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Updated: 24 नवम्बर, 2019 02:31 PM
प्रभाष कुमार दत्ता
प्रभाष कुमार दत्ता
  @PrabhashKDutta
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एक ट्रेडमार्क शेरवानी, सिर पर मुस्लिम टोपी और शेव की हुई मूंछें. ये पहचान है AIMIM नेता और हैदराबाद सांसद असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की, जो खुद को मुस्लिमों की आवाज की तरह सबके सामने पेश करते हैं. वह दावा करते हैं कि वही आज के भारत में मुस्लिमों की सच्ची आवाज हैं. उनकी बातें टीवी, सोशल मीडिया और भाषणों में भी काफी भड़काऊ होती हैं. पूर्व राज्यसभा सांसद जावेद अख्तर ने संसद में अपनी फेयरवेल स्पीच के दौरान भी ओवैसी का नाम लिया था. उन्होंने कहा था- 'एक सज्जन हैं, जो सोचते हैं कि वह एक राष्ट्रीय नेता हैं. हालांकि, सच ये है कि वह भारत के आध्र प्रदेश के एक शहर के एक मोहल्ले के एक नेता हैं. उन्होंने कहा है कि वह भारत माता की जय नहीं कहेंगे, क्योंकि संविंधान उनसे ऐसा कहने को नहीं कहता है. तो संविधान तो उन्हें शेरवानी पहनने और मुस्लिम टोपी पहनने को भी नहीं कहता है.'

जावेद अख्तर की फेयरवेल स्पीच के करीब 3.5 साल बाद बहुत कुछ बदल गया है. उनकी पार्टी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में पहले के मुकाबले अधिक सीटें जीती हैं और बिहार विधानसभा में उपचुनाव के जरिए एंट्री मार ली है. उनके वीडियोज को सोशल मीडिया पर खूब शेयर किया जाता है, जो उन्हें और भी लोकप्रिय कर रहा है, खाकर शिक्षित मुस्लिम युवाओं के बीच.

आज ओवैसी की आवाज को महाराष्ट्र से लेकर बंगाल तक सभी राज्यों में सुना जाता है. यही वजह है कि बंगाल में मुस्लिम वोटर्स की चहेती ममता बनर्जी ने भी अचानक ही असदुद्दीन ओवैसी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. उन्होंने अयोद्या के बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में ओवैसी पर हमला बोला है.

ममता बनर्जी ने एक रैली को संबोधित करते हुए कहा- 'ऐसे नेताओं का भरोसा मत कीजिए जो बाहर से आते हैं और खुद को आपके (मुस्लिमों के) प्रति सहानुभूति रखने वाला दिखाते हैं. सिर्फ बंगाल के नेता ही आपके अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं. जो लोग हैदराबाद से पैसों के बैग लेकर आ रहे हैं और मुस्लिमों के प्रति सहानुभूति दिखा रहे हैं, वह भाजपा वालों के सबसे बड़े दोस्त हैं.'

इससे पहले सिंगूर विरोध के दौरान ममता बनर्जी और असदुद्दीन औवैसी राजनीतिक लड़ाई में एक ही धड़े पर खड़े थे. राजनीतिक नजरिए से देखें तो ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस 294 सीटों की पश्चि बंगाल विधानसभा में करीब 30 फीसदी मुस्लिम वोटबैंक पर निर्भर रहती है. ओवैसी के एक मजबूत नेता की तरह उभरने से ममता बनर्जी को AIMIM से वोट खोने का खतरा लग रहा है, जबकि भाजपा लगातार पश्चिम बंगाल में अपने लिए रास्ते बनाती जा रही है. ये ओवैसी के उस दावे को सच साबित करता है, जिसमें वो कहते हैं कि वह अकेले ही मुस्लिमों का आवाज उठाने वाले नेता हैं.

Rise of AIMIM leader Asaduddin Owaisiसेकुलर पार्टियां खुद को हिंदू दिखाने लगीं और ओवैसी के लिए राजनीति की जमीन बनती चली गई.

महाराष्ट्र-बिहार में बढ़ी ओवैसी की लोकप्रियता

महाराष्ट्र में ओवैसी की पार्टी AIMIM ने 2019 के विधानसभा चुनाव में 2 सीटें जीतीं, इतनी ही सीटें उसने 2014 में भी जीती थीं, लेकिन वोटिंग पर्सेंटेज इस बार दोगुना हो गया है. ये अलग बात है कि ओवैसी का पार्टी वो दोनों ही सीटें हार गई, जिस पर वह 2014 में चुनाव जीती थी, जो औरंगाबाद केंद्रीय और बाइकला थीं. इस बार उनकी पार्टी धुले सिटी और मालेगांव सेंट्रल सीट जीती है. 2019 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने महाराष्ट्र की 288 सीटों में से 44 सीटों पर चुनाव लड़ा था. दो सीटें तो ओवैसी की पार्टी जीती है और चार सीटों पर दूसरे नंबर की पार्टी रही है.

बिहार में AIMIM किशनगंज विधानसभा उपचुनाव जीत गई, जहां कांग्रेस-आरजेडी का गठबंधन उसके खिलाफ था. पार्टी ने किशनगंज लोकसभा क्षेत्र में लोकसभा चुनाव के दौरान भी अच्छा प्रदर्शन किया था. ओवैसी की पार्टी उत्तर प्रदेश में भी अपनी जमीन तैयार कर रही है, खासकर नगर निकायों में. उत्तर प्रदेश की कई अरबन लोकल बॉडीज में AIMIM के करीब 30 सदस्य हैं.

ओवैसी किशनगंज और आसपास के अररिया और पुर्निया जैसे बिहार और पूर्व उत्तर प्रदेश के इलाकों के दौरे करते रहे हैं. इन जगहों से ओवैसी को पिछले कुछ सालों से अच्छी-खासी प्रतिक्रिया भी मिलती रही. बिहार के मुस्लिम बहुत इलाकों में उनकी रैलियों में भारी संख्या में युवा भी हिस्सा लेते हैं

मुस्लिम युवाओं से उनकी अपील उनकी वाकपटुता के साथ-साथ अंग्रेजी और उर्दू में उनकी फ्लूएंसी की वजह से काफी काम करती है. औवैसी एक वकील हैं, जिन्होंने लंदन स्थित Lincoln's Inn से ट्रेनिंग ली है. यहां से मुहम्मद अली जिन्ना ने भी ट्रेनिंग ली थी.

हिंदुत्व की राजनीति का दूसरा कोना है ओवैसी की राजनीति

भाजपा और सेकुलर पार्टियों से हिंदुत्व वोटर्स की ओर झुकने की वजह से ओवैसी की राजनीति चमकी है. नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकार साथी अमित शाह ने इस बात पर खूब जोर दिया कि सेकुलर पार्टियां मुस्लिमों का साथ देती हैं. ऐसे में सेकुलर पार्टियों ने खुद को थोड़ा पीछे खींच लिया. जैसे, पिछले 5 सालों में कांग्रेस ने मुस्लिमों की पार्टी होने के टैग से मुक्ति पाने की कोशिशें कीं. भाजपा काफी लंब समय से कांग्रेस पर वोटों के लिए मुस्लिमों के तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही है. भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कांग्रेस को टारगेट करने के लिए स्यूडो सेकुलेरिज्म शब्द भी इजात किया था.

जब मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए ये कहा कि राष्ट्रीय सोर्सेस पर पहला दावा अल्पसंख्यकों का है, तो इसके बाद स्यूडो सेकुलेरिज्म शब्द और आरोपों ने कांग्रेस के खिलाफ एक नैरेटिव बनाना शुरू कर दिया. भाजपा ने अपने आरोपों को ताकत देने के लिए मौलानाओं के पुराने बयान तक इस्तेमाल करने शुरू कर दिए, जिसमें दिल्ली की जामा मस्जिद के मौलवी का बयान भी है, जिसमें वह मुस्लिमों से कांग्रेस को वोट देने की अपील करते दिख रहे हैं.

इन सब से भाजपा को अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आक्रामक तरीके से लोगों के बीच लाने का मौका मिला. 2013-14 में राज्य से निकलकर जब मोदी राष्ट्रीय राजनीति में आए तो मुस्लिमों के तुष्टीकरण के खिलाफ खड़े लोगों का साथ भी भाजपा को मिला. इन सबका नतीजा ये हुआ कि जो कांग्रेस मुस्लिम वोटों पर भी काफी हद कर निर्भर करती थी, उसने भी खुद को भाजपा के वोटबैंक जैसी पार्टी दिखाना शुरू कर दिया.

सेकुलर की जगह खाली हो गई

राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण साबित करने की होड़ में काफी आगे निकल गए. उन्होंने खुद को और अपने परिवार को शिवभक्त करार दिया. कैलाश मानसरोवर की यात्रा तक की. हर चुनाव में राहुल गांधी एक मंदिर से दूसरे मंदिर में माथा टेकते नजर आए. उनकी बहन प्रियंका गाधी वाड्रा भी उन्हीं के नक्शे कदम पर चलती दिखीं.

इसके अलावा उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और बिहार में नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड ने भी खुद को मुस्लिम समर्थन पार्टी होने की छवि से दूर कर लिया. इन सभी पार्टियों ने मुस्लिम उम्मीदवारों के चुनावों में टिकट देने कम कर दिया. खुद को सेकुलर कहने वाली पार्टियों के इस रवैये ने एक आम मुस्लिम शख्स को संशय में डाल दिया. अन्य पार्टियों ने मुस्लिमों से दूरी इसीलिए बनाई कि कहीं भाजपा इस बात का राजनीतिक फायदा ना उठा ले. इसी गैप या खाली जगह ने ओवैसी की मदद की और भारत की राजनीति में वह हिंदुत्व की राजनीति जैसा ही मुस्लिम वर्जन लेकर आ गए.

मुस्लिम पहचान वाली राजनीति

जब विश्व हिंदू परिषद के आह्वान और भाजपा के साथ की बदौलत दिसंबर 1992 में अयोध्या में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था, उसके ठीक दो साल बाद ओवैसी ने अपना पहला चुनाव 1994 में लड़ा था. हालांकि, तब तक उनका प्रभाव करीब दो सालों तक सिर्फ हैदराबाद तक सीमित रहा, जहां उनके पिता ने ऑल इंडियन मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) पार्टी के जरिए राजनीति में पकड़ बनाई. ओवैसी का एक मुस्लिम नेता की तरह उदय उन राजनीतिक पार्टियों की वजह से बनी खाली जगह के चलते हुए, जो खुद को सेकुलर कहती थीं. उन्होंने कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों पर हमला बोलना शुरू कर दिया. आरोप लगाए कि भाजपा से डरकर कांग्रेस मुस्लिमों को ब्लैकमेल कर रही है. जैसे-जैसे नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति में चमकते जा रहे हैं, वैसे-वैसे ओवैसी को भी हैदराबाद के बाहर भी लोगों का समर्थन मिलने लगा है.

ओवैसी की बढ़ती लोकप्रियता मुस्लिम वोटों की शिफ्टिंग का एक पैटर्न दिखा रही है. अभी तक मुस्लिम सेकुलर पार्टियों को वोट देना पसंद करते थे, लेकिन अब वह शिफ्ट होता दिख रहा है. अभी तक मुस्लिम वोटर्स की पहली पसंद कांग्रेस, सीपीआई(एम), समाजवादी पार्टी, आरजेडी, जेडीयू और टीएमसी हुआ करते थे. वो अधिकतर उन पार्टियों को वोट देते थे, जो भाजपा के विरोध में लड़ती थीं. लेकिन अब सेकुलर पार्टियों ने खुद को मुस्लिम पार्टी की छवि से अलग क्या किया, ओवैसी को राजनीति करने के लिए जगह मिल गई है.

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लेखक

प्रभाष कुमार दत्ता प्रभाष कुमार दत्ता @prabhashkdutta

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्टेंट एडीटर हैं.

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