शरद पवार क्या विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की मनमाफिक डिमांड पूरी कर पाएंगे?
शरद पवार (Sharad Pawar) भले ही विपक्षी खेमे में कांग्रेस की अहमियत को नकार न पायें, लेकिन राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को लेकर सहमत भी नहीं हो सकते - और मोदी (Narendra Modi) के खिलाफ मोर्चेबंदी में ये एक बड़ा पेंच है.
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शरद पवार (Sharad Pawar) विपक्षी खेमे में मोदी सरकार (Narendra Modi) के खिलाफ चल रही मोर्चेबंदी की धुरी बने हुए हैं - और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बाद कांग्रेस नेता कमलनाथ का शरद पवार से मिलना कांग्रेस की बेचैनी की तरफ इशारा कर रहा है.
कांग्रेस के लिए ये हजम करना काफी मुश्किल हो रहा होगा कि आखिर क्यों शरद पवार और प्रशांत किशोर दो हफ्ते के अंदर ही तीन बार मिल लेते हैं - और कांग्रेस को पूछा तक न जा रहा है.
प्रशांत किशोर और शरद पवार की दो मुलाकातों के बाद दिल्ली में विपक्षी दलों के नेताओं की जो बैठक हुई उसमें भी कांग्रेस का कोई नेता मौजूद नहीं था, जबकि तृणमूल कांग्रेस, लेफ्ट, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी सहित आठ दलों के नेता पहुंचे थे. देखा जाये तो बैठक में तृणमूल कांग्रेस के यशवंत सिन्हा, एनसीपी की तरफ से पवार के अलावा माजिद मेमन और आरएलडी से जयंत चौधरी के अलावा बाकी दलों का कोई बड़ा नेता नहीं पहुंचा था, लेकिन कांग्रेस के तो बागी तक नदारद रहे.
ये बात भी एनसीपी की तरफ से सफाई पेश करते हुए माजिद मेमन ने ही बतायी. माजिद मेमन के अनुसार, मीटिंग के लिए जिन कांग्रेस नेताओं को बुलाया गया था उनमें ज्यादातर G23 वाले ही थे, लेकिन दिल्ली में नहीं होने के बहाने वे भी मीटिंग से दूर ही रहे.
माजिद मेमन की भी कोशिश यही रही और अब शरद पवार का बयान भी यही समझाने की कोशिश कर रहा है कि विपक्ष की मोर्चेबंदी से कांग्रेस को अलग रखने की कोई कोशिश नहीं हो रही है. माजिद मेमन ने शरद पवार को वेन्यू का होस्ट जबकि यशवंत सिन्हा को मीटिंग का होस्ट बताया था.
कांग्रेस नेता कमलनाथ के शरद पवार से मिलने के बाद ही एनसीपी नेता का बयान आया है - 'अगर कोई वैकल्पिक ताकत तैयार करनी है तो ऐसा कांग्रेस को साथ में लेकर ही किया जा सकता है.'
सही भी है. कांग्रेस का चाहे जो हाल हो रखा हो, अब भी कांग्रेस की विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी पार्टी है. सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते ही कांग्रेस का राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सदाबहार दावा रहता है - लेकिन सवाल उठता है कि क्या शरद पवार कांग्रेस की ये डिमांड पूरी कर पाएंगे?
विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस का पेंच
शरद पवार या प्रशांत किशोर के विपक्षी एकजुटता की कवायद से कांग्रेस को अलग रखने की वजह सिर्फ राहुल गांधी अकेले नहीं लगते - महाराष्ट्र में उनके करीबी, भरोसेमंद और उनकी नजर में सबसे काबिल नेता नाना पटोले भी हो सकते हैं. नाना पटोले को राहुल गांधी ने महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया है. बीजेपी में रहते हुए नाना पटोले ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ बयान देकर बगावत की थी - और राहुल गांधी को इसीलिए नाना पटोले सबसे ज्यादा पसंद हैं.
नाना पटोले महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष बनने से पहले विधानसभा में स्पीकर थे. अब जिस तरह के हाव भाव नजर आ रहे हैं और बयानबाजी कर रहे हैं - ऐसा लगता है वो राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बन जाने का इंतजार किये बगैर ही, पहले खुद महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बन जाना चाहते हैं.
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हाल ही में नाना पटोले ने कहा था कि कांग्रेस गठबंधन में इसलिए शामिल हुई थी क्योंकि बीजेपी को सरकार बनाने से रोकना था. नाना पटोले ने ये भी साफ कर दिया कि कांग्रेस गठबंधन में हमेशा के लिए शामिल नहीं हुई है. नाना पटोले के बयान को कांग्रेस के अपने दम पर सरकार बनाने की मंशा के तौर पर देखा गया और एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने गुस्से में बहुत बुरी तरह रिएक्ट भी किया था.
कांग्रेस के अपने बूते महाराष्ट्र में चुनाव लड़ने को लेकर उद्धव ठाकरे ने कहा था - 'कुछ लोग अपने बल पर चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं. कोरोना काल में हृदयविदारक हाल हो रखा है... लोगों का रोजगार गया, रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है... ऐसे में अगर कोई अकेले लड़ने की बात करेगा - तो लोग चप्पल से मारेंगे. हम सबको.'
उद्धव ठाकरे के बयान पर नाना पटोले का कहना रहा, 'ये तो जनता तय करेगी कि चप्पल की मार किसे पड़ेगी.'
नाना पटोले के बयान को लेकर उठे सवाल पर एनसीपी नेता शरद पवार ने पहले तो साफ साफ बोल दिया - 'कांग्रेस अगर चाहे तो अकेले चुनाव लड़ सकती है,' लेकिन फिर नाना पटोले के बयान को कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाने वाला बताया, कहा - हर राजनीतिक दल को अपना विस्तार करने का अधिकार है... हम भी अपने कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाने के लिए ऐसे बयान देते हैं.
देखा जाये तो कांग्रेस के महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़ने और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की अहमियत पर शरद पवार ने करीब करीब एक ही तरीके से रिएक्ट किया है. बिलकुल वैसा ही बयान दिया है, जिसे मौजूदा समीकरणों में भी पॉलिटिकली करेक्ट कहा जाएगा, लेकिन क्या हकीकत भी वही हो सकती है जो शरद पवार बोल रहे हैं? महत्वपूर्ण सवाल यही है.
कांग्रेस की जो अहमियत महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनाते वक्त रही, केंद्र में विपक्षी गठबंधन की मजबूती में भी उतनी ही महत्वपूर्ण समझी जा सकती है. शरद पवार की मुश्किल ये है कि महाराष्ट्र में तो जैसे तैसे स्थिति संभाल भी ले रहे हैं क्योंकि नाना पटोले गांधी परिवार के करीबी तो हैं, लेकिन राहुल गांधी की तरह गांधी परिवार से तो नहीं आते.
क्या विपक्ष की मोर्चेबंदी फिर फेल होगी?
विपक्ष की मोर्चेबंदी फिर से फेल हो जाएगी - ऐसा समझना ठीक नहीं होगा, लेकिन एक आशंका तो सबके मन में बनी हुई होगी ही - शरद पवार के मन में भी और प्रशांत किशोर के भी.
मुलाकातों और दिल्ली में विपक्षी नेताओं की मीटिंग के बीच कमलनाथ का जाकर शरद पवार से मिलना भी तो यही संकेत दे रहा है कि कांग्रेस नेतृत्व को भी ये नहीं सुहा रहा है. राहुल गांधी को भले ही बहुत फर्क न पड़ता हो, लेकिन सोनिया गांधी तो परेशान होंगी ही कि भला कैसे विपक्ष के ये सारे नेता आपस में मिल रहे हैं और कांग्रेस नेतृत्व को बुलाने की जगह बता रहे हैं कि उन नेताओं को बुलाया गया था जो सही तरीके से पार्टी को रिप्रजेंट भी नहीं करते. कहने का मतलब कि अगर कहीं भेजना हो तो कांग्रेस नेतृत्व उन नेताओं को प्रतिनिधि बनाकर भेजता है जिन पर भरोसा होता है - जैसे पी. चिदंबरम, मल्लिकार्जुन खड़गे या फिर कमलनाथ.
कमलनाथ का शरद पवार से मिलना कांग्रेस नेतृत्व की चिंता की तरफ इशारा करता है. हालांकि, कमलनाथ की मुलाकात को लेकर सफाई दी गयी थी कि वो एनसीपी नेता का हालचाल पूछने गये थे. कुछ दिन पहले शरद पवार की एक सर्जरी हुई थी, जिसकी वजह से काफी दिनों तक वो राजनीतिक तौर पर खामोश भी देखे गये.
अब तक तो यही समझाइश रही है कि प्रशांत किशोर बंगाल विजय के बाद ममता बनर्जी को दो पैरों से दिल्ली जिताने के मिशन पर निकल पड़े हैं, लेकिन ये भी है कि सबके मन में ये बात तो होगी ही कि कांग्रेस नेतृत्व को कैसे राजी किया जाये कि वो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर दावा न भी छोड़े तो कम से कम इस बात के लिए तो तैयार हो कि प्रधानमंत्री पद का फैसला चुनाव नतीजे आने के बाद आम सहमति से होगा.
जिस तरीके से ममता बनर्जी के लिए प्रशांत किशोर ने शरद पवार को आगे कर विपक्षी नेताओं को एक मंच पर लाने की कोशिश की है - कांग्रेस के लिए आगे और भी मुश्किलें होने वाली हैं - और कमलनाथ के शरद पवार के पास जाकर हालचाल पूछने के वाकये के बाद लगता है कि कांग्रेस भी कहीं नहीं बातचीत से बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में है.
जरूरी नहीं कि कांग्रेस जैसी पार्टी को विपक्षी नेता वास्तव में अलग थलग रखने की हिम्मत जुटा भी पायें. ये भी हो सकता है कि जब विपक्ष के सक्रिय दलों के बीच आम सहमति बन जाये तो कांग्रेस को उसका शेयर ऑफर किया जाये. जैसे एक बार आम चुनाव के वक्त सुनने में आया था. ममता बनर्जी की ही तरफ से ही कि कांग्रेस भी विपक्ष के साथ गठबंधन में शामिल हो जाये.
ममता बनर्जी की तरफ से एक तरीके का मैसेज था कि कांग्रेस प्रधानमंत्री पद पर दावा छोड़ कर बगैर किसी रिजर्वेशन के गठबंधन का हिस्सा बने - अब तक यही सबसे बड़ा लोचा भी रहा है - अब लगता है कि विपक्ष बारगेन करने की कोशिश करेगा और कांग्रेस को मजबूरी में समझौता करना पड़ सकता है.
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