ममता बनर्जी आखिर शरद पवार के पीछे क्यों पड़ी हैं?
राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार तय करने के लिए 15 जून को विपक्षी दलों की दो मीटिंग तय की गयी थी, लेकिन सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के अस्पताल और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के ED दफ्तर चले जाने की वजह से ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की ही मीटिंग हो पायी - आगे क्या होने वाला है?
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के प्रस्ताव को शरद पवार ने ठुकरा दिया है - क्योंकि वो अभी सक्रिय राजनीति नहीं छोड़ना चाहते. 18 जुलाई को होने जा रहे वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए ममता बनर्जी की मीटिंग में 16 राजनीतिक दलों के नेता शामिल हुए हैं और तय हुआ है कि आम सहमति से विपक्ष का एक ही उम्मीदवार मैदान उतारा जाएगा.
शरद पवार के अलावा ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए जिन दो नेताओं के नाम सुझाया है, उनमें एक तो फारूक अब्दुल्ला बताये जाते हैं और दूसरे लेफ्ट पार्टियों की भी पसंद बताये जाते हैं.
सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और राहुल गांधी की गैरमौजूदगी में हुई विपक्षी दलों की मीटिंग के बाद ममता बनर्जी ने मीडिया को बताया कि वो चाहती थीं कि शरद पवार राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार बनें, लेकिन अब किसी और के नाम पर विचार किया जाएगा और तभी फैसला होगा. बताते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन की आखिरी तारीख 29 जून से हफ्ता भर पहले विपक्ष किसी एक नाम पर आम सहमति बना लेगा. विपक्षी दलों की अगली बैठक 21 या 22 जून को हो सकती है.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तो अभी अस्पताल में हैं, लेकिन प्रवर्तन निदेशालय ने उनको 23 जून को पूछताछ के लिए पेश होने की तारीख दी है. तब तक राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के मामले में ईडी का क्या रुख रहता है देखना होगा - गांधी परिवार के कानूनी पचड़ों में फंसने के चलते ही सही, लेकिन ममता बनर्जी की राजनीति की राह थोड़ी आसान तो हो ही गयी है - देखना है ऐसा कब तक रह पाता है? और सवाल ये भी है कि आखिर ममता बनर्जी इस कदर शरद पवार के पीछे क्यों पड़ी हैं?
ममता बनर्जी की मीटिंग
विपक्षी दलों के साथ मीटिंग के बाद प्रेस कांफ्रेंस में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा - ये अच्छी शुरुआत है. ममता बनर्जी की राजनीतिक स्वीकार्यता के हिसाब से देखें तो वास्तव में ये बहुत अच्छी शुरुआत है.
राष्ट्रपति चुनाव ने ममता बनर्जी की राजनीति को बड़ा उछाल दिया है
देखें तो ममता बनर्जी के खाते में एक साथ डबल उपलब्धि दर्ज हुई है. जिस चीज के लिए ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल चुनावों के नतीजे आने के बाद से जूझ रही थीं, वो मुराद 15 जून को पूरी हो पायी है. खास बात ये है कि जिस कांग्रेस की वजह से ममता बनर्जी को विपक्षी खेमे में पांव जमाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था, उसी कांग्रेस की बदौलत ये हासिल भी हो पाया.
एक तो ममता बनर्जी विपक्षी दलों के नेताओं की बड़ी मीटिंग एक जगह बुला पाने में सफल रही हैं, दूसरे मीटिंग में मौजूद सभी नेताओं में इस बात को लेकर सहमति बनी है कि राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की तरफ से एक ही उम्मीदवार मैदान में उतारने पर सहमति बनाने में कामयाब रही हैं.
ममता बनर्जी की ये खुशी तब और भी हाई हो गयी होती, अगर उनके राजनीतिक दोस्त समझे जाने वाले आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल भी पहुंचे होते. या कम से कम अपना एक प्रतिनिधि ही भेज दिया होता. मीटिंग में कमी तो अकाली दल और तेलंगाना के मुख्यमंत्री टीआरएस नेता की भी महसूस की गयी. वैसे ही बीजेडी नेता नवीन पटनायक की तरफ से भी कोई नुमाइंदा नहीं पहुंचा था. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी को तो बुलाये जाने की कोई खबर भी नहीं आयी थी - और AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी तो वैसे भी कह रहे थे कि वो तो बुलाये जाने पर भी नहीं जाते क्योंकि ममता बनर्जी उनसे नफरत कर रही हैं और मीटिंग में कांग्रेस भी हिस्सा ले रही है.
मीटिंग में कौन कौन शामिल हुआ: ये सही है कि ममता बनर्जी की मीटिंग से विपक्षी खेमे के कुछ प्रमुख नेताओं ने दूरी बना ली, लेकिन ये भी देखने को मिला कि एक एक पार्टी से कई कई नेता पहुंचे हुए थे - और ये सब तो ममता बनर्जी के खाते में ही दर्ज होता है.
ममता बनर्जी की मीटिंग में एनसीपी नेता शरद पवार खुद तो मौजूद थे ही, पार्टी नेता प्रफुल्ल पटेल को भी साथ ले गये थे. वैसे ही जेडीएस की तरफ से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके अपने बेटे एचडी कुमारस्वामी के साथ पहुंचे थे - और कांग्रेस ने तो अपने तीन-तीन नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, जयराम रमेश और रणदीप सुरजेवाला भेजे थे. समाजवादी पार्टी की तरफ से अखिलेश यादव उपस्थिति रहे.
वैसे ही शिवसेना की तरफ से प्रियंका चतुर्वेदी और सुभाष देसाई पहुंचे थे, जबकि आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने मनोज झा और एडी सिंह को भेजा था. जम्मू-कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने भी मौजूदगी दर्ज करायी.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन तो नहीं जा सके, लेकिन डीएमके नेता टीआर बालू ने प्रतिनिधित्व तो किया ही. सबसे बड़ी बात ये रही कि सीपीएम और सीपीआई के बड़े नेता तो नहीं लेकिन उनके प्रतिनिधियों ने हाजिरी लगायी - और ये ममता बनर्जी की सबसे बड़ी उपलब्धि है. साथ ही, आरएसपी, आईयूएमएल, आरएलडी और झारखंड में सत्ताधारी JMM भी मीटिंग में शामिल हुई है.
अब सवाल ये है कि ये ममता बनर्जी की निजी उपलब्धि समझी जाये या हालात ने कांग्रेस नेतृत्व को मजबूर किया और तृणमूल कांग्रेस नेता को उसका पूरा फायदा भी मिला है - तो क्या ममता बनर्जी इसी खास रणनीति के तहत विपक्षी दलों की 15 जून को ही मीटिंग बुलायी थी, जिस दिन कांग्रेस ने ऐसी ही बैठक पहले से तय कर रखी थी?
ये संयोग रहा या प्रयोग: 11 जून को जब ममता बनर्जी ने देश के गैर-बीजेपी मुख्यमंत्रियों सहित विपक्ष के करीब सभी नेताओं को पत्र लिख कर राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार तय करने के लिए मीटिंग बुलायी तो विरोध भी हुआ और कई विपक्षी नेताओं ने हैरानी भी जतायी.
ममता बनर्जी की मीटिंग का विरोध इसलिए हुआ क्योंकि जिस दिन सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाई थी, उसी मुद्दे पर टीएमसी नेता ने भी मीटिंग बुला डाली थी. विपक्ष के कुछ नेताओं ने तो मीडिया से बातचीत में इस बात पर हैरानी भी जतायी कि जब ममता बनर्जी उस चर्चा का हिस्सा नहीं थी जब मीटिंग की तारीख तय की गयी तो उनको भनक कैसे लगी?
असल में सबसे पहले सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव में आम राय से विपक्ष का उम्मीदवार खड़ा करने की पहल की ताकि बीजेपी और मोदी सरकार को अच्छे से चैलेंज किया जा सके. सोनिया गांधी ने विपक्षी नेताओं से संपर्क और मुलाकात का काम सीनियर कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को सौंपा और वो मुंबई जाकर शरद पवार से मिले भी. हालांकि, सोनिया गांधी ने आगे बढ़ने से पहले ही ममता बनर्जी और शरद पवार से ही संपर्क किया था.
सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने तो बोल दिया था कि वो तो ममता बनर्जी की मीटिंग में जाने से रहे क्योंकि सोनिया गांधी बुलायी मीटिंग का कार्यक्रम पहले ही तय हो रखा है. तब तो ये भी लगा था कि कांग्रेस की तरफ से भी किसी के शामिल होने का मतलब नहीं बनता - नजर शरद पवार पर टिकी थी कि वो क्या फैसला लेते हैं. कहां खुद जाते हैं और कहां प्रतिनिधि भेजते हैं या दोनों ही बैठकों से दूरी बना लेते हैं?
लेकिन हालात ऐसे बने कि कांग्रेस की बुलाई मीटिंग के लिए न तो सोनिया गांधी उपलब्ध रहीं और न ही राहुल गांधी ही. सोनिया गांधी को कोविड पॉजिटिव होने के दौरान तबीयत खराब होने के कारण दिल्ली के अस्पताल में भर्ती होना पड़ा - और राहुल गांधी को लगतार तीसरे दिन भी प्रवर्तन निदेशालय ने पूछताछ के लिए बुला लिया था.
कांग्रेस के पास कोई चारा भी न था, लिहाजा कदम पीछे खींचने पड़े होंगे और सब कुछ ममता बनर्जी के हवाले करना पड़ा होगा - कहीं ऐसा तो नहीं कि सोनिया गांधी और ममता बनर्जी ने प्लान-बी के तहत मीटिंग के बारे में पहले से ही तैयारी ऐसी ही कर रखी थी?
शरद पवार के पक्ष में क्यों हैं ममता बनर्जी?
ये तो लगातार महसूस किया जा रहा है कि ममता बनर्जी किसी भी सूरत में शरद पवार को नहीं छोड़ना चाहती हैं - तभी तो शरद पवार के मिलने का टाइम न देने पर मुलाकात के लिए सीधे मुंबई पहुंच जाती हैं.
फर्ज कीजिये शरद पवार की जगह कोई और नेता होता, तो क्या ममता बनर्जी का यही रवैया होता? चाहे वो कोई भी होता ममता बनर्जी घास तक नहीं डालने वाली नेता हैं. मुलायम सिंह यादव सबसे बड़ी मिसाल हैं, राष्ट्रपति चुनाव में ही एक बार समाजवादी पार्टी नेता के पलटी मार लेने की वजह से ममता बनर्जी ने कभी पलट कर नहीं देखा - जमाना बदला, समाजावादी पार्टी का नेतृत्व बदला तो आज जरूर वो अखिलेश यादव के साथ खड़ी हो गयी हैं. हालांकि, अखिलेश यादव के साथ होने का बड़ा फायदा ये है कि ममता बनर्जी को यूपी की राजनीति में खड़े होने की एक मजबूत जगह मिल जा रही है.
आपको याद होगा, पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजे आने के बाद ममता बनर्जी ने कोलकाता में शहीद दिवस के कार्यक्रम के दौरान ही शरद पवार से दिल्ली में विपक्ष की मीटिंग बुलाने को कहा था, लेकिन जब वो दिल्ली पहुंची तो राहुल गांधी विपक्षी नेताओं को बुलाकर ताबड़तोड़ मीटिंग करने लगे - और दिल्ली में मौजूद रहने के बाद भी शरद पवार ने ममता बनर्जी को मिलने तक का वक्त तक नहीं दिया.
जाते जाते ममता बनर्जी ने बड़े भारी मन से इस बात का जिक्र भी किया. कुछ दिन बाद कार्यक्रम बना कर ममता बनर्जी मुंबई पहुंची और भतीजे अभिषेक बनर्जी के साथ शरद पवार के घर सिल्वर ओक जाकर मुलाकात की. ममता बनर्जी की कई बातों से शरद पवार सहमत तो हुए, लेकिन कुछ बोले नहीं, न ही कोई आश्वासन ही दिया.
शरद पवार से मिलने के बाद बाहर आकर ममता बनर्जी ने यूपीए के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया था. शरद पवार चुप रहे, लेकिन शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत अगले ही दिन यूपीए की तारीफ में कसीदे पढ़ने लगे और कहने लगे कि वो तो उद्धव ठाकरे को भी ज्वाइन कर लेने का सुझा दे रहे हैं. राउत ने जो कुछ कहा, वो तो शरद पवार के मन की बात ही लगी थी.
और उसके कुछ ही दिन बाद जब सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलायी तो शरद पवार भी पहुंचे. ये वो मीटिंग रही जिसमें ममता बनर्जी शामिल नहीं हुई थीं और ऐसे मजाक उड़ाया गया कि ममता को राजी करने के लिए प्रशांत किशोर से बात कर ली जाएगी.
शरद पवार से मुलाकात में ममता बनर्जी ने महाराष्ट्र के गठबंधन से भी कांग्रेस को बाहर करने का सुझाव दिया था, लेकिन शरद पवार तैयार नहीं हुए - और उसके बाद से बार बार यही कहते आ रहे हैं कि कांग्रेस के बगैर विपक्ष का कोई भी मंच खड़ा नहीं किया जा सकता है.
ये तो शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों ही जानते हैं कि विपक्ष के उम्मीदवार का राष्ट्रपति चुनाव में क्या हाल होने वाला है. शरद पवार के इनकार का तो मतलब समझ में आता है, लेकिन ममता बनर्जी के शरद पवार पर इस कदर मेहरबान होने का क्या मतलब है?
मौजूदा राजनीतिक समीकरणों को समझें तो विपक्षी खेमे में शरद पवार सिर्फ ममता बनर्जी ही नहीं सोनिया गांधी पर भी भारी पड़ते लगते हैं - क्योंकि शरद पवार की विपक्षी खेमे में स्वीकार्यता ज्यादा है. अभी तो सोनिया गांधी को भी शरद पवार की जरूरत है और ममता बनर्जी की ही कौन कहे, टीआरएस नेता के. चंद्रशेखर राव भी मिलने के लिए मुंबई तक पहुंच जाते हैं - और संजय राउत के खिलाफ ईडी का मामला लेकर शरद पवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी जाकर मिल आते हैं.
शरद पवार नहीं तो कौन होगा विपक्ष का उम्मीदवार: आरएसपी नेता एनके प्रेमचंद्रन के मुताबिक, शरद पवार के इनकार कर देने के बाद ममता बनर्जी ने दो नये नाम का प्रस्ताव दिया है - फारूक अब्दुल्ला और गोपालकृष्ण गांधी. वैसे गोपालकृष्ण गांधी के नाम पर लेफ्ट भी राजी हो गया है.
2004 से 2009 तक पश्चिम बंगाल के गवर्नर रहे गोपाल कृष्ण गांधी महात्मा गांधी के पोते हैं और 2017 में विपक्ष की तरफ से उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रह चुके हैं. तब बीजेपी उम्मीदवार एम. वेंकैया नायडू से वो हार गये थे.
राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनने को लेकर कुछ नेताओं ने गोपाल कृष्ण गांधी से संपर्क भी किया है, लेकिन न्यूज एजेंसी पीटीआई-भाषा से उनका कहना रहा, 'इस पर टिप्पणी करना अभी जल्दबाजी होगी.'
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