हिंदुत्व का अखाड़ा बने राजस्थान में कम्बल ओढ़कर घी पी रही कांग्रेस-बीजेपी
दो दिनों से धूँ-धूँ कर जल रहे टोंक के मुद्दे पर कांग्रेस के नेताओं के मुंह पर ताला क्यों लगा हुआ है. यह जरुरी नहीं है कि हर मुद्दे पर कांग्रेस अपनी राय रखे, लेकिन लोकतंत्र का यह तकाजा है कि एक सशक्त विपक्ष मिले जो किसी भी मुद्दे पर किसी भी परेशान व्यक्ति की आवाज बने.
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मशहूर कहावत है कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बंसी बजा रहा था. राजस्थान में भी कमोबेश ऐसी हीं तस्वीर दिखाई दी. जब टोंक जल रहा था कांग्रेस और बीजेपी के राजस्थान के मुखिया मंदिरों में भजन कर रहे थे. 23 अगस्त को राजस्थान का टोंक जिला सांप्रदायिक उन्माद में जल रहा था. दिलचस्प बात ये कि उसी वक्त बीजेपी और कांग्रेस क्या कर रही थीं. दोनों ही पार्टियों- राजस्थान कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और महासचिव अशोक गहलोत चित्तौड़गढ़ के सांवरिया जी मंदिर में पूजा-अर्चना कर रहे थे, तो वसुंधरा राजे जैसलमेर के रामदेवरा मंदिर में बाबा रामदेव की पूजा में लीन थीं. बीजेपी हो या कांग्रेस, किसी को इस बात की फिक्र नहीं थी कि टोंक का मालपुरा कस्बा सांप्रदायिक उन्माद में खाक हो रहा है. पूजा अर्चना के बाद एक ने गौरव यात्रा की रैलियां की तो दूसरे ने सत्ता में आने के लिए संकल्प रैली की, मगर राज्य के सांप्रदायिक तनाव की निंदा तक नहीं कर पाए.
अल्पसंख्यक समुदाय के मोहल्ले में कांवड़ियों पर हुए पथराव के बाद लगाई धारा 144
बीजेपी सत्ता में है और सरकार के खिलाफ संघ और बीजेपी के कार्यकर्ता मालपुरा के सड़कों पर उतरे हुए हैं. पुलिस ने 22 अगस्त की शाम अल्पसंख्यक समुदाय के मोहल्ले में कांवड़ियों पर हुए पथराव के बाद धारा 144 लगा दी थी. लेकिन बीजेपी के सांसद सुखबीर सिंह जौनपुरिया और विधायक कन्हैया लाल अपनी ही सरकार के धारा-144 को मानने से इनकार करते हुए तिरंगा यात्रा को लेकर मालपुरा में निकल गए. पहले से ही जल रहा मालपुरा एक बार फिर से जलने लगा. मुस्लिम बाहुल्य इलाकों के युवकों में और तिरंगा यात्रा में शामिल संघ और बीजेपी कार्यकर्ताओं में दूसरे दिन फिर से पत्थरबाजी शुरू हो गई. देखते ही देखते कई दुकानें जला दी गईं. दोनों तरफ से पुलिस पर पत्थरबाजी शुरू हो गई. बड़ा सवाल है कि जब धारा 144 लगी हुई थी और कलेक्टर-एसपी, आई.जी, डीआईजी और संभागीय आयुक्त सभी मौके पर मौजूद थे तो फिर उसके बावजूद बीजेपी के सांसद और विधायकों को तिरंगा यात्रा निकालने की इजाजत क्यों दी गई. अगर यात्रा निकली भी तो हिंसाग्रस्त संवेदनशील मुस्लिम इलाके में उस यात्रा को क्यों जाने दिया गया.
अजीब हालात हैं, सत्ता बीजेपी के हाथ में है और विपक्ष की भूमिका में बीजेपी अपनी ही सरकार के खिलाफ सड़कों पर है. यानी बीजेपी कार्यकर्ता हिंदू वोट बैंक को जमीन पर मजबूत कर रहे हैं और सरकार उसको और मजबूती देने में लगी हुई है. अब सवाल उठता है कि पूरे देश में विपक्ष कहां है. कांग्रेस क्या कर रही है. दो दिनों से धूँ-धूँ कर जल रहे टोंक के मुद्दे पर कांग्रेस के नेताओं के मुंह पर ताला क्यों लगा हुआ है. यह जरुरी नहीं है कि हर मुद्दे पर कांग्रेस अपनी राय रखे, लेकिन लोकतंत्र का यह तकाजा है कि एक सशक्त विपक्ष मिले जो किसी भी मुद्दे पर किसी भी परेशान व्यक्ति की आवाज बने. लोकतंत्र और अधिनायकवाद में एक बड़ा अंतर होता है कि किसी भी मजलूम, गरीब, पीड़ित, शोषित और परेशान व्यक्ति को अपनी आवाज उठाने की आजादी मिलती है. उससे होता यह है कि लोकतंत्र एक वेंटिलेशन देता है जिससे विरोध का गुबार व्यक्ति के दिलो दिमाग से निकल जाता है और उसे महसूस होता है कि वो इस तंत्र का साझेदार है, हमारा कोई हमदर्द है जहां पर हम अपना दर्द दिखा रहे हैं.
सांप्रदायिक हिंसा पर चुप हैं दोनों पार्टियां
यह पहली बार नहीं है. राजस्थान में तीन महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं. अचानक से सांप्रदायिक दंगे हर जगह होने लगे हैं. ये कहा नहीं जा सकता मगर शक गहराता है कि ये सियासत का साइड इफेक्ट तो नहीं है. लेकिन इस सब के बीच राजस्थान कांग्रेस के नेता मंदिरों में पूजा पाठ करने में लगे हैं. तब हर किसी को हैरत हुई थी जब राहुल गांधी राजस्थान में चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे थे और अपने 45 मिनट के भाषण में उन्होंने पहलू खान से लेकर अकबर खान तक की लिंचिंग के किसी मामले पर एक शब्द भी नहीं बोला. यहां तक कि राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट भी कांग्रेस के सम्मेलन पर अपना मुंह बंद किए हुए थे. अगर इस पूरे सिलसिले को हम देखें तो चाहे वह पहलू खान की घटना हो, जफर खान की हो, उमर खान की हो या फिर अकबर खान की मॉब लिंचिंग,इन सारी घटनाओं में कांग्रेस पूरे दृश्य से तब तक गायब रही जब तक पत्रकारों ने खोज खोज कर इनके नेताओं के मुंह में माइक नहीं डाल कर सजावटी विरोध के दो शब्द नहीं निकलवाए.
कांग्रेस नेताओं के मुस्लिमों के पक्ष में कर खड़े होने से परहेज की परकाष्ठा को इस बात से समझ सकते हैं कि पिछले साढ़े चार साल में इन तमाम मुद्दों पर कांग्रेस ने एक भी आंदोलन धरना प्रदर्शन नहीं किया है. कांग्रेस के नेता इन मसलों पर बोलने से बचते रहते हैं. अगर पूरे घटनाक्रम पर आप नजर डालें तो इसके पीछे वजह यह है कि चुनाव को देखते हुए पिछले एक साल से बीजेपी पर कहीं न कहीं आरोप लगाया जा सकता है कि राजस्थान में सांप्रदायिक उन्माद को हवा दे रही है, कांग्रेस बीजेपी के इस खेल फंस गई है. वह नहीं चाहती है कि इस तरह के संवेदनशील भावनात्मक मुद्दे पर मुस्लिम समुदाय के साथ दिखे. लिहाजा सॉफ्ट हिंदुत्व के मुद्दे पर काम करते हुए मंदिरों का चक्कर लगाना शुरु कर दिया है. जफर खान या फिर उमर खान मॉब लिंचिंग में मारे गए लोगों के घर पर कोई भी कांग्रेस के नेता नहीं पहुंचा है. इनके घरों पर जाने वाले थोड़े बहुत समाज सेवी संगठन हैं जो सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं लेकिन लोकतंत्र में इतना काफी नहीं है. लोकतंत्र में किसी भी परेशान व्यक्ति के लिए विरोध की खिड़की होनी जरूरी है वरना जो लोग सेमिनार में समझा रहे हैं कि नाली के गैस से आग पैदा कर चाय बनाई जा सकती है उन्हें यह समझना होगा कि घरों में कैद दिल के गुबार से अगर आग उठी तो घर हीं जल उठेगा.
महात्मा गांधी कहा करते थे कि जो विरोधी के रोज-प्रतिरोज के व्यवहार से परेशान होकर अपना व्यवहार परिवर्तित कर ले वो कायर कहलाता है. लिहाजा लोकतंत्र का तकाजा है कि कांग्रेस बीजेपी के वोट बैंक की चाल में फंसकर मुस्लिम तुष्टिकरण की बदनामी का चोला उतारने के लिए हिंदू तुष्टीकरण की राजनीति से तौबा करें और अपनी भूमिका निभाना शुरू करे. पिछली सरकार में अशोक गहलोत के शासन के दौरान भरतपुर में एक मस्जिद के ऊपर पुलिस फायरिंग में मुस्लिम समुदाय के 10 लोग मारे गए तब अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ आंदोलन करने के लिए मौलाना महमूद मदनी और सफदर हाशमी जैसे दर्जनभर मुस्लिम नेता और सामाजिक कार्यकर्ता रोजाना राजस्थान के चक्कर काटते रहते थे लेकिन पिछले साढ़े चार साल में मुस्लिम वोटों के किसी भी ठेकेदार को राजस्थान में कहीं नहीं देखा गया है. सामाजिक संगठन किसी तरह से विरोध प्रदर्शन का सिलसिला चला रहे थे वह भी राजस्थान में कमोबेश ठंडा पड़ा है. पीयूसीएल की कविता श्रीवास्तव ले देकर थोड़े बहुत धरना प्रदर्शन करती रहती हैं लेकिन वह भी इस बार हाशिए पर दिख रही हैं. यानी मुस्लिम समुदाय पूरी तरह से अपने आप में सिमटा हुआ दिख रहा है जो कि लोकतंत्र के लिए एक स्वस्थ संकेत नहीं है. पिछले एक साल में हिंदुत्व के मुद्दे पर वसुंधरा सरकार के खिलाफ बीजेपी और संघ परिवार सड़क पर है. हर मसले पर बीजेपी पार्टी बीजेपी सरकार के खिलाफ सड़क पर तनकर खड़ी है. कौन भूल सकता है किस तरह से शंभू दयाल रैगर ने तलवार से टुकड़े टुकड़े काटकर पश्चिम बंगाल के एक अल्पसंख्यक समुदाय का मजदूर को जला डाला था. यह घटना शर्मनाक थी लेकिन उससे भी ज्यादा शर्मसार करने वाली घटना तब हुई जब शंभू दयाल रैगर के समर्थन में हजारों लोगों ने कोर्ट और कलेक्ट्री पर प्रदर्शन किया. कोर्ट की प्राचीर से लटक लटक कर वो चिल्ला रहे थे शंभूलाल रायगढ़ जिंदाबाद. वह कौन लोग थे जिन्हे शंभू दयाल रैगर के हाथों हुई लोमहर्षक हत्याकांड भी स्वाभिमान का प्रतीक लग रहा था.
लोकतंत्र में जिस हक से आप हर 5 साल बाद वोट मांगने जाते हैं उसी तरह लोकतंत्र में हर विपक्षी हर पार्टी की कुछ जिम्मेदारी भी बनती है. अगर बीजेपी सत्ता में रहकर जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रही है तो कांग्रेस उससे कहीं ज्यादा दोषी है जो विपक्ष में रहकर तटस्थ रहना चाहती है. कांग्रेस को समझना होगा कि हाशिए पर बैठे लोग तमाशबीन कहलाते हैं. जोखिम ये है कि कांग्रेस तमाशाबीन की भूमिका में दिखी तो मुख्यधारा की जगह भरने कोई न कोई आ जाएगा. अगर बीच का रास्ता तलाश रहे हों तो समझ लें कि बीच के लोगों का कोई इतिहास नहीं होता है.
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