महिषासुर के ‘आधुनिक मानस-पुत्र’
देवी दुर्गा के लिए वेश्या जैसे शब्दों का प्रयोग करना कौन सी श्रद्धा है? आप बेशक महिषासुर को पूजिए लेकिन, माँ दुर्गा जो देश की बहुसंख्य आबादी के लिए प्राचीन काल से परम पूजनीय रही हैं, के अपमान का आपको कोई अधिकार नहीं.
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जेएनयू प्रकरण पर लोकसभा में हो रही चर्चा के दौरान बोलते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने देश में वामपंथी ब्रिगेड द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरूपयोग से सम्बंधित कई तथ्य प्रस्तुत किए, जिनमे से एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य जेएनयू में मनाया जाने वाला ‘महिषासुर शहादत दिवस’ और इस देश की बहुसंख्य लोगों द्वारा माँ के रूप में पूजित पौराणिक पात्र देवी दुर्गा के लिए ‘वेश्या’ जैसे अश्लील विशेषणों के प्रयोग से सम्बंधित है. हालांकि यह तथ्य एकदम नया नहीं है क्योंकि, देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले कुछेक लोग इन बातों से जरूर परिचित होंगे मगर, देश की बहुसंख्य आबादी तो ऐसी बातों के विषय में सोच भी नहीं सकती. देश के किसी भी क्षेत्र और जाति के लोग हों, उनके लिए दुर्गा एक उपास्य देवी और शक्ति की प्रतीक हैं, जो संसार को कष्ट देने वाले महिषासुर और उसके जैसे अनेक दुष्टात्माओं का अंत करने के लिए समय दर समय प्रकट होती रही हैं. लोगों की यह मान्यता पूरी तरह से भारतीय पौराणिक आख्यानों जो दुर्गा-महिषासुर चरित्र का प्रमुख स्रोत रहे हैं, पर आधारित है.
दरअसल हमारे पुराणों में यह कथा है कि महिषासुर नामक दैत्य जिसकी उत्पत्ति पुरुष और महिषी (भैंस) के संयोग से हुई थी, ने तप करके ब्रह्मा से यह वर प्राप्त कर लिया कि उसे कोई न मार सके सिवाय स्त्री के. फिर उसने समस्त देवताओं को पराजित कर उनके भवनों पर अपना आधिपत्य जमा लिया और देवता चूंकि पुरुष थे इसलिए वर के प्रभाव के कारण उसे मार नहीं सके. तब सभी देवताओं ने अपनी शक्तियों को एकत्रित कर एक सर्वशक्तिमान देवी (स्त्री) को उत्पन्न किया, जिनने महिषासुर को काफी समझाया किन्तु जब वो न माना व कामातुर हो उनसे विवाह प्रस्ताव करने लगा तो विवश हो उसका वध किया. फिर कालांतर में यही देवी अपने कर्मानुसार दुर्गा, काली आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध हुईं. देवी और महिषासुर का युद्ध नौ दिन तक चला था और क्वार मॉस की दशमी तिथि को देवी ने महिषासुर का वध किया था, जिसके उपलक्ष्य में देश में आज क्वार महीने में नवरात्र आयोजित कर दशमी तिथि को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है.
अब इसी पौराणिक आख्यान के पात्रों को उठाकर जेएनयू वासी लाल सलामी प्रज्ञाचक्षुओं द्वारा एक नए हवा-हवाई इतिहास को गढ़ा गया है कि महिषासुर एक दलितोद्धारक, न्यायप्रिय और जनप्रिय राजा था, जिसको सवर्णों द्वारा प्रेरित एक चरित्रहीन स्त्री दुर्गा ने छल से मार दिया. इस प्रकार जब देश नवरात्र मनाता है तो ये गोमांस की दावत का आयोजन करने लगते हैं और विजयदशमी को ये अपने मानसिक पिता महिषासुर की शहादत के रूप में आयोजित करके बैठ जाते हैं. अब ये लाल सलामी मूर्ख देवी दुर्गा के लिए ‘वेश्या’ जैसे घृणित विशेषणों का प्रयोग करते हैं, इनका पूज्य महिषासुर भी यही करने की नाकाम कोशिश किया था. अर्थात कि इनकी और महिषासुर की मानसिकता एकदम समान रूप से स्त्री-विरोधी है, यह देखते हुए इन्हें ‘महिषासुर के आधुनिक मानस-पुत्र’ कहना अत्यंत समीचीन ही होगा.
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हालांकि हर बात में दूसरों से तथ्य और प्रमाण मांगने वाले ये महिषासुर के मुट्ठी भर आधुनिक मानस-पुत्र अपने इस मनगढ़ंत और वाहियात इतिहास के विषय में आजतक कोई ठोस प्रमाण नहीं दे सके है; बस हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स की तरह इस झूठ को बार-बार रट-रटकर सही साबित करने की नाकाम कोशिश में लगे रहते हैं. यहाँ तक कि इसपर झूठों, कपोल-कल्पित वाहियात तथ्यों और कुतर्कों से भरी पत्रिका तक निकाल चुके हैं. वैसे, इनके इस बौद्धिक कुकृत्य का विडंबनात्मक पक्ष ये है कि एक तरफ तो ये भारतीय पौराणिक इतिहास को मिथक और कपोल-कल्पित कहके खारिज करते हैं और दूसरी तरफ उसी से दुर्गा-महिषासुर जैसे चरित्रों को उठाकर मनगढ़ंत ढंग से पेश भी करते हैं. यह देखते हुए कह सकते हैं कि जैसे महिषासुर समय और आवश्यकतानुसार रूप बदल लेता था, वैसे ही उसके ये आधुनिक मानस-पुत्र भी अवसर देखकर चेहरे बदलने की कला में पूरे माहिर हैं.
वे कहते हैं कि यह इस पौराणिक आख्यान की दलित व्याख्या है. ऐसे में मेरी इन महिषासुर-पुत्रों से गुजारिश है कि इस देश के शहरी इलाकों से लेकर दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों तक कहीं भी दलितों से अपनी इस तथाकथित ‘दलित-व्याख्या’ की चर्चा करके जरा इसकी जन-स्वीकार्यता की जांच कर लें; दावा है कि इनके इस नवीन इतिहास को सुनने के बाद शायद ही कोई दलित ऐसा होगा जो इनको गरियाता हुआ अपने दरवाजे से न भगा दे. लात-जूते पड़ जाएं तो भी आश्चर्य नहीं. सच्चाई यही है कि इस देश की दलित-सवर्ण आदि कोई भी जाति हों, सबके लिए दुर्गा ही अलग-अलग रूपों में परम पूजनीय हैं न कि महिषासुर! मगर, यह बात दिल्ली के जेएनयू में बैठकर देश के बहुसंख्य दुर्गा भक्त लोगों के टैक्स के पैसे से प्राप्त सब्सिडी पर पढ़ रहे महिषासुर के इन आधुनिक मानस-पुत्रों को समझ में नहीं आ सकती क्योंकि, इन्हें इस देश और इसके सभी जाति-धर्म के वासियों की एक प्रतिशत भी समझ नहीं है. इनकी समझ का दायरा इनके लाल सलाम की बजबजाहट से शुरू होकर कभी महिषासुर को अपना ‘वैचारिक बाप’ तो कभी अफज़ल गुरु जैसे देशद्रोही दरिंदों को अपना जीवनादर्श मानकर खत्म हो जाता है.
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स्मृति ईरानी के वक्तव्य के बाद कांग्रेस-वामदल आदि इनके राजनीतिक संगठनों की तरफ से तर्क यह दिया गया कि पूजा तो देश में कई एक जगहों पर रावण की भी होती है, यह सबकी अपनी-अपनी श्रद्धा का विषय है. पर अपनी दो कौड़ी की राजनीति में अंधे हो रहे इन पतित नेताओं को कौन समझाए कि बेशक सबकी अपनी-अपनी श्रद्धा होती है लेकिन, उसका ये अर्थ नहीं कि किसी और की श्रद्धा का अपमान किया जाय. वे बताएं कि देवी दुर्गा के लिए वेश्या जैसे शब्दों का प्रयोग करना कौन सी श्रद्धा है? आप बेशक महिषासुर को पूजिए लेकिन, माँ दुर्गा जो देश की बहुसंख्य आबादी के लिए प्राचीन काल से परम पूजनीय रही हैं, के अपमान का आपको कोई अधिकार नहीं. फिर भी, अगर आप अपनी बातों को लेकर इतने ही प्रतिबद्ध हैं तो हिम्मत दिखाइये और पश्चिम बंगाल जो एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ अभी आपके वाम का कुछ राजनीतिक वजूद शेष है, की राजधानी कलकत्ता की सड़कों पर जाकर जरा अपने इस इतिहास का एक वाचन करके देखिये तो कि कितनी स्वीकार्यता है इसकी? देश में और सब जगहों से तो आप खारिज हो ही चुके हैं, कलकत्ता के कानों में भी जिस दिन आपके इस इतिहास का स्वर गया उस दिन वहां से भी आपका बचा-खुचा सूपड़ा साफ हो जाएगा. इसके बाद आराम से जेएनयू में बैठकर महिषासुर के आधुनिक मानस-पुत्र होने का अपना कर्तव्य निभाते हुए उसकी शहादत पर गर्वित होइएगा, विलाप करियेगा या मन करे तो अपना सिर धुनियेगा.
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