साध्वी प्रज्ञा का फैसला वोटरों को ही करना है, लेकिन वो करेंगे नहीं
साध्वी प्रज्ञा के नामांकन को किसी भी तरह से गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता. वो तब तक चुनाव लड़ सकती हैं और जीत भी सकती हैं और सांसद भी बन सकती हैं जब तक उनपर आरोप सिद्ध नहीं हो जाते.
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लोकसभा चुनाव 2019 धीरे-धीरे एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जिसमें न सिर्फ विवाद बल्कि कुछ अपवाद भी शामिल हैं. जहां एक ओर देश में आतंकवाद को लेकर एक नए तरीके का विद्रोह है वहीं दूसरी ओर भोपाल में एक नई बहस ने जन्म ले लिया है. भाजपा की प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार घोषित करने को लेकर एक वर्ग में गुस्सा देखा जा सकता है वहीं एक अहम सवाल ये है कि भाजपा ऐसा क्यों कर रही है?
इसका जवाब सीधा सा है. भाजपा इस चुनाव को अपने रिकॉर्ड के आधार पर नहीं बल्कि ये चुनाव तो राष्ट्रवादी और बहुसंख्यक भावनाओं को ध्यान में रखकर लड़ा जा रहा है. पोलिंग के पहले चरण में भाजपा की नीति एंटी-पाकिस्तान रही है और साथ ही राष्ट्रवादी अपील भाजपा के चुनाव प्रचार का हिस्सा रही है. बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद ये दिखाना बहुत आसान हो गया था कि पाकिस्तान एक खतरा है और नरेंद्र मोदी को इस तरह से दिखाया गया था कि वो ही एक ऐसे इंसान हैं जो पाकिस्तान को सबक सिखा सकते हैं.
हालांकि, अब बालाकोट की याद धुंधली सी होती जा रही है और अब चुनावी प्रचार पाकिस्तान से बदलकर भारतीय मुसलमानों की ओर बढ़ चला है. अब भाजपा अधिकारियों की हालिया टिप्पणियां ही देख लीजिए, प्रधानमंत्री से लेकर पार्टी अध्यक्ष तक सभी या तो हिंदू-सांप्रदायिक भावना को बढ़ावा दे रहे हैं या फिर मुस्लिम समुदाय पर किसी न किसी तरह से हमला बोल रहे हैं. दिगविजय सिंह के सामने साध्वी प्रज्ञा को खड़ा करने का यही कारण है.
पूरे चुनाव प्रचार के दौरान वो इसी बात को ऊपर उठाएंगी कि वो एक पवित्र हिंदू स्त्री हैं जिन्हें फंसाया गया है, और टॉर्चर किया गया है, और ये सब कुछ यूपीए सरकार के दौरान ही हुआ है. भाजपा ये कहेगी कि यूपीए सरकार हिंदुओं को आतंकवादियों की तरह दिखाना चाहती थी ताकि मुसलमानों (जिन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है) की तरफ से ध्यान हट सके.
भारत के कानून के हिसाब से साध्वी प्रज्ञा चुनाव लड़ भी सकती हैं, जीत भी सकती हैं और एमएलए बन भी सकती हैं. वो तब तक दोषी नहीं हैं जब तक आतंकवाद के आरोप सिद्ध नहीं हो जाते.
प्रज्ञा के विपक्ष में खड़े दिग्विजय सिंह एक ऐसे हिंदू हैं जिनकी पूजा और नर्मदा यात्रा बहुत प्रसिद्ध है, लेकिन भाजपा ने उन्हें एक ऐसा व्यक्ति साबित कर दिया है जो मुस्लिम आतंकवादियों के साथ है (खास तौर पर ओसामा बिन लादेन को ओसामा जी कहने की बात पर), और ये बेकसूर हिंदुओं को फंसाने और आतंकवादी साबित करने से भी पीछे नहीं हटेंगे क्योंकि उन्हें मुस्लिम समुदाय की मदद करनी है.
लॉजिक कहता है कि न सिर्फ प्रज्ञा जीतेंगी बल्कि भोपाल से आने वाला कोई भी भाजपा प्रत्याशी जीत जाएगा. भाजपा के लिए भोपाल एक सबसे सुरक्षित सीट है और पिछले आम चुनावों में भाजपा ने 60% सीटें जीती थीं. तो साध्वी प्रज्ञा का चुनाव इसलिए किया गया है ताकि न सिर्फ भोपाल में जीत मिले बल्कि पूरे हिंदुस्तान के हिंदुओं को ये याद दिलाया जा सके कि साध्वी के साथ कितना 'अन्याय' हुआ है.
क्या इस बात से फर्क पड़ता है कि उनपर आतंकवाद का आरोप है? हां, बिलकुल. यहां तक कि भाजपा भी जानती है कि इस बात से फर्क पड़ता है. नहीं तो उनके केस से जुड़े कई झूठ नहीं फैलाए जा रहे होते कि वो बाइज्जत बरी कर दी गई थीं (ऐसा नहीं है).
ये हमें दूसरे मुद्दे की तरफ ले जाता है. भाजपा के विरोधियों ने कहा है कि वो लोग जिनपर आतंकवाद का आरोप लगाया गया है उन्हें चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए. या, कम से कम चुनाव आयोग को तो इस मामले में कुछ करना चाहिए और नामांकन को रद्द कर देना चाहिए.
इस मामले को ठीक से समझने के लिए हमें एक मिनट के लिए प्रज्ञा को भूलकर कश्मीर के बारे में सोचना होगा. जैसा कि महबूबा मुफ्ती ने ट्वीट में लिखा कि, 'हममें से कोई भी (भाजपा खुद) कैसा बर्ताव करती अगर पीडीपी ने किसी ऐसे इंसान को टिकट दिया होता जिसे पुलिस ने आतंकवादी कहा होता और उसपर आतंकवाद के आरोप लगे होते.'
Imagine the anger if I’d field a terror accused. Channels would’ve gone berserk by now trending a mehboobaterrorist hashtag! According to these guys terror has no religion when it comes to saffron fanatics but otherwise all Muslims are terrorists. Guilty until proven innocent https://t.co/ymTumxgty7
— Mehbooba Mufti (@MehboobaMufti) April 17, 2019
जाहिर सी बात है कि इस मामले में जिस इंसान को टिकट दिया गया है उसे देशद्रोही कहा जाता.
पर यहां ये बात भी ध्यान में रखने वाली है कि कानून साफ कहता है: अगर किसी जुर्म के लिए दोषी नहीं पाए गए हैं तो आप चुनाव लड़ सकते हैं. और साध्वी प्रज्ञा को दोषी करार नहीं दिया गया है.
भाजपा के विरोधियों का कहना है कि इस नियम में कम से कम आतंकवादियों के लिए तो बदलाव होना चाहिए. आखिर एक बार आतंकवादियों ने चुनाव लड़ना शुरू कर दिया तो फिर ये कहां रुकेगा?
पर ये इतना आसान भी नहीं है. एक बार अगर लोगों को शक की बिनाह पर बेगुनाह मानना बंद कर दिया गया तो ये कई लोगों पर फालतू आतंकवाद के आरोपों के लिए रास्ता खोल देगा. साध्वी प्रज्ञा एक गलत उदाहरण हो सकती हैं, लेकिन क्या होगा अगर भाजपा सरकार ने कन्हैया कुमार पर आतंकवाद के आरोप लगाने शुरू कर दिए? क्या होगा अगर वामपंथी बुद्धिजीवियों पर आतंकवाद के आरोप लगने लगेंगे क्योंकि वो माओवादियों के प्रति संवेदना रखते हैं.
तब ऐसा नहीं होगा कि जो लिबरल अभी प्रज्ञा के चुनाव में खड़े होने को लेकर हंगामा खड़ा कर रहे हैं वो तब और भड़क जाएं, जब उन्हें पता चले कि बेकसूर लोगों को चुनाव लड़ने का हक नहीं दिया जा रहा है क्योंकि कुछ आरोप हैं उनपर.
और क्या इससे क्रूर सरकारों को विपक्षियों पर आतंकवाद के आरोप लगाने का मौका मिल जाएगा ताकि उन्हें चुनाव प्रक्रिया से ही हटा दिया जाए.
पहले भी हो चुका है ऐसा-
चलिए अपने ही देश का एक उदाहरण ले लिया जाए. 1976 के आपातकाल के दौर में जॉर्ज फर्नांडिस एक ऐसे हिंसक अभियान का हिस्सा थे जिसमें तत्कालीन सरकार को सत्ता से हटाने की चाह थी. उनपर उस काम का इल्जाम था जिसे अभी पूरी तरह से आतंकवाद कहा जाएगा. उनपर आरोप था डायनामाइट ब्लास्ट की तैयारी करने का और ट्रेन ट्रैक उड़ा देने का.
जब 1977 में आम चुनाव हुए थे तो जॉर्ज फर्नांडिस ने जेल से ही चुनाव लड़ा था और जीते भी थे. इंदिरा गांधी की सरकार हार चुकी थी और उस समय इस केस को फर्जी करार दे दिया गया था (ये हो भी सकता था और नहीं भी.) तब फर्नांडिस यूनियन मिनिस्टर बना दिए गए थे.
तो अगर ऐसे नियम पहले ही बन गए होते कि आतंकवाद के आरोपों वाला कोई भी इंसान चुनावों में नहीं खड़ा हो सकता तो उस समय फर्नांडिस कभी चुनाव नहीं लड़ पाते. तो जितना घिनौना आतंकवाद है ऐसे ही लिबरल समाज के लिए 'बेकसूर' वाले कॉन्सेप्ट को नजरअंदाज करना भी गलत है.
ऐसे में एक मुसीबत और खड़ी है-
किसी भी समाज में किसी पुरुष या महिला को जिनके खिलाफ आतंकवाद के विश्वसनीय आरोप हैं (और प्रज्ञा के खिलाफ आरोपों को लिखित तौर पर दर्ज किया जा चुका है) को मतदाता द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. सार्वजनिक रूप से इतना विद्रोह होना चाहिए कि ऐसे उम्मीदवार को वोट मिलने ही नहीं चाहिए.
पर मुसीबत ये है कि भारत में ये सच नहीं हो सकता. भले ही आरोप कितने भी संगीन क्यों न हों, लेकिन प्रज्ञा के जीतने की काफी उम्मीद है. हो सकता है कि खुद प्रधानमंत्री भी उनके लिए चुनाव प्रचार करें और सरकारी और गैर-सरकारी टीवी चैनल प्रज्ञा को एक पूरी तरह से इज्जतदार चुनाव प्रत्याशी की तरह पेश करें और उन्हें पब्लिसिटी का ऑक्सीजन दे दिया जाए.
यही तो असली समस्या है.
फिलहाल भारतीय समाज का ध्रुवीकरण इतना कट्टर हो चुका है कि समाज के लोग ऐसे इंसान को भी वोट देने को तैयार हो जाएंगे जिसपर आतंकवाद का आरोप लगा है और ये मानेंगे कि ये आतंकवाद तो उनके समुदाय के हित के लिए किया गया था.
जब तक ये नहीं बदलता तब तक भले ही कितने भी नियम बदल लिए जाएं और कितनी भी लिबरल विद्रोह की खबरें आएं, कोई बदलाव नहीं हो सकता और न ही कानून और न ही नामांकन समस्या है. बल्कि समस्या तो वोटर हैं.
(यह स्टोरी DailyO के लिए पत्रकार वीर संघवी ने लिखी है, जिसका iChowk.in के लिए हिंदी अनुवाद श्रुति दीक्षित ने किया है.)
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