इंदिरा के बहाने महामहिम की टिप्पणी सिर्फ सोनिया नहीं, मोदी को भी नसीहत है
महामहिम की टिप्पणी को कांग्रेस के लिए नसीहत के तौर पर देखा जा रहा है. ये वक्त की नजाकत है कि कांग्रेस को लेकर ऐसी कोई भी टिप्पणी केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी पर जाकर अपनेआप अटक ही जाती है.
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इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व और उनके शासन को लेकर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बयान की अपने अपने तरीके से व्याख्या की जा रही है. महामहिम की टिप्पणी को कांग्रेस के लिए नसीहत के तौर पर देखा जा रहा है. ये वक्त की नजाकत है कि कांग्रेस को लेकर ऐसी कोई भी टिप्पणी केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी पर जाकर अपनेआप अटक ही जाती है. सिर्फ इसलिए नहीं कि अपने कांग्रेस मुक्त अभियान में बीजेपी कामयाब होती चली जा रही है, इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस प्रतिकूल माहौल में न तो खड़े होने की कोशिश कर रही और न ही तरीके से प्रतिरोध कर पा रही है.
राष्ट्रपति मुखर्जी ने इंदिरा गांधी को '20वीं सदी की महत्वपूर्ण हस्ती' - और अब तक का 'सर्वाधिक स्वीकार्य शासक' या प्रधानमंत्री बताया है. राष्ट्रपति की ये बातें क्या सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस के इर्द गिर्द ही घूमती हैं - क्या मोदी सरकार इस टिप्पणी के दायरे से बिलकुल बाहर है?
सोनिया और राहुल के लिए
खराब सेहत के चलते सोनिया गांधी उस समारोह में नहीं पहुंच पायी थीं जिसमें दिये गये राष्ट्रपति के बयान की जोरदार चर्चा है. हालांकि, खबर ये भी है कि अस्पताल से भी वो राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष को एकजुट करने की रणनीति तैयार करती रहीं हैं - और नेताओं से फोन पर बात भी कर रही हैं. राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने थमे नहीं हैं और इसके पीछे भी वजह वही बतायी जा रही है. कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी के अब तक लटके होने की वजह भी तकरीबन वही है. यहां तक कि यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन भी तभी हो पाया जब प्रियंका गांधी पर्दे के पीछे से ही लीड रोल में आईं.
राष्ट्रपति बोले - इंदिरा जैसा कौई नहीं!
राष्ट्रपति मुखर्जी ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नेतृत्व क्षमता को एक तरह से बेमिसाल बताया है - और उसको लेकर मिसालें भी पेश की हैं. 1978 में कांग्रेस में दूसरे विभाजन का जिक्र करते हुए राष्ट्रपति ने राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की शानदार जीत का हवाला दिया है. उस दौर को याद करते हुए राष्ट्रपति मुखर्जी ने कहा, '1977 में कांग्रेस हार गयी थी. मैं उस समय जूनियर मंत्री था. उन्होंने मुझसे कहा था कि प्रणब, हार से हतोत्साहित मत हो. ये काम करने का वक्त है और उन्होंने काम किया.'
मतलब ये कि लगातार हार से कांग्रेस को निराश होने की बजाये फिर से खड़े होने के लिए संघर्ष करना चाहिये. जरूरत के हिसाब से काम करना चाहिये. लोक सभा चुनाव में बुरी तरह हारने के चलते कांग्रेस विपक्ष का नेता पद भी गंवा चुकी है. तब से अब तक बिहार और पंजाब चुनाव में मिले कुछ ऑक्सीजन को छोड़ कर फौरी उम्मीद तो किसी को भी फिलहाल शायद ही नजर आ रही है.
माना जा रहा है कि राष्ट्रपति मुखर्जी ने कांग्रेस नेतृत्व को इशारों इशारों में नीतिगत बातों के साथ साथ सांगठनिक मामलों में भी जल्द फैसले लेने की सलाह दी है.
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बातों की आम व्याख्या कांग्रेस के परिप्रेक्ष्य में की जा रही है - और समझा जा रहा है कि इसमें कांग्रेस के लिए बड़ी नसीहत है. कांग्रेस से मतलब सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों से है. जिस कार्यक्रम में राष्ट्रपति ने ये बातें कहीं उसमें सोनिया की गैरमौजूदगी में उनका भाषण भी राहुल गांधी पढ़ना पड़ा.
अगर सोनिया, राहुल और कांग्रेस से इतर राष्ट्रपति की बातों को समझने की कोशिश की जाये तो कई बातें अपनेआप जुड़ती चली जाती हैं.
मोदी के लिए क्या?
अब सवाल ये है कि क्या इंदिरा गांधी के बहाने से आई राष्ट्रपति की इस टिप्पणी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के लिए भी कोई मैसेज छुपा है?
राष्ट्रपति ने इंदिरा गांधी को 20वीं सदी की महत्वपूर्ण हस्ती तो बताया ही, कहा - अब भी इंदिरा गांधी सबसे ज्यादा स्वीकार्य शासक या प्रधानमंत्री हैं. इसके साथ ही राष्ट्रपति ने कहा है - 'इंदिरा ने हमेशा साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ आवाज उठायी.'
राष्ट्रपति ने इंदिरा के शासन की तारीफ में तीन शब्दों पर खास जोर दिया है - साहस, दृढ़ निश्चय और निडरता.
राष्ट्रपति के बयान में दो बातों पर गौर करने लायक है - 'सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतें' और 'स्वीकार्यता'. ये दोनों ही ऐसी बातें हैं जिन्हें विपक्ष बीजेपी से जोड़ कर पेश करता रहा है.
वैसे विपक्ष पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्वीकार्यता पर मोदी के मुकाबले बहुत ही कम तीखा रहा है. राष्ट्रपति की नजर में इंदिरा के आगे इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक कोई नहीं फिट हो पाया है.
ये सही है कि इंदिरा गांधी पर सांप्रदायिक होने का आरोप कभी नहीं लगा है, लेकिन उनके विरोधी इसी को तुष्टीकरण के रूप में पेश कर समझाते रहे हैं. जहां तक कड़े फैसले लेने की बात है तो 1971 की लड़ाई के लिए वाजपेयी तक ने इंदिरा गांधी को दुर्गा रूप बताया था. स्वीकार्यता के हिसाब से देखें तो मोदी को लेकर भले ही कुछ लोगों को रिजर्वेशन रहा हो लेकिन वाजपेयी को लेकर वैसी बात बिलकुल नहीं रही. बल्कि, ये वाजपेयी ही हैं जिन्होंने गुजरात दंगों को लेकर तब मुख्यमंत्री रहे मोदी को राजधर्म की याद दिलायी थी.
इंदिरा और कांग्रेस ने देश पर इमरजेंसी थोपने की जो भी कीमत चुकायी हो, लेकिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में वो दाग भला कैसे धुल सकता है? ऐसा लगता है देश के इतिहास में अब तक के सबसे काबिल और राजनीति के अनुभवी राष्ट्रपतियों में शुमार प्रणब मुखर्जी के आकलन में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी को जीरो मार्क ही मिल पाये.
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