कांग्रेस अध्यक्ष कोई यूएन महासचिव जैसा पद तो है नहीं - फिर थरूर चुनाव क्यों लड़ रहे हैं?
शशि थरूर (Shashi Tharoor) अपने आजाद ख्याल की वजह से ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव बनने चूक गये. भला अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के मुकाबले उसी थरूर को गांधी परिवार क्यों स्वीकार करेगा - और ऐसी हालत में वो कांग्रेस अध्यक्ष (Congress President) का चुनाव क्यों लड़ रहे हैं?
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शशि थरूर (Shashi Tharoor) का संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव लड़ना तो समझ में आया था, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष (Congress President) का चुनाव वो क्यों लड़ना चाहते हैं? ये बात समझ से परे है - क्योंकि पहले से ही जो मैच फिक्स्ड हो उस मैदान में उतर कर भी क्या हासिल किया जा सकता है?
शशि थरूर न तो अरविंद केजरीवाल जैसे हैं, न ही वो ममता बनर्जी जैसे नेता हैं. अरविंद केजरीवाल आंदोलन के जरिये राजनीति में आयें हैं और ये कदम कदम पर उनकी राजनीति में कभी भी देखा जा सकता है. ममता बनर्जी तो डंके की चोट पर खुद को फाइटर बताती हैं.
ऐसा भी नहीं कि भारतीय राजनीति में ऐसे दो ही उदाहरण हैं, लेकिन ये ऐसे नेता हैं जो अपनी नैसर्गिक शैली में राजनीति करते हैं और लगातार मुख्यधारा की राजनीति में बने हुए हैं. अपनी खास स्टाइल में राजनीति करते हुए अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी को नेशनल फ्रेम में स्थापित करने की कोशिश में जुटे हुए हैं - और ममता बनर्जी अपने तरीके से तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में स्थापित कर राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका के लिए प्रयासरत हैं - लेकिन ये दोनों ही नीतीश कुमार की तरह न तो चाणक्य माने जाते हैं और न ही दोनों में से किसी को सुशासन के संस्थापक जैसा तमगा ही हासिल है.
ममता की कामयाबी की कहानी तो उनकी निजी हैसियत से इतर कहीं दिखायी भी नहीं देती, लेकिन नीतीश कुमार महिलाओं के लिए कई काम करने के लिए जाने जाते हैं, जिसमें एक करीब करीब असफल प्रयोग बिहार में शराबबंदी भी है. अरविंद केजरीवाल का दावा है कि वो शिक्षा के क्षेत्र में नयी क्रांति लाने वाले हैं.
नीतीश कुमार से तुलना करें तो शशि थरूर लोक सभा की तिरुअनंतपुरम सीट से चुन कर आते हैं. भारतीय राजनीति में आने से पहले ही वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर अपनी पहचान बना चुके थे - और संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव भी लड़ चुके हैं. हालांकि, वो चुनाव हार गये थे.
संयुक्त राष्ट्र का चुनाव हारने के बाद ही शशि थरूर ने भारतीय राजनीति का रुख किया था. 2009 से लगातार तीसरी बार वो कांग्रेस के टिकट पर सांसद बने हैं. शशि थरूर की हैट्रिक काफी मायने रखती है, तब तो और भी जब राहुल गांधी अमेठी से ही चुनाव हार जाते हों. लेकिन एक दलील तो ये भी है कि अमेठी में हारने वाले राहुल गांधी केरल में चुनाव जीत जाते हैं. फिर तो शशि थरूर के साथ साथ कांग्रेस का भी केरल में प्रभाव मानना ही होगा - वैसे भी पूरे देश में सबसे ज्यादा कांग्रेस के सांसद केरल से ही हैं.
शशि थरूर ने एक बार बताया था कि जब वो भारत में अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने की तैयारी कर रहे थे तो कांग्रेस के अलावा लेफ्ट और बीजेपी की तरफ से भी उनसे संपर्क किया गया था - शशि थरूर का कहना रहा कि कांग्रेस को इसलिए चुने क्योंकि उसकी आइडियोलॉजी उनको ठीक लगी थी.
ये उनका पक्ष है, लेकिन सच तो ये भी है कि शशि थरूर जिस वक्त देश की राजनीति में पांव जमाने की कोशिश कर रहे थे, उस वक्त केंद्र की सत्ता में कांग्रेस थी और बीजेपी के तब के हाल की कौन कहे, आज भी कोई नाम लेवा नहीं लगता. जैसे तैसे विरोध प्रदर्शनों और बयानबाजी के जरिये बीजेपी चर्चा में बने रहने की कोशिश करती है. ये कांग्रेस की ही सरकार रही जिसने संयुक्त राष्ट्र चुनाव में शशि थरूर को अधिकृत उम्मीदवार घोषित किया था. वैसे केरल में तब लेफ्ट की ही सरकार थी और वीएस अच्युतानंदन मुख्यमंत्री हुआ करते थे.
सत्ता हासिल कर पाने की कौन कहे, ऐसे दौर में जब कांग्रेस विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी पार्टी बनी रहने के लिए संघर्ष कर रही हो, अध्यक्ष पद के लिए शशि थरूर का चुनाव लड़ना काफी दिलचस्प लगता है.
ये बात तो और भी हैरान करने वाली है कि कांग्रेस के बागी गुट G-23 के सक्रिय सदस्य रहे शशि थरूर ऐसे वक्त चुनाव मैदान में उतर रहे हैं जब उनके नेता रहे गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल पहले ही कांग्रेस छोड़ चुके हैं. देखा जाये तो घोषित तौर शशि थरूर के समर्थक नेताओं की संख्या दहाई में भी नहीं लगती. और वो उस अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) को चैलेंज करने जा रहे हैं जिसकी पीठ पर सोनिया गांधी ने हाथ रखा हो - और जो राहुल गांधी का करीबी समझा जाता हो. आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं शशि थरूर?
कोई भी शख्स चुनाव क्यों लड़ता है?
आमतौर पर चुनाव जीतने के लिए ही लड़े जाते हैं. बड़े नेता अक्सर ऐसे जोखिम उठाने से बचते भी हैं. हार से बचने के लिए कई बार दो-दो सीटों से भी चुनाव लड़ा जाता है - लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं होता, कई बार चुनाव सिर्फ लड़ने के लिए भी लड़े जाते हैं. ऐसी चुनावी लड़ाइयां नेताओं के विरोध जताने का तरीका भर होती हैं.
कांग्रेस में एक छोर पर अगर अशोक गहलोत हैं, तो दूूसरी छोर पर शशि थरूर.
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनावों के इतिहास में जितेंद्र प्रसाद से लेकर राजेश पायलट तक के नाम लिये जा सकते हैं, लेकिन वे तो ढंग से विरोध भी नहीं जता पाये. सवाल तो तब भी उठाये गये थे जब राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनने जा रहे थे.
चुनावी राजनीति से उदाहरण देखना चाहें तो यूपी विधानसभा चुनाव में गोरखपुर अर्बन सीट पर भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद रावण का चुनाव लड़ने का मामला इसी कैटेगरी में आता है. शुरू में लगा था कि चंद्रशेखर पूरे विपक्ष के समर्थन से चुनाव मैदान में कूदने का फैसला किये होंगे, लेकिन धीरे धीरे बीएसपी, सपा और कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिये थे. चंद्रशेखर की हार तय थी.
अरविंद केजरीवाल की वाराणसी लोक सभा सीट से 2014 में बीजेपी के तब के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल का चुनाव लड़ने का मामला भी ऐसा ही रहा होगा. हो सकता है, ठीक पहले दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उनकी सीट से ही हरा डालने के बाद अरविंद केजरीवाल का हौसला बुलंद हो - और एकबारगी उनको लगा हो कि वो मोदी को हरा कर बड़े हीरो बन सकते हैं.
एक ताजा उदाहरण 2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव में नंदीग्राम सीट पर हुआ संग्राम भी रहा. ममता बनर्जी के लिए अपने ही सहयोगी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने का फैसला लेना काफी मुश्किल रहा होगा. जिस तरह का माहौल बना था, जोखिमभरा मामला तो चुनाव से पहले से ही लगने लगा था. फिर भी ममता बनर्जी ने हिम्मत दिखायी और पूरी ताकत से लड़ीं भी. ममता बनर्जी खुद को चुनाव हार गयीं, लेकिन ये उनके उसी फैसले का असर रहा कि तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की भविष्यवाणी सच करते हुए बीजेपी को 100 सीटों के भीतर ही समेट कर रख दिया था.
जिस माहौल में शशि थरूर कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने जा रहे हैं, उसके मुकाबले संयुक्त राष्ट्र महासचिव वाले चुनाव में वो काफी बेहतर स्थिति में थे - लेकिन वो अनंर्राष्ट्रीय डिप्लोमेसी के शिकार हो गये. सबसे बड़ी बात ये रही कि शशि थरूर की हार की वजह चीन नहीं बना था. ये बात खुद शशि थरूर ने एक मैगजीन में लिखे अपने लेख के जरिये बताया था.
अपने लेख के जरिये शशि थरूर ने बताया था कि कैसे वो निजी तौर पर चीन के राजनीतिक नेतृत्व से संपर्क किये और उनको आश्वस्त किया गया कि भारत के साथ जो भी रिश्ता रहा हो, लेकिन चीन उनके रास्ते की बाधा नहीं बनेगा.
सेक्रेट्री जनरल कोफी अन्नान का कार्यकाल खत्म होने के बाद हुए चुनाव में शशि थरूर को दक्षिण कोरिया के बान की मून से मुकाबला करना था. कोफी अन्ना के कार्यकाल में शशि थरूर अंडर सेक्रेट्री जनरल (संचार और सार्वजनिक सूचना) हुआ करते थे - शायद यही वजह रही कि कुछ देश शशि थरूर को कोफी अन्नान का आदमी मान कर चल रहे थे.
बान की मून के बाद दूसरे स्थान पर रहे शशि थरूर की लड़ाई को देख कर लगता है कि तब भारत की तरफ से अधिकृत उम्मीदवार बनाने के अलावा थोड़ी और कोशिशें हुई होतीं तो नतीजा अलग भी हो सकता था.
और ये बात तब पक्की भी हो गयी थी, जब अमेरिकी राजदूत जॉन बोल्टन की बातों से मालूम हुआ कि अमेरिका नहीं चाहता था कि शशि थरूर जैसा आजाद ख्याल राजनयिक संयुक्त राष्ट्र का महासचिव बने. जॉन बोल्टन के मुताबिक, तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलिजा राइस ने साफ तौर पर बोल दिया था, 'हमें किसी भी सूरत में मजबूत सेक्रेट्री जनरल नहीं चाहिये.'
असल में अमेरिका शशि थरूर में भी कोफी अन्ना वाली ही आजाद ख्याल शख्सियत का अक्स देखता था. कितनी अजीब बात रही कि जो शशि थरूर अकेले दम पर चीन तक को वीटो न करने के लिए मना लिये थे, अमेरिका के मामले में चूक गये या फिर कहें कि तब की मनमोहन सिंह सरकार के स्तर पर कोई गंभीर डिप्लोमेटिक प्रयास नहीं किया गया.
ये बात भी एक सीनियर अमेरिकी अधिकारी ने बतायी थी कि अमेरिका नये सिरे से कोफी अन्ना जैसी जहमत नहीं मोल लेना चाहता था. आखिरी दौर आते आते बान की मून इसलिए चुनाव जीत गये क्योंकि उनके खिलाफ किसी ने वीटो नहीं किया - और अमेरिका की तरफ से शशि थरूर के खिलाफ अमेरिका ने वीटो कर दिया था. वैसे तो बान की मून ने भी शशि थरूर को अपनी सेवाएं जारी रखने का ऑफर दिया था, लेकिन जिसे खुले मैदान में डंके की चोट पर चैलेंज किया हो, शशि थरूर उसके नीचे भला काम कैसे कर पाते?
ये कांग्रेस की मदद नहीं तो क्या है?
वही आजाद ख्याल शशि थरूर कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव आखिर क्यों लड़ रहे हैं, जबकि ये जगजाहिर है कि सब कुछ पहले से तय है. चुनाव प्रक्रिया के जरिये कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अशोक गहलोत का चुना जाना भी हर कोई तय मान कर चल रहा है.
अव्वल तो शशि थरूर के कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जीतने की कोई संभावना भी नहीं है, लेकिन एक पल के लिए मान लिया जाये कि शशि थरूर चुनाव जीत भी जाते हैं तो क्या वो उन परिस्थितियों में काम कर पाएंगे जिसके लिए अशोक गहलोत माहिर माने जाते हैं.
ताज्जुब की बात ये है कि शशि थरूर की जिस आजाद ख्याल खासियत की वजह से अमेरिका ने वीटो लगा दिया, भला राहुल गांधी उनको क्यों अप्रूव करेंगे. अब कोई ये कहे कि जब आजाद ख्याल वाले कन्हैया कुमार को राहुल गांधी कांग्रेस में ला सकते हैं तो शशि थरूर को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने में क्या दिक्कत है - ऐसे में ये समझना होगा कि शशि थरूर और कन्हैया कुमार के आजाद ख्याल बिलकुल अलग अलग हैं.
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