इराक-लीबिया की तरह दुनिया क्या यूक्रेन युद्ध का नतीजा मंजूर करेगी?
पुतिन की फ्रांस के राष्ट्रपति से हुई हालिया बातचीत इशारा करती है कि वार्ता में देरी रूस (Russia) को यूक्रेन (Ukraine) पर पूरी तरह से कब्जा करने के लिए उकसा रही है. बहुत हद तक संभव है कि आने वाले दिनों में राष्ट्रपति जेलेंस्की के खिलाफ भी लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी (Muammar Gaddafi) और इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन (Saddam Hussein) के विरुद्ध उपजा 'विद्रोह' देखने को मिल सकता है.
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रूस-यूक्रेन युद्ध की विभीषिका लगातार बढ़ती जा रही है. लगातार की जा रही बमबारी और मिसाइलों के हमलों ने यूक्रेन के कई शहरों को तबाह कर दिया है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन किसी भी हाल में यूक्रेन में जारी जंग को खत्म करने के मूड में नजर नहीं आ रहे हैं. वहीं, यूक्रेन के राष्ट्रपति वलाडिमीर जेलेंस्की भी रूस के आगे झुकने को तैयार नही हैं. पुतिन की फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से हुई हालिया बातचीत के मद्देनजर कहा जा सकता है कि वलाडिमीर जेलेंस्की की ओर से वार्ता को लेकर की जा रही देरी रूस को यूक्रेन पर पूरी तरह से कब्जा करने के लिए उकसा रही है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो रूस का रुख देखते हुए बहुत हद तक संभव है कि आने वाले दिनों में राष्ट्रपति जेलेंस्की के खिलाफ भी लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी और इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के विरुद्ध उपजा 'विद्रोह' देखने को मिल सकता है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि इराक और लीबिया की तरह दुनिया क्या यूक्रेन में होने वाले फैसले को मंजूर करेगी?
पुतिन की फ्रांस के राष्ट्रपति से हुई हालिया बातचीत इशारा करती है कि वार्ता में देरी रूस को यूक्रेन पर पूरी तरह से कब्जा करने के लिए उकसा रही है.
पश्चिमी देशों के नैरेटिव को कौन समझ पाया है?
2011 में अरब स्प्रिंग के दौरान सैन्य संगठन नाटो की अगुवाई में ब्रिटेन , फ्रांस और अमेरिका ने लीबिया पर हवाई हमले किये. आसान शब्दों में कहा जाए, तो अरब स्प्रिंग अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के लिए एक मौके के तौर पर उभरा. और, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे पश्चिमी देशों ने लीबिया के लोगों को मुअम्मर गद्दाफी के क्रूर शासन से बचाने का फैसला कर लिया. क्योंकि, इस तरह का 'सुप्रीम पावर' केवल पश्चिमी देशों और खासकर अमेरिका के पास है. पश्चिमी देशों की दूसरे देशों में की गई इस घुसपैठ को 9/11 के हमले के बाद अमेरिका द्वारा शुरू किए गए 'ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम' का एक हिस्सा माना जा सकता है. क्योंकि, लीबिया में भी अमेरिका ने वही किया, जो उसने इराक में किया था. कहा जा सकता है कि अरब स्प्रिंग को पश्चिमी देशों ने पर्दे के पीछे रहते हुए निरंकुश शासकों के खिलाफ विद्रोह को भड़काने के तौर पर इस्तेमाल किया. क्योंकि, अमेरिका की नजर इन हिस्सों के अकूत तेल भंडारों पर थी.
लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी या इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन का समर्थन शायद ही कोई कर सकता है. लेकिन, पश्चिमी देशों में बसे सुप्रीम पावर होने के दंभ के भी कई रूप इस अरब स्प्रिंग ने साफ किए थे. दरअसल, अरब स्प्रिंग के दौरान बहरीन में अल-खलीफा परिवार के शासन के खिलाफ पश्चिमी देश चुप रहे थे. क्योंकि, बहरीन का साथ देकर पर्शियन गल्फ के रास्ते ईरान पर नजर रखी जा सकती थी. यमन के तानाशाह अली अब्दुल्लाह सालेह को अलकायदा के खिलाफ एक अच्छे सहयोगी थे, तो अमेरिका यमन को लेकर शांत रहा. मिस्त्र के तानाशाह राष्ट्रपति होस्नी मुबारक पर अमेरिका ने लंबे समय तक शांति क्यों बनाए रखी थी. जब ये तय हो गया कि होस्नी मुबारक के हाथ में कुछ नहीं रह गया है, तब ही पश्चिमी देशों को आंदोलनकारियों की याद क्यों आई. लब्बोलुआब यही है कि अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के हितों का ख्याल रखने वाले, मुनाफे का सौदा और उनके साथ हर तरह की स्थिति में अपना समर्थन बनाए रखने वालों के लिए ही पश्चिमी देश आगे आते हैं.
सद्दाम हुसैन की मौत के साथ खत्म हुआ खाड़ी युद्ध?
20वीं सदी से 21वीं सदी तक मध्य-पूर्व में सबसे लंबे समय तक चले खाड़ी युद्ध यानी गल्फ वॉर में यूं तो ईरान और इराक आमने-सामने थे. लेकिन, इराक को अमेरिका का साथ मिला हुआ था. आसान शब्दों में कहा जाए, तो इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन को अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों का का समर्थन प्राप्त था. क्योंकि, पश्चिमी देशों को डर था कि ईरान की सत्ता पर काबिज होने वाला आयतुल्लाह खुमैनी इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा देगा. पश्चिमी देशों ने इराक को चरमपंथ का समर्थन करने वाले देशों की लिस्ट से भी हटा दिया था. 1988 में जब यह युद्ध समाप्त हुआ था, तब तक करीब पांच लाख लोगों की जान जा चुकी थी. हालांकि, कहा जाता है कि मौतों का आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा था. खैर, इस खाड़ी युद्ध में इराक को कुवैत ने भी कर्ज के तौर पर खूब पैसा मुहैया कराया था. जंग खत्म होने के बाद जब कुवैत ने इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन पर कर्ज वापसी का दबाव बनाया. तो, इराक ने कर्ज माफी का प्रस्ताव दिया. जिस पर कुवैत की ओर से सहमति नहीं बन सकी. और, इरान ने कुवैत पर हमला कर दो दिनों के अंदर वहां पर कब्जा कर लिया.
यहां दिलचस्प बात ये है कि कुवैत पर हमला करने से पहले सद्दाम हुसैन ने अमेरिका से बात की थी. दरअसल, सद्दाम हुसैन ने कुवैत के साथ अपने सीमा विवाद को लेकर अमेरिका की तत्कालीन राजदूत एप्रिल ग्लैसपी के साथ मुलाकात की थी. इस सीमा विवाद पर एप्रिल ग्लैसपी की ओर से कहा गया कि इराक और कुवैत के सीमा विवाद दो देशों के बीच का मामला है और इसका अमेरिका से कोई लेना-देना नहीं है. अमेरिकी राजदूत की बात सुनकर सद्दाम हुसैन ने मान लिया कि पश्चिमी देश इस सीमा विवाद में नही कूदेंगे. लेकिन, इसके उलट कुवैत पर हमला करने के बाद अमेरिका और सैन्य संगठन नाटो ने इराक के खिलाफ 'ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म' शुरू कर दिया. आखिरकार पश्चिमी देशों ने कुवैत को इराक के कब्जे आजाद करा दिया. और, कुवैत के 'तेल के कुंओं' पर पश्चिमी देशों का प्रभाव स्थापित हो गया. अमेरिका ने खुद पर हुए 9/11 के आतंकी हमलों के बाद तालिबान को खत्म करने के लिए 'ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम' के तहत अफगानिस्तान में एंट्री ली थी. लेकिन, अमेरिका की यह एंट्री केवल अफगानिस्तान तक ही सीमित नहीं रही.
2003 में अमेरिका और अन्य सहयोगी पश्चिमी देशों ने इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन पर 'वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन यानी जैविक और रासायनिक हथियार' रखने का आरोप लगाते हुए युद्ध छेड़ दिया. महज तीन हफ्तों के अंदर ही अमेरिका और सहयोगी देशों की फौजों ने सद्दाम हुसैन के शासन का अंत कर दिया. इस 'अमेरिकी युद्ध' में एक लाख से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. 2006 में सद्दाम हुसैन को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया. और मान लिया गया कि खाड़ी युद्ध समाप्त हो गया है. हालांकि, अमेरिका को इराक में वेपन ऑफ मास डिस्ट्रकशन नहीं मिल पाया. वहीं, सद्दाम हुसैन की मौत के बाद इराक में इस्लामिक चरमपंथियों का उदय हुआ. और, कट्टरपंथी इस्लामिक समूह आईएसआईएस का प्रभाव बढ़ा. जिसे खत्म करने के लिए पश्चिमी देशों की सेना इराक में बनी रही. एक दशक से ज्यादा समय तक आईएसआईएस के खिलाफ पश्चिमी देशों की सेनाओं की जंग जारी रही. फिलहाल कहा जाता है कि आईएसआईएस संगठन खत्म हो चुका है. लेकिन, अभी भी सीरिया के कुछ हिस्सों में आईएसआईएस का कब्जा माना जाता है.
अफ्रीकी देश लीबिया में मुअम्मर गद्दाफी का अंत
मध्य पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका में श्रृंखलाबद्ध विरोध-प्रदर्शन, धरनों का दौर शुरू हुआ, जिसे अरब स्प्रिंग के नाम से जाना जाता है. 2011 में लीबिया के पूर्वी हिस्से में तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा और सशस्त्र विरोध-प्रदर्शन होने लगे. मुअम्मर गद्दाफी के खिलाफ नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल यानी एनटीसी ने हथियार उठाए. और, इसमें एनटीसी को सैन्य संगठन नाटो का साथ मिला. आसान शब्दों में कहा जाए, तो इसे भी 'ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम' का एक हिस्सा माना जा सकता है. क्योंकि, लीबिया में भी अमेरिका ने वही किया, जो उसने इराक में किया था. कहा जा सकता है कि अरब स्प्रिंग को पश्चिमी देशों ने पर्दे के पीछे रहते हुए निरंकुश शासकों के खिलाफ विद्रोह को भड़काने के तौर पर इस्तेमाल किया. क्योंकि, अमेरिका की नजर इन हिस्सों के अकूत तेल भंडारों पर थी. और, लीबिया पर तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी का दशकों से चला आ रहा शासन पश्चिमी देशों को खटकने लगा था. क्योंकि, गद्दाफी ने सत्ता संभालने के साथ ही अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों के सैन्य ठिकानों पर रोक लगा दी थी.
अरब स्प्रिंग अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के लिए एक मौके के तौर पर उभरा. और, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे पश्चिमी देशों ने लीबिया के लोगों को मुअम्मर गद्दाफी के क्रूर शासन से बचाने का फैसला कर लिया. क्योंकि, इस तरह का 'सुप्रीम पावर' केवल पश्चिमी देशों और खासकर अमेरिका के पास है. गद्दाफी ने पश्चिमी देशों से दूरी बनाई और मध्य-पूर्व अफ्रीकी देशों से संबंध सुधारने की ओर बढ़ गया. गद्दाफी की अमेरिकी हित विरोधी नीति को देखते हुए सैन्य संगठन नाटो ने लीबिया पर हमला बोल दिया. लीबिया में एनटीसी को नाटो ने खुलकर समर्थन किया. जिसने मुअम्मर गद्दाफी को उसके गृहनगर सिर्त में घेरकर मौत के घाट उतार दिया. मौत से पहले नाटो ने गद्दाफी के काफिले पर हवाई हमला किया था. इस हमले से बचकर गद्दाफी और उनके सैनिक पास की सीवरलाइन में छिप गए थे. जहां से एनटीसी के विद्रोहियों ने बुरी तरह से घायल गद्दाफी को पकड़ लिया था. लेकिन, कुछ ही समय बाद मुअम्मर गद्दाफी के सिर में एक गोली ने अपना ठिकाना बना लिया था. वैसे, नाटो के शांति स्थापित करने के बाद भी लीबिया दो टुकड़ों में बंट गया. पश्चिमी हिस्से में संयुक्त राष्ट्र समर्थित सरकार चल रही है.
यूक्रेन को कुछ भी नहीं मिलेगा?
पश्चिमी देशों का सबसे बड़े झंडाबरदार अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति कहा जाता है. संयुक्त राष्ट्र से लेकर दुनिया के छोटे से छोटे देश में भी अपना प्रभाव रखने वाले अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद से पूरी तरह से चर्चाओं से बाहर हैं. जबकि, रूस-यूक्रेन युद्ध को परोक्ष रूप से छेड़ने में अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देश पर्दे के पीछे के खिलाड़ी थे. यूक्रेन को नाटो सैन्य संगठन की सदस्यता देने का भरोसा दिलाकर रूस के खिलाफ भड़काने वाले ये पश्चिमी देश अब रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद सख्त प्रतिबंधों, कड़ी निंदा और यूक्रेन को हथियारों की भरपूर सप्लाई कर रहे हैं. इन देशों ने रूस-यूक्रेन के बीच जारी जंग में उतरने से सीधे तौर पर इनकार कर दिया है. वैसे यहां बताना जरूरी है कि अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देश रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ने से पहले ही यूक्रेन से अपने नागरिकों को निकाल चुके थे. और, अब दूर से बैठकर युद्ध विभीषिका पर अपनी कूटनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं.
यहां तक कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वलाडिमीर जेलेंस्की ने अमेरिका और सैन्य संगठन नाटो पर भी इस एप्रोच को लेकर तंज किया था कि 'मुसीबत की इस घड़ी में सभी हमें छोड़कर चले गए हैं. डर की वजह से इन देशों ने हमारा साथ नहीं दिया.' अब यहां शायद ही ये बताने की जरूरत होगी कि जेलेंस्की के निशाने पर कौन से देश थे. इसके कुछ समय बाद ही अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन कहते नजर आए कि जेलेंस्की से बात हुई है और यूक्रेन को हरसंभव मानवीय सहायता पहुंचाई जाएगी. लेकिन, पश्चिमी देशों का यूक्रेन के साथ किसी तरह का व्यापारिक हित नहीं जुड़ा है. न ही यूक्रेन के पास तेल के अकूत भंडार हैं, जो पश्चिमी देशों को रूस के खिलाफ जंग में उतरने के लिए बाध्य कर सकें. हां, रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाकर दुनिया को ये संदेश जरूर दे दिया गया है कि इस युद्ध का असली विलेन रूस ही है. बहुत हद तक संभव है कि यूक्रेन का हाल भी लीबिया और इराक की तरह हो जाए. और, जेलेंस्की के साथ जो होगा, क्या इस फैसले को दुनिया स्वीकार कर पाएगी?
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