कांग्रेस को शशि थरूर जैसा अध्यक्ष न मिल पाने का अफसोस होना चाहिये!
शशि थरूर (Shashi Tharoor) भी कांग्रेस अध्यक्ष (Congress President) का चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) की जीत पहले से ही पक्की मानी जा रही है - केरल के सांसद के लिए ये चुनाव भी संयुक्त राष्ट्र महासचिव के मुकाबले जैसा हो गया है.
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एक पल के लिए ही सही, शशि थरूर (Shashi Tharoor) की राष्ट्रपति बनने से पहले वाले प्रणब मुखर्जी से करके देखिये. दोनों में बहुत सारे फर्क मिलेंगे, लेकिन एक कॉमन चीज भी है. और वो है काबिलियत. तब जो काबिलियत प्रधानमंत्री पद के लिए प्रणब मुखर्जी की रही, शशि थरूर के अनुभव और योग्यता को देखें तो आज की कांग्रेस के अध्यक्ष (Congress President) के लिए उन्नीस नहीं पड़ेंगे.
चुनाव के नतीजे भले ही 19 अक्टूबर को आएंगे, लेकिन शशि थरूर को भी सोनिया गांधी का सपोर्ट नहीं मिला है, सिर्फ चुनाव लड़ने की इजाजत ही मिली है. मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) को सोनिया गांधी का जो सपोर्ट मिला है, वो तो मनमोहन सिंह जैसा ही है. जैसे 2004 में प्रणब मुखर्जी दूसरी बार इंतजार करते रह गये और सोनिया गांधी की मुहर से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गये, इस बार मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ हो रहा है.
शशि थरूर के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र से लौटने के बाद जब वो भारत में राजनीति शुरू करने की सोच रहे थे तो उनके पास जिन राजनीतिक दलों की तरफ से ऑफर था उसमें कांग्रेस और बीजेपी दोनों शामिल थे, लेकिन आइडियोलॉजी पसंद आने की वजह से शशि थरूर ने कांग्रेस को तरजीह दी. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अपने अनुभव को देखते हुए, जाहिर है शशि थरूर विदेश मंत्री बनाये जाने की उम्मीद कर रहे होंगे, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ. वो मंत्री भी बने और विदेश मंत्रालय भी मिला लेकिन कैबिनेट दर्जा नहीं.
शशि थरूर के बॉस बनाये गये कैबिनेट मंत्री एमएम कृष्णा क्योंकि तब वो गांधी परिवार के करीबी हुआ करते थे, ये बात अलग है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बार वो दूसरे मुल्क का ही भाषण पढ़ने लगे थे. बाद में एसएम कृष्णा कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में चले गये, लेकिन उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाने के कारण नेपथ्य में चले गये.
ये भी संयोग ही है कि एसएम कृष्णा, शशि थरूर से पहले मल्लिकार्जुन खड़गे के बॉस हुआ करते थे. कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहते एसएम कृष्णा ने मल्लिकार्जुन खड़गे को गृह मंत्री बनाया हुआ था - एक सवाल ये भी उठता है कि क्या मल्लिकार्जुन खड़गे को शशि थरूर के चलते ही कांग्रेस चुनाव में गांधी परिवार की तरफ से उतारा गया है?
शशि थरूर मैदान में तो उतर गये
शशि थरूर और मल्लिकार्जुन दोनों दक्षिण भारत से ही आते हैं. 2024 के चुनाव में कांग्रेस उत्तर भारत के मुकाबले अपने लिए दक्षिण भारत में ज्यादा संभावना देख रही है. केरल विधानभा चुनाव के दौरान तो राहुल गांधी उत्तर और दक्षिण की तुलना करके बवाल मचा दिया था. राहुल गांधी ने उत्तर के मुकाबले दक्षिण भारत के लोगों की राजनीतिक समझ को बेहतर बताया था - हो सकता है उसी बात को नये सिरे से आगे बढ़ाये जाने की कोशिश हो रही हो.
नामांकन से पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की समाधि वीर भूमि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते शशि थरूर
मल्लिकार्जुन खड़गे सामने तो अशोक गहलोत के कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने से इनकार करने के बाद ही आये हैं. अशोक गहलोत के बाद थोड़ी देर तक दिग्विजय सिंह भी चर्चा में बने रहे. चर्चा में दिग्विजय सिंह ने खुद को शुरू से ही डाल रखा था ये बोल कर कि उनको दावेदार न मानने की भूल क्यों की जा रही है. हालांकि, दिग्विजय सिंह के लिए ऐसे नॉन-सीरियस बयान कोई नयी बात नहीं है. एक बार फिर उनकी बात मजाक ही साबित हुई है.
शशि थरूर के मैदान में कूद पड़ने के बाद एकबारगी सलाहकारों और हो सकता है गांधी परिवार के मन में भी ये आया हो कि कहीं कोई गलत मैसेज न चला जाये. या फिर कहीं ऐसा न हो, शशि थरूर को दक्षिण भारत से ज्यादा सपोर्ट ने मिल जाये? ये अलग बात है कि अपने बूते सपोर्ट हासिल कर भी शशि थरूर के लिए जीत मुश्किल है, फिर भी अगर शशि थरूर ने ठीक ठाक वोट पा लिया तो संदेश तो यही जाएगा कि दक्षिण भारत से आने वाले शशि थरूर को गांधी परिवार ने कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनने दिया.
शशि थरूर कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव भी वैसे ही लड़ रहे हैं जैसे वो संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव लड़े थे. हर उस व्यक्ति से मिल रहे हैं, जो उनकी राह में महत्वपूर्ण लगता है. हर वो काम कर रहे हैं जो जरूरी लग रहा है.
कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने से पहले शशि थरूर ने सोनिया गांधी से समय लेकर मुलाकात की और बाकायदा इजाजत ली. नामांकन दाखिल करने से पहले भी शशि थरूर ने राजीव गांधी की समाधि पर पहुंच कर श्रद्धांजलि भी दी है.
ऐसा देखा गया है कि शशि थरूर कांग्रेस में उस छोर के नेता रहे हैं जो हमेशा मुखर रहते हैं - और जो भी जरूरी लगता है खुल कर डंके की चोट पर कहते हैं. शशि थरूर भी कांग्रेस के उन नेताओं की जमात में ही शामिल रहे हैं, जो मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमले कभी कांग्रेस को फायदा नहीं पहुंचा सकते. चूंकि राहुल गांधी लगातार ऐसा करने में भी यकीन रखते हैं, इसलिए शशि थरूर उनको भी पसंद नहीं आते.
कांग्रेस में गांधी परिवार की अहमियत को लेकर शशि थरूर कहते हैं, 'मेरा निश्चित रूप से मानना है कि कांग्रेस में गांधी परिवार की जगह, पार्टी के डीएनए के साथ उनका कभी खत्म न हो पाने वाला रिश्ता है.'
सोनिया गांधी से मुलाकात को लेकर शशि थरूर ने एनडीटीवी से बातचीत में कहा, 'अगर उन्होंने कहा होता कि आप चुनाव क्यों लड़ना चाहते हैं? हम हमेशा सर्वसम्मति से काम करते हैं, हम पर छोड़ दीजिए, हम सही शख्स तलाश कर लेंगे... लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ...'
लेकिन एक और बात जो शशि थरूर ने सोनिया गांधी से मुलाकात को लेकर बनायी है, वो भी महत्वपूर्ण है. ये बात अध्यक्ष पद के लिए आधिकारिक उम्मीदवार को लेकर है. औपचारिक रूप से तो मल्लिकार्जुन खड़गे भी कोई आधिकारिक उम्मीदवार हैं, लेकिन जिस तरीके से दिग्विजय सिंह से लेकर अशोक गहलोत तक मल्लिकार्जुन खड़गे के प्रस्ताव बनने की रेस लगाये रहे, क्या समझा जाएगा?
शशि थरूर ने बताया, 'मैंने सोनिया गांधी से पूछा था कि क्या कोई आधिकारिक प्रत्याशी भी होगा? तब सोनिया ने कहा था कि कोई आधिकारिक प्रत्याशी नहीं होगा... जहां तक मेरा सवाल है, मेरा पूरा परिवार तटस्थ रहेगा... मैंने ऐसी ही बातचीत प्रियंका गांधी वाड्रा तथा राहुल गांधी से भी की थी - और वही संदेश मुझे तक पहुंचा... जब दिग्विजय सिंह जाकर सोनिया गांधी से मिले, उनको भी वही मैसेज दिया गया'
नामांकन से ठीक एक दिन पहले शशि थरूर और दिग्विजय सिंह के गले मिलती तस्वीर सामने आयी थी, लेकिन तस्वीर से परदा तब जाकर हट सका जब दिग्विजय सिंह ने भी अशोक गहलोत की ही तरह मीडिया के सामने आकर घोषणा कर दी कि वो भी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ने वाले हैं.
एक और महत्वपूर्ण बात जो शशि थरूर का पीछा नहीं छोड़ पाती, कांग्रेस सांसद ने पहले ही अपना रुख साफ कर दिया था. शशि थरूर ने पहले ही साफ तौर पर बोल दिया था कि वो कांग्रेस के बागियों के G-23 गुट के उम्मीदवार नहीं हैं. शशि थरूर ने भी गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में सोनिय गांधी को लिखी गयी चिट्ठी में दस्तखत करने वालों में शामिल थे.
शशि थरूर का चुनावी एजेंडा क्या है
शशि थरूर कांग्रेस में भी चुनाव वैसे ही लड़ना चाहते हैं जो तौर तरीका संयुक्त राष्ट्र के लिए अपनाया था - फर्क बस ये है कि संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका ने वीटो का इस्तेमाल चुनाव के दौरान किया था, कांग्रेस में गांधी परिवार का अघोषित वीटो पहले ही लग चुका है.
फिर भी शशि थरूर अपना रास्ता खुद तयार भी कर रहे हैं, और तय भी कर रहे हैं. इंडियन एक्सप्रेस के साथ एक इंटरव्यू में शशि थरूर ने अपने चुनावी एजेंडे के साथ साथ ये भी बताया कि वो एक मैनिफेस्टो भी लाने वाले हैं.
शशि थरूर का कहना है कि अगर वो कांग्रेस अध्यक्ष बने तो उन वोटर तक भी पहुंचने की कोशिश करेंगे जो पिछले दो बार से कांग्रेस को वोट नहीं कर रहे हैं. यानी बीजेपी को वोट कर रहे हैं. शशि थरूर को पक्का यकीन है कि अगर 2014 और 2019 में बीजेपी को वोट देने वाले लोगों के पास पहुंचा जाये तो अगली बार वो कांग्रेस के बारे में भी सोच सकते हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष बनने की सूरत में शशि थरूर ऐसे सभी वोटर तक पहुंचने की कोशिश करेंगे और कांग्रेस का समर्थन करने की अपील करेंगे. शशि थरूर को नहीं लगता कि बीजेपी का हर वोटर चाहे वो जो 2014 में 2019 में वोट देने वाला हिंदुत्ववादी ही क्यों न हो, कांग्रेस ने उसे हमेशा के लिए नहीं गवांया है.
इंटरव्यू में शशि थरूर ने बताया कि वो एक मैनिफेस्टो भी लाएंगे - और कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को बताएंगे कि कैसे पार्टी में सुधार किया जा सकता है? कैसे नये सिरे से ऊर्जा भरी जा सकती है?
साथ ही, शशि थरूर ने कहा है कि मैनिफेस्टो में संगठन में विकेंद्रीकरण पर फोकस होगा और सलाह मशविरे के प्रचलन को बढ़ावा दिया जाएगा - कार्यकर्ताओं को ये सुविधा हासिल होगी कि नेतृत्व से संपर्क करना उनके लिए आसान हो और ऐसी सुविधा हर स्तर पर हो. देखा जाये तो G-23 की चिट्ठी में भी ऐसी ही बातें थीं. हो सकता है कांग्रेस के उन नेताओं के साथ खड़े होने के पीछे भी यही वजह रही हो.
कांग्रेस के लिए कितने फायदेमंद होते
शशि थरूर फिलहाल ऑल इंडिया प्रोफेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष हैं - और ये साबित करता है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी मानते हैं कि शशि थरूर नेताओं की खास कैटेगरी में शामिल हैं. 2017 में ये संगठन बना था और तभी से शशि थरूर ही इसके नेता हैं.
शशि थरूर की पर्सनल ब्रांड वैल्यू है और अंतराष्ट्रीय स्तर पर वो पढ़े लिखे नेताओं की जमात में शामिल किये जाते हैं, जिसने दर्जन भर किताबें लिखी हों. फिक्शन और नॉनफिक्शन ही नहीं, राजनीति से लेकर धर्म तक पर शशि थरूर ने खुल कर कलम चलायी है - और सबसे बड़ी बात एक ऐसा नेता तो ब्रिटेन से भी हर्जाना मांग सकता हो. अगर शशि थरूर के इस एक्ट के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तारीफ करते हों, तो ये किसी उपलब्धि से कम नहीं है.
शशि थरूर अपनी शानदार अंग्रेजी के लिए भी अक्सर चर्चा में रहते हैं, निश्चित तौर पर शशि थरूर विवादों में रहते हैं, लेकिन कभी झुकते नहीं. जो भी मुद्दा उठाते हैं तरीके से उठाते हैं और उस पर कायम रहते हैं. सॉरी भी बोलते हैं, लेकिन तभी जब विवाद खत्म करना हो.
शशि थरूर हिंदी में भी बड़े आराम से बात करते हैं, लेकिन उनकी छवि हिंदी विरोधी नेता की भी है, लेकिन उनकी यही खासियत दक्षिण भारत में कांग्रेस के फेवर में जाती है.
अभी जो कांग्रेस की हालत है उसमें तो शशि थरूर जैसे नेता की ही जरूरत है. जादू की छड़ी लेकर तो अशोक गहलोत भी नहीं आते, लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे भी कांग्रेस अध्यक्ष बन कर कोई करिश्मा नहीं करने वाले हैं - और जब राहुल गांधी ही कांग्रेस को चुनाव नहीं जिता पा रहे हों, तो भला किसी और नेता से ऐसी कोई उम्मीद भी क्यों करनी चाहिये?
लेकिन शशि थरूर अगर अध्यक्ष बनते तो फील्ड में कांग्रेस का अच्छे तरीके से बचाव कर सकते थे. जरूरी मुद्दे उठाने के साथ ही उन पर कायम भी रहते. जैसे अरविंद केजरीवाल टीवी से लेकर पब्लिक तक आम आदमी पार्टी का बचाव करते हैं और अपनी बातें लोगों के बीच रखते हैं, शशि थरूर ये काम बहुत अच्छी तरह कर सकते थे. ऐसा नहीं लगता कि मल्लिकार्जुन खड़गे ये सब कर भी पाएंगे.
शशि थरूर के कामकाज को प्रियंका गांधी के यूपी चुनाव 2022 के प्रदर्शन से तुलना करके समझा जा सकता है. प्रियंका गांधी कांग्रेस को यूपी चुनाव में अलग से कोई सीटें नहीं दिला पायीं, बल्कि नंबर तो महज दो सीटों तक सिमट कर रह गया था. जो दो उम्मीदवार जीते थे वे भी अपने ही बूते जीत कर आये.
प्रियंका गांधी ने एक काम तो किया ही, पूरे चुनाव के दौरान कांग्रेस को सुर्खियों में बनाये रखा. फील्ड में उतरने के बाद से कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाये रखा. नये नये आइडिया के साथ सामने आयीं - और शुरू से आखिर तक बीजेपी और योगी आदित्यनाथ के खिलाफ आक्रामक बनी रहीं.
ऐसे सारे काम राष्ट्रीय स्तर पर शशि थरूर भी कांग्रेस अध्यक्ष बनकर कर सकते थे. सच तो ये है कि कांग्रेस को फिलहाल इसी की जरूरत भी है - लेकिन होगा तो अब भी वही जो सोनिया गांधी, या ये कहना बेहतर होगा कि राहुल गांधी को मंजूर होगा.
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