दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा क्यों मिलना चाहिए?
मौजूदा व्यवस्था में दिल्ली में सबसे बड़ी सरकार उपराज्यपाल हैं जो कि एक केंद्र सरकार के अधिकारी हैं लेकिन दिल्ली के पूर्ण राज्य ना होने की स्थिति में वह राष्ट्रपति के नुमाइंदे कहे जाते हैं और जिनका ओहदा दिल्ली में मुख्य प्रशासक का है.
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दिल्ली की सत्ता में पिछले 3 साल से काबिज अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार ने दिल्ली विधानसभा का तीन दिवसीय विशेष सत्र बुलाकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग का प्रस्ताव सदन के पटल पर पेश किया है. हालांकि केजरीवाल की इस मांग को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर केंद्र में बैठी बीजेपी को घेरने की एक राजनीति कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है. एक वक्त में BJP और कांग्रेस दोनों ही दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर आवाज उठाते रहे हैं. लेकिन आज दोनों ही पार्टियों को दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए से ऐतराज है.
आप ने दिल्ली विधानसभा का तीन दिवसीय विशेष सत्र बुलाकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग का प्रस्ताव पेश किया है
राजधानी दिल्ली में मौजूदा व्यवस्था के तहत कई सरकारें हैं. दिल्ली में एक विधानसभा है और यहां कुल 70 विधायक चुने जाते हैं. एक मुख्यमंत्री समेत सात मंत्रियों की एक काउंसिल दिल्ली में सरकार चलाती है. मौजूदा व्यवस्था में दिल्ली में सबसे बड़ी सरकार उपराज्यपाल हैं जो कि एक केंद्र सरकार के अधिकारी हैं लेकिन दिल्ली के पूर्ण राज्य ना होने की स्थिति में वह राष्ट्रपति के नुमाइंदे कहे जाते हैं और जिनका ओहदा दिल्ली में मुख्य प्रशासक का है. सारे फैसले, अधिकारियों के तबादले और उनके खिलाफ कार्रवाई का अधिकार भी सिर्फ उपराज्यपाल के पास हैं. वहीं दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में नगर निगम भी दिल्ली की चुनी हुई सरकार के सीधे अधीन ना होकर उपराज्यपाल के अधीन है, साथ ही निगम चुनी हुई सरकार के आदेशों को मानने के लिए बाध्य नहीं है.
दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में जमीन यानी दिल्ली विकास प्राधिकरण सीधे-सीधे उपराज्यपाल के जरिए केंद्र सरकार के अधीन है और दिल्ली सरकार लाख चाहे तो भी जमीन से जुड़े हुए फैसले नहीं ले सकती. इतना ही नहीं, अगर दिल्ली सरकार को कहीं किसी सरकारी परियोजना के लिए जमीन की जरूरत हो तो उसे उपराज्यपाल और केंद्र सरकार की दया पर निर्भर होना पड़ता है.
दिल्ली के केंद्र शासित प्रदेश होने की स्थिति में दिल्ली की पुलिस भी उपराज्यपाल के जरिए सीधे-सीधे केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के नियंत्रण में है और दिल्ली की चुनी हुई सरकार के आदेश मानने के लिए पुलिस बाध्य बिल्कुल नहीं है. इतना ही नहीं दिल्ली में विधान सभा के गठन होने के बाद से लगातार दिल्ली सरकार के अधीन रही एंटी करप्शन ब्रांच मई 2015 के बाद से दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधीन नहीं है क्योंकि केजरीवाल के दोबारा सत्ता में आने के कुछ ही महीनों के भीतर यानी मई 2015 में मोदी सरकार द्वारा गृह मंत्रालय से जारी एक नोटिफिकेशन में दिल्ली की चुनी हुई सरकार से एंटी करप्शन ब्रांच और सर्विसेस विभाग को छीनकर उपराज्यपाल को सौंप दिया गया था. इस नोटिफिकेशन में गृह मंत्रालय ने दो टूक कह दिया कि दिल्ली में सरकार का मतलब सिर्फ और सिर्फ उपराज्यपाल हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट में केजरीवाल सरकार ने इस नोटिफिकेशन को चुनौती भी दी लेकिन हाई कोर्ट ने भी केंद्र के फैसले को सही ठहराते हुए दिल्ली में उप-राज्यपाल को ही सबसे बड़ा प्रशासक माना और उन्हें ही सर्व शक्तियों वाली सरकार घोषित कर दिया. जाहिर है अब दिल्ली में चपरासी से लेकर नौकरशाह की नियुक्ति, उनके तबादले और उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उपराज्यपाल को है. ऐसी स्थिति में दिल्ली सरकार के अधिकारी अब चुनी हुई सरकार के आदेश या निर्देश मानने के लिए बाध्य नहीं हैं क्योंकि अब उन्हें चुनी हुई सरकार द्वारा किसी भी तरह की कार्यवाही का बिल्कुल डर नहीं है.
दरअसल यही वह स्थिति है जो केजरीवाल के आरोपों को पूरी तरह खारिज नहीं कर पाती कि उपराज्यपाल के इशारों पर ही दिल्ली सरकार के अफसर चुनी हुई सरकार के फैसलों में अड़ंगा लगाते हैं, और तो और मंत्रियों के ना आदेश मानते हैं ना उनकी बुलाई बैठकों में आते हैं. केजरीवाल सरकार और दिल्ली की नौकरशाही के बीच पिछले 3 साल से इंद्रप्रस्थ में महाभारत चल रहा है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की जा रही है जिससे दिल्ली में चुनी हुई सरकार जनता की उम्मीदों को बेहतर तरीके से पूरा कर सके. दिल्ली में कानून व्यवस्था बिगड़ने से लेकर महिलाओं की सुरक्षा तक के सवाल पर पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी दिल्ली के पूर्ण राज्य ना होने और पुलिस के राज्य सरकार के अधीन ना होने का हवाला देती रहीं.
वास्तविक स्थिति यह भी है कि अगर दिल्ली के बाहरी इलाके में किसी गांव में कानून-व्यवस्था बिगड़े या कोई विवाद हो तो दिल्ली की जनता के सामने असमंजस की स्थिति हो जाती है कि आखिर वो गुहार लगाए भी तो किससे लगाए.
केंद्र सरकार के फैसले और हाईकोर्ट के आदेश के बाद दिल्ली में सर्वे सर्वा उपराज्यपाल हैं लेकिन न तो वह जनता के सामने आते हैं ना ही उन पर किसी सवाल के जवाब देने का उत्तरदायित्व है. सीधे-सीधे समझिए तो दिल्ली में लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांत के विपरीत स्थिति है यानी जिसको जनता ने चुना है और जो जनता के प्रति सीधे जवाबदेह है, उसके पास शक्तियां नहीं है और जिसको जनता ने नहीं चुना है बल्कि नियुक्त किया गया है और जो जनता के प्रति सीधे जवाबदेह नहीं है, उसके पास अथाह शक्तियां हैं.
दिल्ली की मौजूदा परिस्थिति में चुनी हुई सरकार की भूमिका का महज़ सलाहकार बनकर रह गई है. यानी दिल्ली की लाखों की आबादी ने जिस सरकार को फैसले लेने के लिए चुना है वह नीति और नियम तो बना सकती है लेकिन उन नीतियों को अमलीजामा पहनाने का अधिकार उस सरकार के पास नहीं बल्कि उसके ऊपर बिठाए गए एक चुने हुए केंद्र सरकार या राष्ट्रपति के प्रतिनिधि यानी कि उपराज्यपाल के पास है. लोकतंत्र की विडंबना है कि संविधान की धारा 239 ए ए मैं मौजूदा परिभाषा के अनुसार उपराज्यपाल दिल्ली की चुनी हुई सरकार की सलाह मानने के लिए बिलकुल बाध्य नहीं हैं. दूसरे राज्यों में लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के तहत राज्यपाल चुनी हुई सरकार के फैसले मानने के लिए बाध्य हैं लेकिन दिल्ली में उपराज्यपाल के पास अधिकार हैं कि वह जब चाहें, जितने चाहें या फिर चाहें तो चुनी हुई सरकार के सारे फैसले और आदेश पलट सकते हैं या उसे खारिज कर सकते हैं.
दिल्ली में ऐसा पिछले 3 सालों में लगातार देखा जा रहा है जब उपराज्यपाल चुनी हुई सरकार के नीतिगत फैसले या जारी किए गए आदेश सीधे-सीधे पलट देते हैं. राजनीतिक आरोपों की माने उपराज्यपाल चुनी हुई सरकार के नीतिगत मामलों की फाइलें महीनों तक दबाए रखते हैं. यह स्थिति इसलिए है और ऐसे आरोप इसलिए लगते हैं क्योंकि दिल्ली को पूर्ण अधिकार नहीं मिला है और दिल्ली की चुनी हुई सरकार को हर हालत में उप-राज्यपाल और केंद्र सरकार के रहमों करम पर जीना पड़ता है. स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब दिल्ली में किसी और पार्टी की सरकार हो और केंद्र में कोई और दल सत्ता में काबिज हो. फिलहाल केंद्र में बीजेपी की सरकार और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है और दोनों के बड़े नेताओं के बीच कड़वाहट जगजाहिर है. जाहिर है खामियाजा दिल्ली की जनता भुगत रही है.
दिल्ली में मौजूदा हालात में दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार, उपराज्यपाल, नगर निगम, डीडीए और दिल्ली पुलिस के बीच आपसी समन्वय ना होने की स्थिति में दिल्ली की जनता का नुकसान सबसे ज्यादा होता है. दिल्ली की स्थिति की शिकायत तब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी करती थी और आज के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कर रहे हैं क्योंकि सुबह का मुख्यमंत्री होने के बावजूद दोनों के पास अधिकारों के नाम पर कुछ नहीं था. हालांकि शीला दीक्षित के पास उस समय एंटी करप्शन ब्रांच और सर्विसेस विभाग था जिससे वह अधिकारियों पर नकेल लगा सकती थी जिससे सरकार का काम काफी हद तक आसान हो जाता था. केजरीवाल के पास वह शक्तियां भी नहीं है. स्थिति ऐसी ही रही तो दिल्ली में आने वाली हर सरकार के पास शक्तियों के नाम पर कुछ भी नहीं रह जाएगा. यानी दिल्ली में सरकार सिर्फ कहने के लिए होगी और अधिकार उस सरकार के पास होगा जो जनता के प्रति सीधे जवाब देह नहीं है. पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पास मौका था जब 10 साल की अंदर में कांग्रेस की सरकार थी और दिल्ली में भी कांग्रेस की ही सरकार थी. राज्य और केंद्र अगर आपसी सहमति बनाते और इच्छा शक्ति दिखाते तो दिल्ली आज की तारीख में एक पूर्ण राज्य की शक्ल में होती और सूबे की सरकार को अपने अधिकारों के लिए केंद्र द्वारा नियुक्त अधिकारी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता.
दरअसल उपराज्यपाल, केंद्र सरकार या राष्ट्रपति किसी की भी जिम्मेदारी दिल्ली की जनता के प्रति सीधे नहीं है इसीलिए यह जरूरी हो जाता है कि उस राज्य की चुनी हुई सरकार के पास वह तमाम शक्तियां हों जिससे वह अपने नीतिगत फैसले ले सके और उस को अमलीजामा पहना सके. जाहिर है जिसकी जवाबदेही है उसके पास अधिकार भी होने चाहिए. यही एक बड़ी वजह है जिससे दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग को समर्थन मिलता है.
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नाम दिए जाने के पीछे तर्कों का हल निकालने का अब वक्त आ गया है कि दिल्ली की दो करोड़ की आबादी को एक चुनी हुई सरकार मिल सके जो उनके लिए न सिर्फ सीधे तौर पर जिम्मेदार हो बल्कि उस जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए पर्याप्त शक्तियां भी रखती हो. नई दिल्ली में मौजूद प्रधानमंत्री आवास, राष्ट्रपति भवन, संसद और विदेशी दूतावासों की सुरक्षा का हवाला देकर दिल्ली को आखिर कब तक केंद्र शासित प्रदेश बनाकर उसके अधिकारों से वंचित रखा जा सकता है? वक्त आ गया है कि नई दिल्ली को दिल्ली से अलग किया जाए और दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाया जाए जिससे चुनी हुई सरकार की जवाबदेही भी मजबूत हो.
कब कब हुई दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग?
2013 में दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से रखा था. तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉक्टर हर्षवर्धन ने 2013 में विधानसभा चुनाव के दौरान दिल्ली को पूर्ण राज्य दिए जाने की मांग की थी. मई 2014 में लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद उस समय दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष रहे डॉक्टर हर्षवर्धन ने बयान दिया था कि वह प्रधानमंत्री के पास जाकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग करेंगे.
मोदी सरकार में मंत्री और दिल्ली में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे विजय गोयल ने भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग कई बार दोहराई. 21 सितंबर 2006 को दिल्ली में चल रही सीलिंग के दौरान तत्कालीन बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष और मौजूदा मोदी सरकार में मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने उस समय कांग्रेस सरकार को आड़े हाथों लेते हुए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग करते हुए बयान जारी करके यह कहा थी कि, "जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी तब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने संसद की ओर मार्च करते हुए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की थी. तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को लेकर एक मसौदा संसद में पेश किया जिसे प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली समिति के पास विचार करने के लिए भेजा गया था".
साल 2006 में बीजेपी के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष द्वारा जारी एक बयान में कहा गया था कि जब दिल्ली और केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार है ऐसे में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने में क्या अड़चन है? वहीं 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान नवंबर में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दिल्ली के लिए कांग्रेस का घोषणापत्र जारी करते हुए दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की थी. मैनिफेस्टो लॉन्च के दौरान शीला दीक्षित ने कहा था कि दिल्ली में सरकार की व्यवस्था और कई विभागों के चलते दिल्ली का विकास कार्य प्रभावित होता है. शीला दीक्षित ने कहा था कि अगर दिल्ली पूर्ण राज्य होता तो विकास बेहतर तरीके से संभव हो पाता.
साल 1998 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग सबसे पहले उठी थी. लेकिन साल 2003 में दिल्ली को पूरे अधिकार दिए जाने को लेकर पहली बार मसौदा संसद में आया. अप्रैल 2006 में बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मदन लाल खुराना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर बिल लाने की मांग की थी. साल 2003 में केंद्र में बैठी BJP सरकार में उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का कानून पेश किया था. उस समय इस बिल के प्रावधानों को लेकर तत्कालीन दिल्ली के मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने केंद्र सरकार के इस कदम को राजनीतिक करार दिया था.
क्या था प्रस्ताव?
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के मसौदे के लिए लंबी चर्चा और प्रक्रिया से गुजरने के बाद तीन अलग तरीके के प्रावधान सामने आए थे. प्रावधान यह भी था कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी दिल्ली पुलिस और एनडीएमसी जो कि वीवीआईपी इलाका है उसे केंद्र सरकार के अधीन रखा जाए जबकि जमीन यानी डीडीए, नगर निगम और रेवेन्यू विभाग को दिल्ली की चुनी हुई सरकार के सुपुर्द कर दिया जाए.
दूसरे प्रावधान के तहत दिल्ली पुलिस के उच्च अधिकारियों को उपराज्यपाल के जरिए केंद्र के अधीन रखने का प्रस्ताव किया गया था. उसी दौरान तत्कालीन केंद्रीय श्रम मंत्री साहिब सिंह वर्मा और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के मसौदे पर एक साथ खड़े थे. एक प्रावधान में लाइसेंसी विभाग और दिल्ली का ट्रैफिक पुलिस विभाग भी चुनी हुई दिल्ली की सरकार को देने का प्रस्ताव किया गया था. 2003 के उस कानून में आर्टिकल 371 J क्लॉज 3 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार दे दिया गया था कि वह दिल्ली की चुनी हुई सरकार के एग्जीक्यूटिव शक्तियों को न सिर्फ पलट सकते हैं बल्कि चुनी हुई दिल्ली सरकार को राष्ट्रपति के आदेशों को मानना होगा.
प्रावधान किया गया था कि दिल्ली सरकार में काम कर रहे नौकरशाहों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट भी दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री लिखेंगे ऐसे में नौकरशाहों को डर सता रहा था कि अगर उनकी गोपनीय रिपोर्ट मुख्यमंत्री के अधीन होगी तो जाहिर है नौकरशाही भी मुख्यमंत्री के आदेशों की गुलाम हो जाएगी. इतना ही नहीं इस कानून में आईएएस अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग की शक्तियां भी दिल्ली की सरकार को नहीं दी गई थीं. इस कानून पर उस समय हो रही चर्चा को लेकर अलग-अलग छपी रिपोर्ट की मानें तो तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को इस कानून पर उतनी ही आपत्ति थी जितना आज दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अधिकारियों के ट्रांसफर पोस्टिंग की शक्तियां उपराज्यपाल को ट्रांसफर कर दिए जाने को लेकर है. उस समय केंद्र सरकार का यह कानून राजनीतिक विवाद का केंद्र बन गया और तब से लेकर आज तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग बीजेपी और कांग्रेस के घोषणा पत्रों में ही सीमित होकर रह गई.
अब तक क्यों नहीं मिला दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा?
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण बताया जाता है दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना. करण बनाया जाता है कि राष्ट्रीय राजधानी में प्रधानमंत्री रहते हैं, राष्ट्रपति रहते हैं, देश की संसद है और साथ ही दुनियाभर के डिप्लोमैट और उनके दूतावास दिल्ली में मौजूद हैं. हवाला दिया जाता है कि ऐसी स्थिति में अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया तो लॉ एंड ऑर्डर समेत पुलिस का नियंत्रण भी राज्य की सरकार के अधीन होगा और वही जमीन राज्य सरकार के अधीन होने की स्थिति में केंद्र सरकार जमीन से जुड़े नीतिगत फैसले नहीं ले पाएगी और उसे राज्य सरकार के रहमों करम पर जीना होगा.
केंद्र की नौकरशाही मानती है कि अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया तो बड़े नौकरशाहों के तबादले और उनके खिलाफ कार्यवाही का अधिकार भी राज्य सरकार को मिल जाएगा वहीं राज्य की पुलिस राज्य सरकार के अधीन होने की स्थिति में केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर कार्यवाही करने का अधिकार भी राज्य की सरकार को मिल जायेगा जो उनके अधिकारों के खिलाफ होगा.
केजरीवाल को क्यों चाहिए दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा?
दिल्ली में सरकार बनाने के बाद अरविंद केजरीवाल ने पंजाब का रुख किया था ताकि वह एक पूर्ण राज्य के जरिए अपना मॉडल देश भर के सामने रख सकें और अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा को उस मॉडल के जरिए पूरा कर सकें. पंजाब में केजरीवाल को सफलता नहीं मिली वहीं दिल्ली में भी उनके अधिकारों पर मोदी सरकार ने कैंची चला दी. केजरीवाल को लगता है कि अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का मौका मिला तो पुलिस नौकरशाही और व्यवस्था बदलने की शक्तियां उनके अधीन होगी और सरकार चलाने का जो मॉडल उनके पास है उस मॉडल को वह राजधानी के जरिए पूरे देश को दिखा सकेंगे और खुद को एक बेहतरीन शासक साबित कर सकेंगे. जाहिर है केजरीवाल की महत्वकांक्षा की लड़ाई की शुरुआत दिल्ली से ही शुरु होती है.
कैसे मिलेगा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा?
आमतौर पर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के प्रस्ताव में यह कहा गया है के दिल्ली में संसद, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास और विदेशी दूतावासों वाले एनडीएमसी इलाकों यानी नई दिल्ली को सीधे केंद्र सरकार के अधीन रखा जाए जबकि दिल्ली के तीनों नगर निगम, दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली पुलिस को दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधीन किया जाए जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी रिजर्व पैरामिलिट्री के सुपुर्द कर दी जाए. अलग पुलिस कमिश्नरेट का गठन किया जाए और पैरामिलिट्री के साथ साथ नई दिल्ली पुलिस का गठन किया जाए.
दिल्ली में किसी भी तरह की इमरजेंसी में केंद्र और राज्य सरकार के बीच समन्वय बिठाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक काउंसिल का भी गठन किया जाए जो एक दूसरे के अधिकारों पर हमला किए बिना हर स्थिति को चर्चा के जरिए निपटारा कर सके. दिल्ली विकास प्राधिकरण को राज्य सरकार के अधीन किए जाने की स्थिति में केंद्र सरकार को दिल्ली के हर इलाके में जमीन की जरूरत की स्थिति में राज्य सरकार केंद्र को जमीन देने के लिए बाध्य हो. दिल्ली का मास्टर प्लान बदलने के लिए केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व जरूरी हो. साथ ही दिल्ली विधानसभा को नई दिल्ली इलाके को छोड़कर पूरे राज्य के लिए हर तरह के कानून दूसरे राज्यों की तरह ही बनाने की शक्ति हासिल हो.
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संसद में केंद्र सरकार को कानून लाना होगा और उस कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद दिल्ली को पूर्ण राज्य बन सकता है.
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