मोदी-राज में कश्मीरी पंडितों का अल्पसंख्यक हो जाना !
मैं एक कश्मीरी ब्राह्मण हूं. दो महीने पहले जब मेरे कश्मीर के घर में चोरी हुई तब पहली बार मुझे एहसास हुआ कि अपनी जड़ों से जुड़े रहना, भावनात्मक और आर्थिक दोनों तरह के जोखिमों से भरा होता है.
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मेरे कानों में अभी तक अल्पसंख्यकों की कहानी गूंज रही है. हो सकता इन कहानियां से आप भी रू-ब-रू हुए होंगे. ऐसा लग रहा है जैसे हमारा अतुल्य भारत अचानक से 'असहिष्णु भारत' बन गया है. आप मुझे अवसरवादी कह सकते हैं लेकिन फिर भी मुझे लगता है अल्पसंख्यक होने के इस खेल में कूदने का ये सही समय है. और मुझे भी अपने मन में किसी कोने में अल्पसंख्यक होने की भावनाओं का दावा ठोक ही देना चाहिए. एक ब्राह्मण होने के नाते मुझे भी मोदी और योगी के नेतृत्व वाले भारत में इस अल्पसंख्यक बातचीत का हिस्सा बन ही जाना चाहिए.
लेकिन मेरी सिर्फ एक पहचान से ही सारा समीकरण बदल जाता है. और मेरी वो पहचान है कि मैं एक कश्मीरी ब्राह्मण हूं. अब आपको एहसास हो ही गया होगा तो अब मैं अपने अल्पसंख्यक होने की स्थिति का दावा पेश करती हूं. मेरी बात सुनी जानी चाहिए.
जड़ों से जुड़े रहने की सजा
दो महीने पहले कश्मीर स्थित मेरे घर पर चोरी हो गई थी. घटना के बाद मुझे मेरे दोस्तों और 'दुश्मनों' दोनों ने ही मुझे चोरी की एफआईआर दर्ज नहीं कराने की सलाह दी थी. उनमें से एक ने कहा, 'एफआईआर के कारण फालतू में इलाके के पंडित घर की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित होगा और इससे सिर्फ मुश्किलें ही पैदा होंगी.' मैं नहीं चाहती थी कि अगली बार मेरा घर ढहा दिया जाए. इसलिए मैंने अपने सीने पर पत्थर रख लिया और एफआईआर दर्ज नहीं कराया. हालांकि इस सच ने मुझे कई तरह से झकझोर के रख दिया. पहली बार मुझे एहसास हुआ कि अपनी जड़ों से जुड़े रहना, भावनात्मक और आर्थिक दोनों तरह के जोखिमों से भरा होता है.
और यही अल्पसंख्यक होने की भावना है. आपको मुझे यह देना होगा.
अगर ईमानदारी से कहूं तो देश में नए राजनीतिक माहौल में अल्पसंख्यक होना या तो सुविधा का मामला है जिसकी आड़ में आप 'पीड़ित' होने का रोना रो सकते हैं- या फिर यह सिर्फ मन का वहम है और लोग इसके आदि हो गए हैं. आज की तारीख में भले ही आप सोने की पहिए वाली गाड़ी चलाते हों लेकिन फिर भी अपना ओबीसी नंबर प्लेट बनाए रखेंगे ताकि गाड़ी की सवारी का सफर सुहाना हो. या फिर एक मामला मेरी तरह का भी हो सकता है जहां अल्पसंख्यक की श्रेणी में आना 'परिस्थितिजन्य' हो सकता है.
हर बार जब भी मैं कश्मीर में पूजा के स्थानों पर जाती हूं तो अल्पसंख्यक होने की मेरी भावना और बढ़ जाती है. अपने ही देवताओं को विनाश की छाया में और सशस्त्र बलों की सुरक्षा में रहकर देखना सबसे दर्दनाक काम है. भक्ति को भय के साए में रहकर करना- ये एक ऐसी चीज है जिसे मैं पूजा के किसी भी जगह के लिए नहीं चाहूंगी- फिर चाहे वो एक मंदिर हो, एक मस्जिद, एक चर्च या फिर एक गुरुद्वारा हो. कोई भी पूजा स्थल विश्वास की स्वतंत्रता और मानव मुक्ति के प्रतीक हैं.
हमें परिस्थितियों ने अल्पसंख्यक बनाया
पिछले तीन दशकों में मैं कश्मीर के इतिहास के हर उतार-चढ़ाव में साक्षी रही हूं और अपनी जड़ों को कस कर पकड़ के रखा है. लेकिन पिछले छह महीनों से मैं अपने लिए एक ऐसा रास्ता खोजने की कोशिश कर रही हूं जिसके जरिए मैं बिना किसी झिझक के अपनी जड़ों तक जा सकूं. खैर अपने इस रुदाली वाली कथा को छोटा करते हुए सपाट शब्दों में अपनी बात रखती हूं. जब आप अपने विश्वास की आजादी, अपनी जड़ें और अपने घर को मातृभूमी को अपना कहने की स्वतंत्रता खो देते हैं तो इसे ही मैं 'अल्पसंख्यक' होना मानती हूं.
हमें राज्य से किसी तरह के मान्यता पाने की ख्वाहिश नहीं है. हम गर्व से कहते हैं कि हम कश्मीरी पंडितों हैं और अल्पसंख्यक समुदाय के हैं. हम न तो पैसे के लिए और ना ही ' मजहब' के नाम पर सैनिकों पर पत्थर मारने का काम करते हैं. हम 'पीड़ित' का रोना भी नहीं रोते. हम सभी ने अगर कुछ किया तो ये कि एक अन्यायपूर्ण इतिहास से उबरने और एक अवसरवादी 'निजाम' से बचकर निकलने में मेहनत की है.
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