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Updated: 04 नवम्बर, 2018 02:20 PM
अरिंदम डे
अरिंदम डे
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अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेन्द्र गिरि का कहना है कि मंदिर मुद्दे को लेकर भाजपा ने भ्रम की स्थिति फैला रखी है. भाजपा को अब यह बताना होगा कि अयोध्या में भगवान राम का मंदिर कब बनेगा और कैसे बनेगा. यह कहने से नहीं चलेगा कि मंदिर वहीं बनाएंगे, पर तारीख नहीं बताएंगे.

कांग्रेस भी श्री राम मंदिर के विरोध में नहीं है. ANI को दिए बयान के मुताबिक आज़म खान भी श्री राम के विरुद्ध नहीं हैं. तो परेशानी कहां है? ऐसा नहीं है कि भारत के किसी भी नागरिक को यह नहीं पता है कि अयोध्या श्री राम का जन्मस्थान है. राजनैतिक दल यह कहते हैं कि राम मंदिर राजनीति का विषय नहीं है - मुद्दा नहीं है, लेकिन हर चुनाव से पहले यह पॉलिटिकल डिस्कोर्स का हिस्सा बन जाता है. हां 2014 में इस मुद्दे को मैनिफेस्टो के बिल्कुल आखिरी पन्नों में निर्वासित कर दिया गया था. पर राम थे, भाजपा के मैनिफेस्टो में और देश की जनता की मन में, आज भी हैं.

राम मंदिर, भाजपा, चुनाव, बाबरी विध्वंसकांग्रेस भी श्री राम मंदिर के विरोध में नहीं है. तो परेशानी कहां है?

मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो राजनेता ज़्यादा खुल के अपना स्टैंड नहीं बता रहे हैं. लेकिन लोडेड बायन आ रहे हैं - कि उच्चतम अदालत को फैसला देते हुए आस्था का भी ख्याल रखना चाहिए. हालांकि, यह दूसरे फैसले के सन्दर्भ में कहा गया था. लेकिन आस्था अगर न्याय के आड़े आए तो अदालत को क्या करना चाहिए. तीन तलाक पर भी तो बहुतों की आस्था थी. तो क्या न्याय भी संख्या देख कर फैसला करे? नये भी 'गरिष्ठ का एकनायकतंत्र' का हिस्सा बन जाएं?

हाल ही में आरएसएस ने कहा है कि कांग्रेस 1994 में किये गए मंदिर पर वादा पूरा करें. उसका कहना है कि 1994 में कांग्रेस सरकार के सॉलिसिटर जनरल ने उच्चतम अदालत में एक हलफनामा दायर किया था. कथित तौर पर इसमें यह कहा गया था कि अगर खनन में यह प्रमाणित होता है कि उस ढांचे के नीचे कोई मंदिर था तो सरकार हिन्दुओं का पक्ष लेगी.

संत समाज को अब अदालत से ज़्यादा उम्मीद नहीं है. वह चाहते हैं कि सरकार अध्यादेश लाये और ज़मीन का अधिग्रहण करके भव्य मंदिर का निर्माण करें. अध्यादेश के रास्ते में कई परेशानियां हैं. अध्यादेश कोर्ट में घसीटे जा सकते हैं, और घसीटे जायेंगे भी, ऊपर से 6 महीने के अंदर उसे पार्लियामेंट में पास करना होगा.

शायद इससे ज़्यादा आसान तरीका एक बिल लाना होगा. बिल को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. और अगर बहस हुई तो ज़्यादा विरोध की उम्मीद नहीं है. अगर चुनाव से एकदम पहले यह बहस होगी तो कोई भी राजनितिक दल इसका खुल के विरोध नहीं करेगा. अगर विरोध हुआ तो सरकार पक्ष की पार्टियों को भारी फायदा होगा, और कोई मुद्दा - चुनावी मुद्दा ही नहीं रह जायेगा. आस्था और इश्यूज की लड़ाई का नतीजा जगजाहिर है. हां यह हो सकता है कि पार्लियामेंट में बिल पेश नहीं किया जाए. यह संभव है कि राम मंदिर बनाने का बिल उत्तर प्रदेश विधानसभा में पेश किया जाए, पास होने के बाद संसद को भेजा जाये. इस प्रक्रिया में जितना समय जाएगा उतना 'नैरेटिव', आस्था और अनास्था गहराएगा और सत्तारूढ़ पक्ष उसी रथ पे सवार होकर फिर दिल्ली की संसद में लौटेगी. उसके बाद मंदिर का क्या होगा यह तो - राम जाने.

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लेखक आजतक में पत्रकार हैं

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