राहुल गांधी की कुर्बानी के बाद अब बारी कांग्रेस की कुर्बानी की है!
जिन नेताओं की हरकतों से आजिज आकर राहुल गांधी ने इस्तीफे का फैसला किया उन पर अब भी कोई फर्क नहीं पड़ा है. वे न तो सुधरने के लिए तैयार लगते हैं न किसी नये अध्यक्ष को नेता मानने के लिए - कहीं ऐसा न हो ये मिशन अधूरा ही रह जाये?
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राहुल गांधी के इस्तीफे वाले ड्राफ्ट में 'सत्ता के मोह' और 'त्याग' का जिक्र जोर देकर किया गया है. राहुल गांधी का कहना है कि चूंकि ताकतवर लोगों को सत्ता से चिपके रहने की आदत सी पड़ चुकी है, इसलिए वे सत्ता का त्याग नहीं कर पाते. राहुल गांधी ने कांग्रेसियों को सबक सिखाने की तमाम कोशिशें की और फेल रहे. इस्तीफा देते देते भी राहुल गांधी सीनियर कांग्रेस नेताओं को यही समझाना चाहते हैं.
राहुल गांधी ने इसीलिए तो कहा है - 'सत्ता का मोह छोड़े बिना विरोधियों को शिकस्त देना मुश्किल है.'
बड़ी मुश्किल तो यही है कि राहुल गांधी की बातें समझने को कांग्रेस में कोई भी नेता तैयार नजर नहीं आ रहा है. दिग्विजय सिंह जैसे सीनियर नेताओं के ट्वीट तो यही बता रहे हैं कि नया अध्यक्ष कुर्सी पर भले ही बैठ जाये कांग्रेस के लिए कुछ कर पाएगा भी - बहुत संदेह है.
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद कांग्रेस में जो प्रतिक्रिया हो रही है, उससे तो लगता नहीं कि राहुल गांधी का मिशन पूरा हो पाएगा. वैसे भी जिन नेताओं के कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने की चर्चा चल रही है, लगता तो यही है कि उनकी वजह से कोई विशेष बदलाव तो दूर हालात बदतर ही होने वाले हैं.
नेता तो राहुल गांधी ही रहेंगे
राहुल गांधी ने अपने इस्तीफे से कांग्रेस के सीनियर नेताओं को समझाने की कोशिश की है कि बीजेपी से लड़ने के लिए कुर्सी से चिपके रहना नहीं, बल्कि त्याग, तपस्या और सड़क पर लड़ाई लड़ने की जरूरत है.
कहने की जरूरत नहीं कि राहुल गांधी शुरू से ही कुछ मुश्किल चुनौतियों से जूझते रहे हैं. राहुल गांधी की एक चुनौती ये भी रही कि मठाधीश बने सीनियर नेता उनके फैसलों को तरीके से लागू होने में भी बाधा बन कर खड़े हो जाते रहे. चाह कर भी राहुल गांधी वो सब बिलकुल नहीं कर पा रहे थे जो जरूरी समझते थे. 10 साल पहले भी राहुल गांधी कहा करते थे कि मैं सिस्टम बदलना चाहता हूं - राहुल गांधी तो पूरे सिस्टम को बदलने की बात करते रहे, अफसोस की बात ये रही कि कांग्रेस में भी वो अपना सिस्टम नहीं बना पाये.
ये सब इसलिए होता रहा क्योंकि उनकी उदारता का फायदा उठाते हुए उनकी मर्जी के विरुद्ध सीनियर कांग्रेस नेता बेटों को टिकट भी दिला लेते हैं और अपनी अपनी कुर्सियों पर भी बने रहते हैं. ये नेता चालाकी से चापलूसी की चाशनी मिलाकर अपना काम तो करा लेते हैं - लेकिन राहुल गांधी क्या और कैसे करना चाहते हैं किसी को परवाह नहीं रहती. राहुल गांधी को निश्तित तौर पर लगा होगा कि ये तो हटाने से भी नहीं हटने वाले और हटा भी दिया जाये और भी ज्यादा डैमेज करेंगे - शायद इसीलिए राहुल गांधी ने इस्तीफे का फैसला किया और उस पर कायम रहे.
अभी मजा आ रहा है. ठीक है - लेकिन कब तक ऐसे चलेगा?
वैसे राहुल गांधी को इस्तीफा न देने के लिए मनाने वालों में आगे मनमोहन सिंह और अपना आंसू रोक पाने में असफल पी. चिदंबरम भी रहे - लेकिन सबसे आगे अशोक गहलोत ही नजर आये. राहुल गांधी के इस्तीफे पर अपने विचार तो कई नेताओं ने रखे हैं, लेकिन अशोक गहलोत जैसे कम ही हैं जो 7-7 ट्वीट कर महफिल लूटने की कोशिश कर रहे हैं. नये कांग्रेस अध्यक्ष की रेस में पिछड़ चुके अशोक गहलोत वही बातें कर रहे हैं जो 19 जून को राहुल गांधी को हैपी बर्थडे बोलते हुए दोहराया था.
Once again I am hopeful that Rahul ji will soon return to lead us with same zeal and spirit...We will bounce back and Congress Party would continue to defeat the fascist forces under Rahul ji’s dynamic leadership.7/
— Ashok Gehlot (@ashokgehlot51) July 3, 2019
कुछ नेताओं के ट्वीट देख कर तो ऐसा लगता है, राहुल गांधी ने इस्तीफा देकर कांग्रेस मुश्किलें और भी बढ़ा दी है. दिग्विजय सिंह और अजय माकन तो साफ साफ कह रहे हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर जो भी बैठे, नेता तो सिर्फ और सिर्फ एक ही रहेगा - राहुल गांधी!
We respect your sentiments Rahul ji whether you are President or not you are my Leader and I am with you in your Ideological fight against the RSS/BJP. Idea of India is Love Compassion Truth and Non Violence and you take the Lead to fight these Divisive Forces of Hate& Violence. https://t.co/85yD23kX4H
— digvijaya singh (@digvijaya_28) July 4, 2019
We are proud to have @RahulGandhi ji as our leader!
Congress President or not, he would always be the voice of millions of congress workers and those who believe in its ideology!
Rahul ji has taken a right decision-and we support him.
— Ajay Maken (@ajaymaken) July 3, 2019
ये तो नहीं मालूम कि कांग्रेस में कितने नेता ऐसी सोच रखते हैं, लेकिन जितने भी हैं वे अपनी धारणा बना चुके हैं - अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई भी बैठे नेता तो राहुल गांधी ही रहेंगे. अगर वास्तव में ऐसा ही हुआ तो एक नेता की जबान चलेगी और दूसरे की कलम. जबान की बात तो कलम भी मानेगी और बाकी नेता भी, लेकिन कलम की क्या हैसियत रह जाएगी? फिर पूरी कवायद का मतलब क्या रह जाएगा?
गांधी-मुक्त कांग्रेस या कांग्रेस-मुक्त भारत?
2014 के आम चुनाव के वक्त नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह और अमित शाह जैसे नेताओं ने 'कांग्रेस मुक्त भारत' की नींव रखी. तब से लगातार निर्माण कार्य चलता रहा और 2019 में मिशन पूरा होने के करीब पहुंच गया. पांच साल बाद 'गांधी मुक्त कांग्रेस' की शुरुआत राहुल गांधी ने की है. राहुल गांधी का इस्तीफा इसी मुहिम का हिस्सा है.
राहुल गांधी जबरदस्त कमिटमेंट का प्रदर्शन न कर रहे हैं. ये तो पहले ही कह दिया था कि नये अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया से वो खुद दूर रहेंगे - अब मालूम हुआ है कि सिर्फ राहुल गांधी ही नहीं बल्कि पूरा गांधी परिवार दूनी बनाने जा रहा है. प्रियंगा गांधी वाड्रा पहले से ही देश से बाहर हैं - और अब सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी भी अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं.
कहने को तो राहुल गांधी कांग्रेस को गांधी परिवार के साये से भी बचाने की कोशिश कर रहे हैं - लेकिन हकीकत में तो ऐसा कुछ भी नहीं लगता. अशोक गहलोत के बाद अब गांधी परिवार के वफादार माने जाने वाले सुशील कुमार शिंदे और मल्लिकार्जुन खड्गे के नाम आगे चलने लगे हैं. ये दोनों ही कांग्रेस के दलित चेहरे हैं और 2019 में लोक सभा का चुनाव दोनों ही हार चुके हैं.
अब अगर ये ही नेता कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने जा रहे हैं तो गांधी परिवार की दूरी और नजदीकी भला क्या मायने रखती है? जब सीनियर कांग्रेस नेता राहुल गांधी को भी नेता मान रहे हों और कुर्सी पर ऐसे ही नेता बैठने वाले हों तो आखिर किस बदलाव की उम्मीद की जानी चाहिये?
क्या राहुल गांधी को लगता है कि मोदी-शाह और दूसरे बीजेपी नेता ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष को कोई तवज्जो देंगे. मल्लिकार्जुन खड्गे सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता के तौर पर सरकार द्वारा नियुक्तियों में रस्मअदायगी के लिए बुलाये जाते रहे - कई बार तो वो नाराज होकर न्योता भी ठुकरा दिया करते रहे.
जो नेता अपनी संसदीय सीट से चुनाव हार जाये उससे कांग्रेस को खड़ा करने की कितनी उम्मीद की जा सकती है? ऐसे कांग्रेस अध्यक्षों से तो राहुल गांधी लाख गुना बेहतर हैं.
संसद और कांग्रेस दफ्तर के कामकाज की बात और है, लेकिन फील्ड में जाकर ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी को क्या दिला पाएंगे? सुनने न सही कम से कम राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा को देखने सुनने वालों की भीड़ तो जमा होती है.
कहने को तो राहुल गांधी ने ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और RSS के काउंटर में किया है, लेकिन फैसला ऐसे वक्त में लिया जो कांग्रेस के लिए काफी जोखिम भरा है. निश्चित तौर पर राहुल गांधी ने जो कदम उठाया है वो उनकी मजबूरी रही, लेकिन अभी तक उसका कोई फायदा नजर नहीं आता. ऐसा लग रहा है जैसे राहुल गांधी के इस फैसले का भी खामियाजा कांग्रेस को भुगतना ही पड़ेगा.
लगता तो ऐसा ही है कि सत्ताधारी बीजेपी के कांग्रेस मुक्त अभियान के काउंटर की जगह गांधी मुक्त कांग्रेस मुहिम मददगार ही साबित होने जा रही है.
पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या में RSS का नाम लेने के कारण मानहानि के केस में अदालत से अग्रिम जमानत पाने के बाद मुंबई में राहुल गांधी ने मीडिया से बातचीत में कहा, 'मैंने अपनी बात कोर्ट में कह दी है. विचारधारा की लड़ाई है. मैं गरीबों, किसानों और मजदूरों के साथ खड़ा हूं. आक्रमण हो रहा है और मजा आ रहा है.’
मजा आ रहा है बहुत अच्छी बात है. अब इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि जो आप कर रहे हों उसमें आपको मजा भी आ रहा हो - लेकिन कई बार ऐसा मजा लेने के चक्कर में लेने के देने भी पड़ जाते हैं. क्या राहुल गांधी वैसी स्थिति की कल्पना कर पा रहे हैं?
प्रियंका गांधी वाड्रा कभी भी राहुल गांधी के इस्तीफे के पक्ष में नहीं रहीं क्योंकि उनका मानना है कि ऐसा करने से बीजेपी को बल मिलेगा. फिर भी राहुल गांधी के फैसले को प्रियंका वाड्रा ने साहसपूर्ण बताया है.
Few have the courage that you do @rahulgandhi. Deepest respect for your decision. https://t.co/dh5JMSB63P
— Priyanka Gandhi Vadra (@priyankagandhi) July 4, 2019
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