'सेक्युलरवाद' के जरिए राजनीतिक पार्टियों का फायदा तो है!
भारतीय सेक्युलरवाद दैवी बनाम सांसारिक न हो कर सर्वधर्मसमभाव का है. यह बहुलता के प्रति सहनशीलता और राज करने के नियमित सिद्धांत के रूप में मान्यता देने का है. पर भारतीय और पश्चिमी सेक्युलरवाद में फर्क करने का मतलब यह नहीं है कि हम राज्य की सेक्युलर पहचान पर ही सवाल उठाना शुरू कर दें.
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अपने जीवन में मैं कभी सेक्युलरवाद विरोधी नहीं रहा. मेरा लेखन इस तथ्य का गवाह है कि मैं साम्प्रदायिकता के उभार से कितना चिंतित रहा हूं. इस राजनीति की शुरुआत संघ परिवार ने की थी लेकिन अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी ने इसे वैधता दी. वे दो राज्यों में चुनाव हार गईं और उन्हें लगा कि वे दलितों और मुसलमानों समेत गरीबों के वोट खोती जा रही हैं. इसी के बाद उन्होंने पंजाब और उत्तर भारत के हिन्दुओं के मन में बैठी हुई असुरक्षा को हवा देनी शुरू की. उन्होंने साम्प्रदायिकता भड़काई, जिसे हम हिन्दू कार्ड खेलना कहते हैं.
संघ परिवार इस काम को कहीं ज्यादा योजनाबद्ध, हिंसक और बुनियादी रूप में अंजाम देता है. लेकिन, सेक्युलरवाद के विचार को एक और तरीके से देखा जाना चाहिए. मेरे ख्याल से सेक्युलरवाद को सिर्फ साम्प्रदायिकता के मुकाबले रख कर देखा जाना उचित नहीं है. आधुनिकता के जमाने में सेक्युलरवाद का पहला मतलब उसी तरीके से है, जिससे राज्य अपना अपना कारोबार चलाता है, यानी वह तरीका जिससे सत्ता का जायज या नाजायज इस्तेमाल किया जाता है.
देश में तमाम ऐसे राजनीतिक दल हैं जो सेक्युलरवाद के नाम पर सत्ता की मलाई खा रहे हैं
सेक्युलरवाद की पश्चिमी अवधारणा के इस हिस्से को मैं शक की निगाह से देखता हूं. यह धारणा बेहद केंद्रीकरणवादी, निरंकुश और दमनकारी राज्य के ख्याल को धरती पर उतारने में मददगार बनती है. एक सीमा के बाद यह प्रक्रिया फासीवादी रवैये में भी तब्दील हो सकती है. इसलिए सेक्युलरवाद की पश्चिमी किस्म खतरनाक आदेशों से भरी होती है.
भारतीय सेक्युलरवाद का विचार दूसरे किस्म का है. यह दैवी बनाम सांसारिक न हो कर सर्वधर्मसमभाव का है. यह बहुलता के प्रति सहनशीलता और राज करने के नियमित सिद्धांत के रूप में मान्यता देने का है. पर भारतीय और पश्चिमी सेक्युलरवाद में फर्क करने का मतलब यह नहीं है कि हम राज्य की सेकुलर पहचान पर ही सवाल उठाना शुरू कर दें.
जहां तक अध्ययन पीठ के उन विद्वानों की बात है जिन्होंने सेक्युलरवाद विरोधी घोषणापत्र लिखा है या जो ऐसे विचारों से हमदर्दी रखते हैं, मेरी मान्यता है कि उनके अल्पसंख्यक-संबंधी सरोकार असंदिग्ध हैं. वह कहीं से भी साम्प्रदायिकता का समर्थन नहीं करते. लेकिन व्यावहारिक राजनीति में जहां बारीकी से चीजों को देख कर छवियां नहीं बनायी जाती, वहां ऐसे गलत ताकतों को लाभ पहुंचाते हुए नजर आ सकते हैं.
ये लोग सिर्फ परम्परा का झंडा बुलंद करना चाहते हैं. ये वेदों का उल्लेख करते हैं. मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि ऐसे विचार व्यक्त करने वाले लोग जाने-अनजाने हिन्दू लॉबी के हाथ में खेल सकते हैं. अपनी तमाम कमियों के बावजूद इस मामले में कम्युनिस्ट पार्टियों का रिकॉर्ड सबसे अच्छा समझा जाना चाहिए.
मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूह भी साम्प्रदायिकता के खिलाफ मजबूती से खड़े रहे हैं. उदारतावादियों का रवैया इतना अच्छा नहीं रहा. वे ढुलमुल रहे है. कम्युनिस्ट पार्टियों की दिक्कत यह रही कि वे गठजोड़ बनाने और राजसत्ता पर कब्जा करने के लक्ष्यों के प्रति इतनी ज्यादा समर्पित रहती रही हैं कि साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष में अपनी क्षमता और इच्छा के अनुकूल योगदान नहीं कर पातीं. वामपंथियों को वास्तव में सेकुलर भारत की रचना करने के उद्देश्य के प्रति ज्यादा समर्पित होना चाहिए.
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