संघ और बीजेपी को मुस्लिम समुदाय की अचानक इतनी फिक्र क्यों होने लगी है?
मुख्तार अब्बास नकवी (Mukhtar Abbas Naqvi) यूपी में मुस्लिम समुदाय (Muslim Community) से संपर्क साधने के लिए ताबड़तोड़ दौरे कर रहे हैं और संघ प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) तो मदरसे तक का दौरा करने लगे हैं - क्या 2024 को लेकर संघ और बीजेपी को ज्यादा चिंता हो रही है?
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संघ और बीजेपी को मुस्लिम वोटर (Muslim Community) की परवाह करते अब तक हुए चुनावों में कम ही देखा गया है. पश्चिम बंगाल में एक बार स्थानीय निकायों के चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार आजमाये जरूर गये थे, लेकिन जीते नहीं - और जब भी ये सवाल उठता है, बीजेपी की तरफ से यही बताया जाता है कि जिताऊ उम्मीदवार नहीं मिलते इसीलिए वो टिकट नहीं देती.
मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट न देने की अपनी दलील के साथ बीजेपी अभी तक इतना ही बताती आ रही है कि उसे मुसलमानों से परहेज नहीं है - और ऐसे सवालों के लिए एक रेडीमेड जवाब भी होता है, बीजेपी का स्लोगन जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर ही दोहराते रहते हैं - 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास.'
और कुछ इस स्लोगन का इस्तेमाल हो न हो, अपने विरोधियों पर मुस्लिम तुष्टिकरण की तोहमत जड़ते रहने के दौरान ही, बीजेपी नेतृत्व इसे सेफगार्ड के तौर पर तैयार कर रखा है. जैसे रोड रोलर सड़क पर उबड़ खाबड़ चीजों को बराबर कर देता है, बीजेपी ने सियासत की नुकीली चीजों को समतल करने के मकसद से ये एक सॉफ्ट जुगाड़ तैयार कर रखा है.
बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नकवी (Mukhtar Abbas Naqvi) पिछले कुछ महीनों से यूपी के दौरे पर हैं. हाल ही में मदरसों के सर्वे को लेकर उनका एक बयान चर्चित रहा कि सभी मदरसों पर शक नहीं करना चाहिये. यूपी के कुछ जिलों का वो दौरा कर चुके हैं - और कई और जिलों का दौरा करने वाले हैं. जाहिर है, मुख्तार अब्बास नकवी के दौरे मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में ही होंगे.
और इसी दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत भी लगातार मुस्लिम समुदाय के प्रमुख लोगों से संपर्क बनाये हुए हैं. मुख्तार अब्बास नकवी तो अपनी ड्यूटी पर हैं, मुस्लिम चेहरे के तौर पर अब तक बीजेपी में जो राजनीति करते आये हैं, उसी को आगे बढ़ा रहे हैं. अगर बढ़ाना संभव न हो पा रहा हो तो बनाये रखने की कोशिश होगी.
लेकिन मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) का मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवियों से मिलना. मिलने के लिए खुद चल कर इमामों के संगठन के नेता के पास पहुंचना और फिर मदरसे का दौरा करना दिलचस्पी तो पैदा करता ही है - दिलचस्पी तब तो और भी बढ़ जाती है जब मिलने के दौरान और बाद में भी कोई इमाम संघ प्रमुख को राष्ट्रपिता और राष्ट्रऋषि बताने लगे.
क्या ये सब संघ की तरफ से सेक्युलरिज्म की सियासत के रास्ते चलने का कोई प्रयास है? ये सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि संघ तो सेक्युलर पॉलिटिक्स को सीधे सीधे मुस्लिम तुष्टिकरण से ही जोड़ देता है.
क्या ये वैसी ही राजनीतिक कवायद है जैसी कोशिश बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार की थी. बर्बादियों की वो इबारत उनके लिए तो राजनीतिक ताबूत ही बन गया. भले ही वो अपनी तरफ से कोई उदार छवि पेश करने की कोशिश किये हों? भले ही वो तब के राजनीतिक माहौल में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसा बनने की कोशिश किये हों?
जो मोहन भागवत काफी दिनों से मुस्लिम समुदाय को समझाते रहे हों कि सभी के पूर्वज हिंदू ही थे - और अपनी दलील के साथ ये साबित करने की कोशिश करते हों कि भारत में रहने वाला हर शख्स हिंदू ही है. जो संघ प्रमुख यूपी चुनावों के दौरान घर वापसी कार्यक्रम तेज किये जाने पर जोर देते रहे हों, भला मुस्लिम समुदाय से मिल कर क्या अपेक्षा रखते हैं.
क्या मोहन भागवत की ये मुहिम भी 2019 के आम चुनावों से पहले अमित शाह के संपर्क फॉर समर्थन अभियान जैसा ही है?
मुस्लिम वोटर पर बीजेपी का बढ़ता फोकस
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद बीजेपी के सबसे सीनियर नेता अमित शाह दो दिन के बिहार के दौरे पर हैं. बिहार में भी सीमांचल कहे जाने वाले इलाके में, जहां बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है. एक ऐसा इलाका जहां आकड़ों में बीजेपी बिहार के मौजूदा सत्ताधारी महागठबंधन के मुकाबले काफी कमजोर नजर आती है.
मार्ग अलग अलग हैं, मंजिल एक ही है
जिस वक्त अमित शाह सीमांचल के दौरे पर पहुंचे हैं, केरल में पीएफआई ने बंद की कॉल दी है. बंद के दौरान हिंसा और उत्पात की खबर आ रही है. तिरुवनंतपुरम में पीएफआई कार्यकर्ताओं ने सरकारी बसों और गाड़ियों में तोड़फोड़ भी की है. ये बंद 15 राज्यों में PFI के 93 ठिकानों पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी NIA की छापेमारी के विरोध में बुलाया गया है. एनआईए ने पीएफआई के सौ से ज्यादा कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया है - और ये कार्रवाई अमित शाह के बिहार दौरे से ठीक एक दिन पहले हुआ है.
अमित शाह के दौरे से पहले से ही बीजेपी नेताओं ने पीएफआई को प्रश्रय देने जैसे आरोप लगाते हुए नीतीश कुमार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है. मोर्चा नीतीश कुमार के कट्टर विरोधी रहे केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह संभाले हुए हैं. गिरिराज सिंह ही अमित शाह के दौरे के तमाम इंतजामों की निगरानी कर रहे हैं.
भले ही मुख्तार अब्बास नकवी बीजेपी के अलग मिशन पर हों, मोहन भागवत राष्ट्रनिर्माण के हिसाब से कुछ अच्छा करने के लिए नये सिरे से प्रयास कर रहे हों और अमित शाह उस इलाके में बीजेपी को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हों जहां पार्टी कमजोर नजर आ रही है, लेकिन तीनों ही नेताओं सक्रियता को एक साथ देखें तो उसके केंद्र में मुस्लिम समुदाय ही नजर आता है - ये कोई संयोग तो हो नहीं सकता, ये तो साफ तौर पर राजनीतिक प्रयोग है. है कि नहीं?
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के सीमांचल दौरे को बिहार में बीजेपी के मिशन-2024 की शुरुआत माना जा रहा है - लेकिन अमित शाह का बिहार के सीमांचल को ही 2024 के चुनाव अभियान की शुरुआत के लिए चुनने के पीछे भी तो कोई खास वजह ही रही होगी.
कोई दो राय नहीं कि अमित शाह को बिहार में अपनी बात कहने के लिए एक ऐसी जगह की तलाश रही होगी जहां से वो एनडीए छोड़ कर महागठबंधन के मुख्यमंत्री बन चुके नीतीश कुमार को घेर सकें. जंगलराज के नाम पर नीतीश कुमार के लिए पिछले चुनाव में वोट मांग चुके अमित शाह अब उन पर ही जंगलराज को बढ़ावा देने का इल्जाम मढ़ सकें.
अपने वोटर को समझा सकें कि ये नीतीश कुमार ही हैं जो कुर्सी पर चिपके रहने के लिए 'जंगलराज के युवराज' को साथ लेकर ऐसी राजनीति कर रहे हैं, जिसमें पीएफआई जैसे संगठन की गतिविधियों से आंख मूंद लिया जाता हो.
लेकिन पीएफआई के खिलाफ ऐसी कार्रवाइयों को तो बुलडोजर एक्शन जैसे नजरिये से देखा जाता है. बीजेपी विरोधी राजनीति में ये जोर शोर से समझाने की कोशिश होती है कि यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बुलडोजर के निशाने पर राजनीतिक विरोधी ही होते हैं और पीड़ितों में सबसे ज्यादा मुस्लिम होते हैं. और इसे ही बैलेंस करने के लिए नोएडा के श्रीकांत त्यागी जैसे बीजेपी समर्थकों के खिलाफ भी बुलडोजर एक्शन लिया जाता है.
थोड़ा ध्यान से समझने की कोशिश करें तो अमित शाह, मुख्तार अब्बास नकवी और मोहन भागवत एक साथ ही अलग अलग वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ रहे - और सभी का मकसद 2024 के आम चुनाव की दुश्वारियों को कम करना है, लेकिन सबका तरीका काफी अलग नजर आ रहा है.
लेकिन तीनों के तरीके में फोकस मुस्लिम वोट के इर्द-गिर्द ही है - मुस्लिम के जरिये हिंदू वोट हासिल करने की कवायद है और लगे हाथ मुस्लिम वोट को बांट देने की कोशिश भी लगती है.
मुस्लिम वोट बंटा रहे तो बीजेपी के लिए बेहतर है
मदरसों के सर्वे को लेकर हुए विवाद के बीच मुख्तार अब्बास नकवी का कहना था, हमें सभी मदरसों पर शक नहीं करना चाहिये, लेकिन सर्वे को लेकर बवाल करना खुद सवाल बन जाता है... जब कुछ छिपाने को नहीं है, तो चिल्लाना क्यों?
ऐसा करके मुख्तार अब्बास नकवी ने ये तो मैसेज दे ही दिया कि सभी मदरसे शक के दायरे में नहीं लाये जा सकते. मतलब, कई मदरसे शक के दायरे से बाहर भी नहीं आ सकते. मतलब, कुछ मदरसे तो शक के दायरे में निश्चित तौर पर हैं - ये मदरसों के बंटवारे की राजनीति है और ये काम पार्टी का मुस्लिम चेहरा कर रहा है.
ऐन उसी वक्त संघ प्रमुख एक प्रमुख इमाम के पास पहुंच जाते हैं और ये मैसेज देने की कोशिश होती है कि बीजेपी को सभी इमामों से परहेज नहीं है - ये इमामों के बंटवारे की राजनीति है और ये काम बीजेपी के लिए संघ कर रहा है.
और तभी बंटवारे की राजनीति के बीच में ही सरकार की एंट्री होती है. अमित शाह सीमांचल पहुंचते हैं, जिसके लिए पहले से ही माहौल बनाया जा चुका है. सरकार की आतंकवाद विरोधी जांच एजेंसी पीएफआई की कमर तोड़ डाली होती है. बीजेपी का बड़ा वोट बैंक खुश हो जाता है. सरकार देश से आतंकवाद का सफाया कर रही है.
अब मुख्तार अब्बास नकवी के मदरसों वाले बयान को मुस्लिम समुदाय से जोड़ कर देखिये और समझने की कोशिश कीजिये - आपको साफ साफ समझ में आ जाएगा कि कैसे बीजेपी के वोट बैंक को अलग अलग तरीके से संबोधित करने की कोशिश हो रही है. जो बाद मुख्तार अब्बास नकवी समझा रहे हैं, वही बात मोहन भागवत और अमित शाह भी समझा रहे हैं, सिर्फ तौर तरीका अलग है.
तीनों नेताओं की रणनीति मुख्तार अब्बास नकवी के मदरसे वाली लाइन से समझें तो मालूम होता है - मुस्लिम समुदाय में सभी लोग शक के दायरे दायरे में नहीं लाये जा सकते. मतलब, कुछ ऐसे जरूर हैं जो शक के दायरे से बाहर भी नहीं आ सकते. मतलब, कुछ निश्चित तौर पर शक के दायरे में ही हैं - और फिर बीजेपी के वोटर के सामने कोरस गूंज रहा होता है. सुन रहा है न तू.
संघ प्रमुख मोहन भागवत की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के प्रमुख डॉक्टर उमर अहमद इलियासी के बार में भी कुछ बातें जान लेनी जरूरी हैं. जब देश भर में CAA-NRC को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, तो इलियासी ने बयान जारी करके मुस्लिम समुदाय से अपील की थी कि पहले वे लोग दोनों कानूनों को अच्छी तरह समझ लें और उसके बाद भी कुछ गलत लगे तो शांति के साथ प्रदर्शन करें. इलियासी पहले भी मोहन भागवत से मुलाकात कर चुके हैं - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच भी शेयर कर चुके हैं.
अब जरा यूपी चुनाव के दौरान अमित शाह के बीएसपी की प्रासंगिकता वाले बयान को भी याद कर लीजिये. जब बीजेपी ने महसूस किया कि समाजवादी पार्टी के पक्ष में एकजुट मुस्लिम वोट पड़ रहा है, तो मुस्लिमों को याद दिलाने की कोशिश हुई कि अखिलेश यादव ही नहीं मायावती के रूप में भी उनके सामने विकल्प मौजूद है.
जैसे नतीजे यूपी विधानसभा चुनाव में देखने को मिले थे, आजमगढ़ उपचुनाव का मामला भी वैसा ही सामने आया. पश्चिम बंगाल में हार की वजह बीजेपी ने मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण माना था, मायावती भी बंगाल का भी उदाहरण देती हैं कि मुस्लिम एकजुट हो तो बीजेपी हार जाती है, लेकिन आजमगढ़ में मुस्लिव वोटों का बंटवारा कर बीजेपी की राह आसान कर देती हैं.
अब तो ये आसानी से समझ में आ जाना चाहिये कि मोहन भागवत, मुख्तार अब्बास नकवी और अमित शाह तीनों ही अपने अपने तरीके से मुस्लिम वोटों को बांटने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि ऐसा होने पर ही बीजेपी को फायदा है. हिंदू वोटर तो एकजुट हो नहीं पा रहा है, लिहाजा मुस्लिम वोटर को बांट कर थोड़ा पहुंत बैलेंस तो किया ही जा सकता है.
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