किसानों ने ट्रैक्टर परेड की ज़िद करके खुद के पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार ली है
दिल्ली में गणतंत्र दिवस के मौके पर किसान ट्रैक्टर परेड निकाल कर बहुत कुछ हासिल कर लेना चाह रहे थे, लेकिन दांव उल्टा पड़ गया और किसान ने पिछले दो महीने में जितनी भी जनभावनाएं जोड़ी थी सब गंवा बैठे. किसानों में फूट पड़ चुकी है यानी ये आंदोलन अब बहुत लंबे समय तक नहीं टिकने वाला है.
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दिल्ली में गणतंत्र दिवस के मौके पर किसानों ने ट्रैक्टर रैली का आयोजन किया था. आधी अधूरी तैयारी और बिना किसी नेतृव्य के निकाली गई ये परेड का जो हाल हुआ उससे हर कोई वाकिफ है. अब इस घटना के पक्ष और विपक्ष में लोग खड़े हैं, बहस जारी है कि कौन सही है कौन गलत लेकिन बात उन किसानों की करते हैं जिन्होंने हफ्तों तक ज़िद करके इस परेड को किसी भी सूरत में निकालने की बात की थी. किसान चाहते थे कि इस परेड के ज़रिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए ताकि सरकार पर दबाव बन जाए. किसानों की ज़िद के आगे दिल्ली पुलिस ने हार मान ली और ट्रैक्टर परेड की इजाज़त दे दी. हालांकि ये इजाज़त शर्तिया तौर पर थी, रूट निर्धारित थे, लोग निर्धारित थे और ट्रैक्टर तक निर्धारित थे लेकिन किसान नेता बंटे हुए नज़र आए. किसी का कोई भी कंट्रोल नहीं दिखा. किसानों के जत्थे में किसान नेता गायब नज़र आए, उनकी ज़िम्मेदारियां थी लेकिन उन लोगों ने यह कहते हुए ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया कि उनके आंदोलन को अराजक लोगों द्वारा हाइजैक कर लिया गया है.
ट्रैक्टर परेड के नाम पर जो अराजकता किसानों ने की उसे लंबे समय तक याद रखा जाएगा
किसान नेता अपने अपने ट्रैक्टर परेड में शामिल होने वाले लोगों को न तो रूट की जानकारी मुहैया करा सके और न ही समय की जानकारी साझा कर पाए, ट्रैक्टर परेड के लिए दिल्ली पुलिस ने सबसे पहली शर्त यही रखी थी कि किसानों का कोई भी कार्यक्रम गणतंत्र दिवस समारोह से पहले या उस वक्त तक नहीं होगा जबतक राष्ट्रीय समारोह चल रहा होगा. किसानों ने इस शर्त पर हामी भी भरी थी लेकिन अगली सुबह जब गणतंत्र दिवस समारोह शुरू ही हुआ था कि किसानों के ट्रैक्टर दिल्ली की सीमाओं को छूने लगे.
यानी सबसे पहली शर्त को ही सबसे पहले तोड़ दिया गया, उसके बाद रूट की शर्त को भी सिरे से नकार दिया गया है और मनमर्जिया तरीके से दिल्ली के अंदर दाखिल होने की कोशिश होती रही. पुलिस ने शालीनता के साथ काम लिया और किसी भी तरह की सख्ती नहीं दिखाई महज लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोलों का सहारा लिया गया.
नतीजा ये हुआ कि किसानों का जत्था दिल्ली के प्राचीर स्थल लालकिले तक पहुंच गया उसके बाद की पूरी तस्वीर से हम या आप ही नहीं किसानों का भी एक धड़ा निराश है. किसानों ने हिंसक रूप धारड़ कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चला डाली है, इस हिंसा के अगले ही दिन दिल्ली पुलिस ने ताबड़तोड़ कार्यवाई करते हुए 37 किसानों पर एफआईआर दर्ज कर डाली तो 300 लोगों को हिरासत में भी ले लिया.
पुलिस की कार्यवाई तो हुयी ही साथ ही साथ किसानों के बीच भी फूट पड़ गई. किसान आंदोलन की ताकत रहे दो प्रमुख किसान संगठन पहला राष्ट्रीय मजदूर किसान संगठन और दूसरा भारतीय किसान यूनियन ने खुद को इस आंदोलन से अलग कर लिया है.अब इन दोनों संगठनों ने अपने आंदोलन को समाप्त कर दिया है. किसानों को पुलिस की कार्यवाई और किसान संगठनों के साथ छोड़ने के अलावा भी ज़ख्म मिले हैं.
किसानों ने ऐलान कर रखा था कि 1 फरवरी को किसान संसद मार्च करेंगे लेकिन 26 जनवरी पर हुयी हिंसा ने उस मार्च पर विराम लगा दिया है. खुद किसान भी इस मार्च से पीछे हट गए हैं जबकि अगर वह तैयार भी होते तो दिल्ली पुलिस इस बार किसी भी कीमत पर उनको अनुमति देने के पक्ष में नहीं होती.
जो किसान पिछले दो महीने से शांति के साथ दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हुए थे उनको अबतक आम जनता का पूरा साथ मिल रहा था, जनभावनाएं इस आंदोलन के साथ व्यापक तौर पर जुड़ी हुयी थी किसानों की हिंसात्मक परेड ने इस जनभावना की भी हत्या कर दी और लालकिले पर हुई शर्मनाक घटना से लोगों के दिल में अब इन किसानों के प्रति रोष है.
किसानों ने 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड निकाल कर जो जो हासिल करना चाहा था उसमें से तो उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ, न तो जनभावना बढ़ी न ही सरकार पर कोई दबाव बढ़ा, बल्कि इस परेड के निकलने से किसानों ने जो अब तक कमाया था वह सब भी गंवा दिया.
अब किसान कमज़ोर पड़ गए हैं उनसे न ही उस स्तर पर जनभावना जुड़ी हुई है और न ही उनकी आवाज़ में अब वह ताकत रह गई है. किसानों के खुद के संगठनों का अलग हो जाना बताता है कि 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड खुद किसानों के लिए ही घातक साबित हो गई है. अब किसानों को कभी भी दिल्ली की सीमाओं से खदेड़ा जा सकता है क्योंकि अब यह आंदोलन धीरे धीरे कमज़ोर होता जाएगा.
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