पंजाब CM पद को लेकर सिरफुटव्वल हो रही है, जरा गुजरात में हुआ फेरबदल देखिए!
कुछ समय पहले ही कर्नाटक के सीएम येदियुरप्पा को भी अल्टीमेटम दे दिया गया था. उत्तराखंड में तो दो बार मुख्यमंत्रियों की बदली कर दी गई. असम में फेरबदल की शिकायत दर्ज कराने वाला नेता ढूंढने पर भी नहीं मिला. इतना ही नहीं मोदी कैबिनेट विस्तार से पहले भाजपा के कई बड़े नामों के इस्तीफे हुए लेकिन सब कुछ शांति से हो गया.
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पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले सीएम अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच चल रही तकरार किसी से छिपी नहीं है. कांग्रेस (Congress) नेतृत्व जैसे-तैसे इस बवाल को थामने की कोशिश में है. वहीं, हर गुजरते दिन के साथ मुख्यमंत्री (Chief Minister) बदलने की मांग लगातार कोई न कोई विधायक या नेता उठा ही रहा है. इससे इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के गृहराज्य गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी (Vijay Rupani) के इस्तीफे से लेकर बड़े-बड़े नामों की लिस्ट से अलग पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल (Bhupendra Patel) को सीएम की कुर्सी मिलने तक की इस पूरी प्रक्रिया में राजनीति के हर दांव-पेंच देखने को मिले. पाटीदार समुदाय से आने वाले भूपेंद्र पटेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद डिप्टी सीएम नितिन पटेल की कुर्सी जाना भी लगभग तय हो चुका है.
वहीं, नितिन पटेल की नाराजगी की खबर सामने आने के बाद उन्होंने खुद मीडिया के सामने कहा कि मैं दुखी नही हूं. पार्टी में पद मिले या नहीं, लोगों की सेवा करता रहूंगा. कुछ समय पहले ही कर्नाटक के सीएम बीएस येदियुरप्पा को भी अल्टीमेटम दे दिया गया था. उत्तराखंड में तो दो बार मुख्यमंत्रियों की बदली कर दी गई. असम में भी सर्वानंद सोनोवाल को हटाकर हिमंता बिस्वा सरमा को सीएम घोषित किए जाने पर भाजपा में कोई शिकायत दर्ज कराने वाला नेता ढूंढने पर भी नहीं मिला. इतना ही नहीं मोदी कैबिनेट विस्तार से पहले भाजपा के कई बड़े नामों के इस्तीफे हुए लेकिन सब कुछ शांति से हो गया. कहीं से भी नाराजगी, बगावत, असंतोष जैसे शब्द सुनाई नहीं दिए.
मोदी कैबिनेट विस्तार से पहले भाजपा के कई बकेड़े नामों इस्तीफे हुए लेकिन सब कुछ शांति से हो गया.
मजबूत केंद्रीय नेतृत्व का संकेत
नरेंद्र मोदी की शासन क्षमता का अंदाजा उनके गुजरात के मुख्यमंत्रित्व काल में ही सामने आ गया था. राज्य को चलाने के साथ ही उन्होंने पार्टी संगठन पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी थी. वहीं, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री और अमित शाह के भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के साथ ही पार्टी की कमान पूरी तरह से इस जोड़ी के हाथ में आ गई. 2014 में आई मोदी लहर पर सवार भाजपा ने कई राज्यों में अपने दम पर तो कहीं एनडीए सहयोगियों के साथ मिलकर सरकारें बनाईं. वहीं, 2019 के आम चुनाव से पहले भाजपा को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में बड़ा झटका लगा. इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में उसके प्रदर्शन पर कोई असर नहीं पड़ा. उल्टा भाजपा की लोकसभा सीटों की संख्या में कुछ और सीटें जुड़ गईं.
नरेंद्र मोदी की छवि एक कुशल प्रशासक की है और गृह मंत्री अमित शाह अभी भी पर्दे के पीछे से भाजपा के चाणक्य बने हुए हैं. उत्तर भारत के सभी राज्यों में भाजपा का चेहरा नरेंद्र मोदी ही रहे हैं. हर राज्य के संगठन पर मोदी-शाह की जोड़ी की छाप नजर आती है. उत्तर प्रदेश और सीएम योगी आदित्यनाथ को छोड़ दिया जाए, तो प्रदेश में संगठन से लेकर सरकार में मंत्रियों तक के नाम पर केंद्रीय नेतृत्व ही मुहर लगाता है.
भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व फैसले लेने में कांग्रेस की तरह देरी नही लगाता है.
वहीं, भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व फैसले लेने में कांग्रेस की तरह देरी नही लगाता है. कांग्रेस जहां हालातों के बिगड़ने का इंतजार करती हुई नजर आती है. वहीं, भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व तुरंत एक्शन में विश्वास करता है. पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू और अमरिंदर सिंह के बीच हालात बुरी तरह बिगड़ने के बाद कांग्रेस आलाकमान अपनी चिर निद्रा से जागा. राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच चल रही अघोषित जंग का हल अभी तक नहीं निकल सका है. छत्तीसगढ़ में सीएम भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच सियासी खींचतान लंबे समय से जारी है.
कुल मिलाकर कांग्रेस फैसले लेने में कमजोर दिखाई पड़ती है. लेकिन, भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व चुनाव के लिहाज से किसी भी तरह का 'लूप होल' छोड़ने का हिमायती नहीं है. राजस्थान में पूर्व सीएम वसुंधरा राजे भाजपा आलाकमान पर लंबे समय से दबाव बनाने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन, शीर्ष नेतृत्व वसुंधरा राजे के दबाव में नजर नहीं आता है. इससे उलट राजस्थान में नया राज्य स्तरीय नेतृत्व तैयार करने की कोशिशें हो रही हैं. अन्य राज्यों में भी भाजपा का शीर्ष नेतृत्व किसी एक चेहरे पर काम नहीं करता है.
आरएसएस का होमवर्क
इससे इतर भाजपा के पास सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस. शायद ही कोई भूला होगा कि 2018 में हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले आरएसएस की एक लिस्ट सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई थी. इस लिस्ट में आरएसएस की ओर से संभावना जताई गई थी कि मध्य प्रदेश में भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज रही है. आरएसएस की इस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि कई मंत्रियों को हार का सामना कर पड़ सकता है. नतीजे सामने आए, तो संघ की इस लिस्ट पर तकरीबन मुहर लग गई. आरएसएस की इस लिस्ट में शामिल कई मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा और भाजपा प्रदेश की सत्ता से भी बाहर हो गई. हालांकि, ऑपरेशन लोटस के तहत ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद मध्य प्रदेश की सत्ता में पार्टी ने वापसी कर ली. लेकिन, ये भी तय माना जा रहा है कि 2024 के आम चुनाव से पहले होने वाले मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में सीएम शिवराज सिंह चौहान को झटका दिया जा सकता है. और, इसके पीछे संघ की जमीनी स्तर पर किए जाने वाले सर्वे ही मुख्य आधार कहे जाते हैं.
दरअसल, भाजपा शासित प्रदेशों के साथ ही अन्य राज्यों (जहां भाजपा की उपस्थिति नगण्य है) में भी संघ अपनी उपस्थिति को मजबूती से दर्शाता रहा है. पूर्वोत्तर राज्यों से कांग्रेस का सफाया होने की एक बड़ी वजह आरएसएस के जमीनी स्तर पर की गई मेहनत को माना जा सकता है. भाजपा का संगठन एक पार्टी के तौर पर राज्यों के राजनीतिक हालातों पर नजर बनाए रखता है. लेकिन, संघ तकरीबन हर राज्य में सामाजिक स्तर पर जमीनी काम करने के लिए जाना जाता है. सत्ता से दूर रहने वाले संघ से समय-समय पर कुछ नेता भाजपा में कई पदों पर नजर आते हैं. जिनका एकमात्र उद्देश्य ही यही होता है कि पार्टी में असंतोष को पहले भांप लेना. उत्तर प्रदेश के मुखिया योगी आदित्यनाथ के खिलाफ उठ रही आवाजों को सामने आते ही संघ तत्काल प्रभाव से एक्टिव हो गया था. भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने भी असंतोष के स्वरों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस तरह विधानसभा चुनाव से लंबे समय पहले ही सारा असंतोष आरएसएस के होमवर्क से खत्म कर दिया गया.
भाजपा शासित प्रदेशों के साथ ही अन्य राज्यों में भी संघ अपनी उपस्थिति को मजबूती से दर्शाता रहा है.
इतना तो कहा ही जा सकता है कि कोई भी पार्टी चुनावों में मजबूत प्रदर्शन तब तक नहीं कर सकती है, जब तक उसका संगठन दुरुस्त न हो. और, भाजपा के साथ ये समस्या कभी आड़े आती नहीं दिखती है. भाजपा और संघ के पास जमीनी कार्यकर्ता से लेकर नेताओं की एक समर्पित फौज है. जो केवल पार्टी के लिए काम करती है, चाहे वो सत्ता में हों या नहीं. और, ये नेता आमतौर पर भटककर किसी अन्य पार्टी में शामिल होते हुए भी दिखाई नहीं देते हैं. ऐसे समर्पित कार्यकर्ताओं और नेताओं को संगठन में लाने के लिए संघ और भाजपा ने कई दशकों का समय खपाया है. वैसे, पश्चिम बंगाल इस मामले में अपवाद कहा जा सकता है. लेकिन, यहां भी संघ ने दूसरी पार्टी से आने वाले नेताओं पर कुछ खास भरोसा नहीं जताया था. हालांकि, बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा ने हर राज्य में संगठन को दुरुस्त करने में तेजी दिखाई है. भाजपा फिर से विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अपना पिछला प्रदर्शन दोहराने के लिए अभी से कमर कस चुकी है. जबकि, कांग्रेस आलाकमान पार्टी संगठन से लेकर राज्यों में आपसी खींचतान से जूझता हुआ नजर आ रहा है.
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