर कर्मचारी 10 हजार रु. या इससे भी कम कमाते हैं. कैजुअल वर्कफोर्स की बात करें तो देश में 59 फीसदी ऐसे कर्मचारियों की सेलरी पांच हजार रु. या इससे भी नीचे है. देश में कुल वर्कफोर्स में से 1.6 फीसदी कर्मचारी ही 50 हजार या इससे अधिक कमाते हैं. सातवें वेतन आयोग के तहत सरकारी मुलाजिम को मिलने वाली सबसे कम तनख्वाह भी 18 हजार रु. है और यही वजह है कि लोग सरकारी नौकरी के पीछे भागते हैं.
यूनिवर्सल बेसिक इनकम फिनलैंड समेत यूरोप के कुछ देशों में और अमेरिका में उन बेरोजगार लोगों के लिए शुरू हुई जो ऑटोमेशन के चलते नौकरी गंवा बैठे थे. हमारे देश में नौकरी गंवाने वाले गरीब लोगों (ईएसआई कार्ड धारक) के लिए राजीव गांधी के नाम पर जो योजना है उसमें इतने तिकड़म हैं कि उसके तहत भत्ता हासिल करना मुश्किल है. इसमें एक शर्त ये भी है कि कंपनी बंद हो गई हो. हमारे देश में भी ऑटोमेशन तेजी से आ रहा है और इसके तहत बेरोजगार हुए लोगों को कोई संरक्षण सरकार से प्राप्त नहीं है. हमारी समस्या लोगों को पहली बार रोजगार देने की है. हमारे देश में गरीबों का पहला रोजगार ही दो कौड़ी का होता है. इसकी वजह अशिक्षा और कौशल का अभाव है. कौशल का अभाव ग्रेजुएट तक दिखता है. हुनर के बगैर कमाई का लंबा रास्ता तय नहीं हो सकता.
मनरेगा में वर्षों पैसा खर्च किया गया और लोगों ने काम भी किया लेकिन उस काम से कौन-सी एसेट तैयार हो गई किसी को नहीं मालूम. अब बगैर काम के लोगों को मोटी रकम दे दी जाए तो वो जो कुछ थोड़ा-मोड़ा कर रह रहे हैं वो भी छोड़ देंगे. घरों में काम करने वाले जो औसतन हजार-डेढ़ हजार रुपए में घरों में पोंछा लगाने और बर्तन साफ करते हैं, उन्हें इतनी रकम मिलेगी तो वो घरों का काम तो करेंगे लेकिन दोगुने और चार गुने मेहनताने पर. यानी खैरात बंटी तो सेवाएं बेतहाशा महंगी होने की पूरी आशंका है.
सबसे बड़ा सवाल बिना शर्त, बगैर काम कराए किसी व्यक्ति या परिवार को साल में 72 हजार रु. क्यों दिए जाएं. दरअसल ये चुनावी राजनीति है. जमीनी स्तर पर ऐसा करना लगभग असंभव है उस देश में जहां आजादी के कुछ सालों बाद ही शुरू हुई पीडीएस स्कीम के तहत मोटा अनाज भी सभी लाभार्थियों तक नहीं पहुंच पाता है. बीच में सरकारी तंत्र गायब कर देता है. इस देश को योजनाओं और नई योजनाओं के आविष्कारकों की नहीं, ईमानदारी से योजना लागू कराने वाले तंत्र की जरूरत ज्यादा है. नेता खुद टोपी पहनता है और जनता को उससे बड़ी टोपी पहनाकर चला जाता है. ये मतदान का समय है- वोट बहुत कीमती है इसीलिए इसकी ऊंची बोली लग रही है.
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