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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 28 दिसम्बर, 2018 06:30 PM
नवेद शिकोह
नवेद शिकोह
  @naved.shikoh
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कहावत है- मरा हुआ हाथी दस लाख का होता है. शायद सपा-बसपा के संभावित गठबंधन का अति आत्मविश्वास इस कहावत को न मानकर कांग्रेस को नजरअंदाज कर रहा है. इन क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस में यदि आपसी वर्चस्व की लड़ाई चलती रही, तो इस राज्य में मुस्लिम वोटबैंक का बिखराव तय है. और यदि इन दलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से आपसी सामंजस्य बना लिया तो यूपी में भाजपा के लिए पंद्रह-बीस सीटें भी बचा पाना मुश्किल हो जायेगा.

इन दलों के बीच ट्यूनिंग का ऊंट किस करवट बैठेगा अभी ये तय नहीं लेकिन आपसी ईगो के होते सही मायने में अभी कोई तस्वीर सामने नहीं है. सपा खेमें के एक उच्च पदस्थ सूत्र की मानें तो सपा के बड़े नेता ने दस जनपथ संदेशा भेजा कि गठबंधन में सीटें तय करने के लिए बहन जी से राहुल जी की मीटिंग का समय निर्धारित हो जाना चाहिए. इसके जवाब में कांग्रेस का संदेशा आया कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर जी से बहन जी मीटिंग तय कर लें.

सपा, बसपा, मायावती, अखिलेश, कांग्रेस  यूपी की राजनीति में क्षेत्रीय दलों जैसे सपा और बसपा को नजरंदाज नहीं किया जा सकता

ऐसे में बसपा सुप्रीमो मायावती राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के सिवा गठबंधन के संबंध में किसी से बात भी करने को तैयार नहीं हुईं और इस तरह मामला अटक गया. अब ख़बरें ये भी आ रही हैं कि सीटों का तालमेल नहीं हो पाया तो कांग्रेस और सपा-बसपा गठबंधन प्लान बी पर भी काम कर सकते हैं. प्लान बी का मतलब यहां फ्रेंडली फाइट है जहां कुछ सीटों पर कांगेस को जिताने के लिए सपा-बसपा के डमी कैंडिडेट आएंगे बाकी सीटों पर कांग्रेस की भूमिका वोट कटवा की रहेगी. 

लोकसभा चुनाव की लड़ाई जीतने के लिए भाजपा से लड़ने वाले आपस में तालमेल के लिये कैसे लड़ रहे हैं इसके पीछे तमाम फेक्टर हैं. आइये नजर डालते हैं उन कारणों पर -

यूपी में कांग्रेस लगभग मरी हुई है. लेकिन लोकसभा में भाजपा विरोधी मतदाताओं कि पहली पसंद कांग्रेस ही होती है. यूपी के विधानसभा चुनाव में सपा या बसपा को वोट देने वाले लोकसभा में अक्सर कांग्रेस पर विश्वास जताते हैं. पिछले लोकसभा में दस साल की एंटीइंकम्बेंसी थी और भाजपा और मोदी लहर ऊफान पर थी. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कमजोर संगठन था. आपसी खेमे बाजी थी. राहुल सिर्फ़ पप्पू की इमेज में बंधे थे. तब भी कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव में करीब दस सीटों पर फाइट की थी.

इस बार माहौल बदल गया है. केंद्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकारों की एंटीइंकम्बेंसी. बतौर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी का एक नया स्वरूप. नरेंद्र मोदी के खिलाफ आक्रामक तेवर मुस्लिम समाज को प्रभावित जरूर कर रहे हैं. सपा-बसपा का संभावित गठबंधन साझे में अपने-अपने क्रमशः पिछड़ों, दलितों की घर वापसी पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं.

सपा, बसपा, मायावती, अखिलेश, कांग्रेस  2019 के सन्दर्भ में यूपी में मुसलमान तबके के बीच भी पशोपेश की स्थिति है

ऐसी परिस्थितियों में मुसलमान जरूर कंफ्यूज होगा.

एक तरह सपा-बसपा गठबंधन की जीत के ज्यादा चांस और दूसरी तरह मोदी का खुलकर विरोध कर दिल में उतरने वाले राहुल की कांग्रेस का मोह. ऐसे में भाजपा विरोधी दलों के बीच कोई बेहतर सामंजस्य नहीं बन सका तो मुस्लिम वोट बैंक एक तरफा न होकर बिखराव का शिकार बन सकता है. पिछले लोकसभा चुनाव से लेकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की शानदार जीत के बाद मुस्लिम समाज सियासत के हाशिये पर आ गया है.

ये वही अल्पसंख्यक समाज है जिसकी किसी भी हार या जीत में निर्णायक भूमिका रहती थी. किंग मेकर कहे जाने वाले मुस्लिम वोट बैंक को पहली बार तब जबरदस्त झटका लगा जब लोकसभा में भाजपा का परचम लहराया. ध्रुवीकरण का माहौल हिन्दुओं की जातियों को जोड़कर भाजपा को सफलता दिलाने के लिए काफी होता है. इस बात को ही भांपकर अल्पसंख्यक समाज ने धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों को नाकाम करने के लिए अब भड़कने के बजाय शांत रहना मुनासिब समझा.

यही कारण रहा कि पिछले पांच राज्यों के चुनाव में ध्रुवीकरण के माहौल का सफाया होता नजर आया. लगने लगा है कि अब अगले लोकसभा चुनाव में धर्म की नहीं बल्कि जाति कि हवा चलेगी. यही कारण है कि जातिवाद के लिए सबसे ज्यादा बदनाम यूपी पर सबकी निगाहें लगी हैं. सबसे ज्यादा सीटों वाला यूपी ही दिल्ली की कुर्सी तय करता रहा है.

सपा, बसपा, मायावती, अखिलेश, कांग्रेस  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पहले ही तमाम तरह की चुनौतियों का सामना कर रही है

यूपी की लड़ाई आगामी लोकसभा चुनाव को सबसे ज्यादा दिलचस्प बनायेगी.

यहां यदि सपा-बसपा के संभावित गठबंधन में कांग्रेस को शामिल नहीं किया जाता है तो यूपी के चुनाव में मुसलमानों का वोट बट सकता है. भाजपा के खिलाफ तैयार हो रहे गठबंधन को यदि यूपी में बीस प्रतिशत मुसलमानों का बीस-पच्चीस प्रतिशत वोट सपा-बसपा के संभावित गठबंधन से छिन सकता है. इस बात के मद्देनजर ही भाजपा विरोधी दल आपसी सामंजस्य बनाने की हर संभव कोशिश करेंगे. लेकिन सच ये है कि कांग्रेस और सपा-बसपा के बीच प्रत्यक्ष समझौते ना होने से ये माना जा सकता है कि इन्हें मुस्लिम मतदाताओं के वोटों की परवाह नहीं है.

उत्तर प्रदेश में बीस प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी है. सपा-बसपा के संभावित गठबंधन से कांग्रेस अलग रही तो मुस्लिम वोट बैंक बिखर जायेगा. क्योंकि ज्यादातर मुसलमान लोकसभा में कांग्रेस को वोट देता है और विधानसभा में सपा या बसपा को. इस बात की परवाह किये बिना सपा-बसपा यूपी में कांग्रेस को दूर रखकर पिछड़े-दलितों और अल्पसंख्यकों की बदौलत पूरा यूपी फतह करने के सपने देख करे हैं. हांलाकि उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक इन दलों में अंदरूनी सांठ-गांठ तय होकर भाजपा को शिकस्त देने का प्लान तय हुआ है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की ताकत वाली भाजपा का किला ढहाने के लिए भाजपा विरोधी दलों के बीच मनमुटाव के दिखावे के पीछे आपसी सामंजस्य छिपा हो सकता है. हाथी के उन दांतो की तरह जो कुछ खाने के और कुछ दिखाने के लिए होते हैं. जिस तरह कभी-कभी बड़े कलाकार भी छोटे पर महत्वपूर्ण किरदार निभाने पर राज़ी हो जाते हैं ऐसे ही कांग्रेस भी भाजपा की शिकस्त के लिए यूपी में वोट कटवा की छोटी पर अहम भूमिका के लिए राजी हो सकती है.

सपा, बसपा, मायावती, अखिलेश, कांग्रेसपीएम मोदी की लोकप्रियता वो कारण हैं जिसने यूपी में भाजपा को एक मजबूत कद दिया है

जातिगत समीकरणों में मजबूत सपा और बसपा का संभावित गठबंधन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ साइलेंट रणनीति में इस सूबे से भाजपा का सूपड़ा साफ करने की योजना पर काम कर रहा है. उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक सपा-बसपा और कांग्रेस के आलाकमान खामोशी से आपसी बातचीत जारी रखे हैं. कांग्रेस यूपी में कम सीटों के लिए राजी नहीं हुई और सपा व बसपा मुखिया कांग्रेस को बेहद कम सीटें देने पर ही अड़े रहे. किंतु ये तीनों दल यूपी से भाजपा का सूपड़ा साफ करने के मिशन को मिलजुलकर अंजाम पर लाने के लिए एक दूसरे फार्मूले का विकल्प खोज लाये हैं.

अमेठी और रायबरेली सीट छोड़ने के अलावा करीब सात-आठ सीटों पर कांगेस के साथ गठबंधन की फ्रेंडली फाइट होगी और यहां सपा-बसपा अपना नाम मात्र का डमी कैंडिडेट ही खड़ा करेंगी. बाकी सभी सीटों पर कांग्रेस भाजपा को हराने के लिए वोट कटवा की भूमिका निभायेगी. इसके लिए कांग्रेस अपने अधिकांश सवर्ण प्रत्याशी मैदान में उतारेगी. ताकि भाजपा का खेल बिगड़ सके. चुनाव का रुख यदि दलित-पिछड़ा बनाम सवर्ण की दिशा में घूम जाये तो सवर्ण वोट बंट जाएंगे.

ये बात सच है कि एंटीइंकम्बेंसी के बावजूद आज भी पिछड़ी जातियों का बीस से तीस प्रतिशत समाज और दस फीसद तक दलित समाज आज भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास का रिश्ता कायम रखे है. इसके अलावा शिवपाल यादव की पार्टी यादव वोटों में सेंध लगाकर भाजपा का फायदा कर ही सकती है. इन सब की भरपाई के लिए ही यूपी की चुनावी गणित में सपा-बसपा गठबंधन कांग्रेस के जरिए भाजपा के पारंपरिक सवर्ण वोटों को बिखरने की कोशिश करेगी.

इस साइलेंट गेम में कांग्रेस को राजी करने के लिए बसपा-सपा अपने थोड़े बहुत जनाधार वाले अन्य प्रदेशों में कांग्रेस के लिए रास्ते आसान करने का प्रस्ताव भी रख रही है. यूपी की राजनीति और यहां के वोटरों की नब्ज समझने वाले विद्वानों का भी यही मानना है कि पिछले लगभग तीन दशकों से यूपी का हर चुनाव बारी-बारी धर्म या जाति पर आधारित रहा है.  पिछले लोकसभा और विधानसभा के चुनाव धार्मिक ध्रुवीकरण की भेंट चढ़ा. इसबार खासकर यूपी में जाति की बयार बह सकती है. इसलिए यहां बसपा-सपा बनाम भाजपा की लड़ाई में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होने की संभावना कम है.

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लेखक

नवेद शिकोह नवेद शिकोह @naved.shikoh

लेखक पत्रकार हैं

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