पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाथी के मुकाबले कौन ?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीएसपी के मजबूत किले को ढहाने के लिए सपा गठबंधन और बीजेपी ने पूरी ताकत लगाई है. इंडिया टुडे की ग्राउंड रिपोर्ट -
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सड़क किनारे के खंभे, मकानों के छज्जे, पेड़ों की डालियां और गलियों के मोड़, सब हल्का महसूस कर रहे हैं. उन पर लदे रहने वाले बेढंगे सियासी बैनर और पोस्टर उखाड़कर फेंक दिए गए हैं. दीवारों पर लिखी सियासी इबारतों पर भी कालिख पोत दी गई है. चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव की अधिसूचना क्या जारी की, बारहों महीने चलने वाला मानसिक चुनाव, वोटिंग मशीन में होने वाले असली चुनाव की आहट सुनकर न जाने कहां दुबक गया. हद तो यह है कि प्रचार के लिए गांव-गांव जा रहे प्रत्याशी पार्टी के झंडे तक के इस्तेमाल से बच रहे हैं. पुलिस और अर्द्धसैनिक बल जहां-तहां गाडिय़ों की सख्ती से चेकिंग करने में जुटे हैं. इस शुरुआती सफाई से लग रहा है कि चुनाव साफ-सुथरा होगा. पहले चरण में 11 फरवरी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 15 जिलों की 73 सीटों पर वोटिंग होनी है. यह इलाका पारंपरिक रूप से बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गढ़ रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा ने बाकी प्रदेश में खराब प्रदर्शन के बावजूद इस इलाके में अपनी इज्जत बचा ली थी. पार्टी पिछले दो साल से मेरठ और अलीगढ़ जैसे कमजोर रह गए जिलों को मजबूत करने में जुटी है.
2012 में इन विधानसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी (सपा) ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर 24 सीटें हासिल की थीं, जबकि बसपा ने खराब प्रदर्शन करके भी इतनी ही सीटें हासिल की थीं. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को 10, राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) को 9 और कांग्रेस को 5 सीटें मिली थीं. लेकिन 2012 के वसंत में हुए विधानसभा चुनाव के बाद 2014 की गर्मियों में लोकसभा चुनाव भी आया. और इस चुनाव ने पुरानी सांख्यिकी को बेमानी करते हुए मोदी लहर में सारी लोकसभा सीटें नरेंद्र मोदी की झोली में डाल दीं. जनरल वी.के. सिंह जैसे सियासी नौसिखिए गाजियाबाद सीट से देश में दूसरे सबसे बड़े अंतर से चुनाव जीते, तो जाट सम्मान का प्रतीक अजित सिंह अपने गढ़ बागपत में तीसरे नंबर पर रहकर चुनाव हार गए.
लेकिन 2017 का वसंत एक बार फिर नए मुहावरे गढ़ रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था और दृश्यावली का अभिन्न हिस्सा बन चुके पोपलर के पेड़ों के पत्तो इन दिनों झड़ रहे हैं. लगता है इसके साथ कई लोगों की पॉपुलरिटी भी झड़ी है. 2014 में जहां सिर्फ मोदी-मोदी बोला जाता था, वहीं 2017 में मोदी शब्द की जगह बीजेपी ने ली है. पहले जहां लहर की बातें होती थीं, वहीं आज पार्टी और प्रत्याशी के नाम से बात शुरू होकर, खट से जातीय समीकरणों की तरफ मुड़ जाती है. और यह सब गुणा-गणित करने के बाद यह भी देखना होता है कि किसकी सियासी भेड़ें किसके खेत में चरने चली गईं. दल-बदल इस कदर और इस तेजी से हो रहा है कि इस खबर के पढ़े जाने तक कितने नेताओं का सियासी बायोडाटा बदल जाएगा, कहा नहीं जा सकता.
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पश्चिम यूपी के इन 15 जिलों की यात्रा 16 जनवरी को शुरू की तो सबसे पहले गाजियाबाद की साहिबाबाद सीट से बसपा विधायक अमरपाल शर्मा से बात की. पूरे जोश में नजर आ रहे शर्मा ने कहा, ''इस बार कोई टक्कर में नहीं है. बीजेपी को इतने बड़े अंतर से चुनाव हराऊंगा कि उन्हें भी पता चलेगा चुनाव क्या होता है.'' शर्मा ने यह भी बताया कि 17 जनवरी को वे क्षेत्र में नहीं निकलेंगे, क्योंकि उस दिन उन्हें पर्चा भरना है. शर्मा की बातों को गंभीरता से न लेने की कोई वजह नहीं थी, क्योंकि पिछले चुनाव में बसपा ने गाजियाबाद की पांच में चार विधानसभा सीटें जीती थीं.
इस बातचीत के बीच मेरठ की तरफ बढ़ लिए. बीच में गाजियाबाद, मुरादनगर और मोदीनगर की विधानसभाएं पड़ीं. बदले हालात और सपा-कांग्रेस के घोषित और आरएलडी के साथ संभावित महागठबंधन के बीच इन सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस बसपा को कड़ा मुकाबला देती दिख रही हैं. मुरादनगर में बीजेपी ने अमरपाल त्यागी को टिकट दिया है. अमरपाल कांग्रेस से बीजेपी में आए दिग्गज नेता राजपाल त्यागी के बेटे हैं. प्रत्याशी के इस चयन ने बीजेपी को अचानक लड़ाई में ला दिया है. पश्चिम में बीजेपी ने बहुत सी सीटों पर अपने कार्यकर्ताओं को छोड़कर दलबदलुओं को तरजीह दी है. जैसे, मथुरा की बलदेव (सुरिक्षत) सीट पर आरएलडी के विधायक पूर्ण प्रकाश अब बीजेपी प्रत्याशी हैं. इसी जिले की छाता सीट से लक्ष्मी नारायण चौधरी बीजेपी के प्रत्याशी हैं. चौधरी मायावती की पिछली सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. इस सीट के वर्तमान आलएलडी विधायक तेजपाल भी आरएलडी छोड़ चुके हैं. टूंडला (सुरक्षित) सीट से बीजेपी ने तीन बार सपा सांसद रहे एस.पी. सिंह बघेल को मैदान में उतारा है. वहीं, बागपत की छपरौली सीट से बीजेपी प्रत्याशी सतेंद्र चौहान एक साल पहले ही आरएलडी छोड़कर बीजेपी में गए हैं.
उधर, बुलंदशहर की डिबाई और शिकारपुर सीटों से सपा के टिकट पर विधायक बंधु गुड्डू पंडित और मुकेश पंडित पहले ही राज्य सभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग कर बीजेपी के प्रति हमदर्दी जता चुके हैं. नोएडा की जेवर सीट पर कांग्रेस नेता धीरेंद्र सिंह बीजेपी में आ गए हैं. धीरेंद्र इलाके के संघर्षशील नेता रहे हैं. यमुना एक्सप्रेसवे के विरोध में जब यहां किसान आंदोलन चला था तो राहुल गांधी धीरेंद्र की मोटरसाइकल पर सवार होकर यहां घूमे थे. धीरेंद्र कहते हैं, ''मैं उन लोगों में से था, जिनकी राहुलजी के यहां सीधी एंट्री थी. लेकिन पार्टी में चापलूस के नीचे चापलूस पैदा हो गए हैं और काम करने वालों को काम ही नहीं करने दिया जा रहा था.'' लेकिन बीजेपी कार्यकर्ताओं को यह नागवार गुजरा. नोएडा में बाहरी प्रत्याशियों को टिकट देने के खिलाफ बीजेपी कार्यकर्ता सड़कों पर उतर हाए हैं.
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इस तरह का चुनावी पर्यटन और दलों में भी हुआ है. मसलन, बुलंदशहर की सिहाना सीट से कांग्रेस विधायक दिलनवाज खान अब बसपा के टिकट से मैदान में हैं. और 16 जनवरी की सुबह तक बसपा से पर्चा भरने की बात कर रहे साहिबाबाद के अमरपाल शर्मा, उसी शाम पार्टी से निकाल दिए गए. देर रात तक उनके बीजेपी से जुडऩे के कयास लगाए जाते रहे, लेकिन 17 जनवरी को वे कांग्रेसी बन गए. गाजियाबाद के एक कांग्रेसी नेता बताते हैं, ''इससे पार्टी को जरूर फायदा होगा, लेकिन अंदर की बात यह है कि शर्मा ने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी राज बब्बर की मदद की थी. आज प्रदेश अध्यक्ष बब्बर ने वह एहसान उतार दिया.''
बहरहाल, इस दल-बदल चिंतन के बीच गाड़ी को मोदीनगर से मेरठ की तरफ बढ़ाने के बजाए किठौर की तरफ मोड़ दिया. किठौर के बारे में पौराणिक धारणा यह है कि जब भगवान कृष्ण मथुरा से हस्तिनापुर जाते थे, तो यहीं विश्राम करते थे. कृष्ण की ठौर यानी किठौर. लेकिन इस समय इसका महत्व इसलिए है कि मेरठ की इस ग्रामीण सीट से अखिलेश यादव के कैबिनेट मंत्री शाहिद मंजूर तीन बार से विधायक हैं. और इस बार उन्हें बसपा के गजराज सिंह नागर से कड़ी टक्कर मिलने वाली है. किठौर तक पहुंचने से पहले धौलाना और हापुड़ विधानसभा भी रास्ते में पड़ती है.
कुछ आगे चले तो गन्ने और सरसों के मिले-जुले खेतों ने रास्ते को मनोरम बना दिया. बाएं हाथ पर एक खेत में गुड़ बनाने का कोल्हू दिखा तो रुक गए. गन्ने की पेराई के बाद रस बड़े-बड़े कड़ाहों में उबल रहा था. उसकी मीठी गंध से हवा में मादकता थी. बगल में गुड़ की धेलियां सजी हुई थीं. कोल्हू के मालिक गिरीश त्यागी एक कोने में खड़े 10-10 के सिक्कों में कुछ भुगतान कर रहे थे. सिक्के देखकर सोचा कि लगे हाथ इनसे नोटबंदी के सियासी असर की दरियाफ्त कर ली जाए. त्यागी लपककर बोले, ''मोदीजी ने बहुत अच्छा किया. कोई परेशानी नहीं है, इस बार बीजेपी को और वोट मिलेंगे.'' तो अभी आपका विधायक किस पार्टी का है, इस पर हाजिर जवाब यह था, ''समाजवादी पार्टी से धर्मेश तोमर विधायक हैं. उन्होंने इलाके में बहुत काम कराया है. हम तो उन्हीं से जुड़े हैं और उन्हीं से जुड़े रहेंगे.'' त्यागी एक साथ कई उलटबांसियां फेंक रहे थे. चुनावी सवालों पर जो लोग मौन नहीं रहते, वे अक्सर ऐसी ही पहेलियों में खूब बोलकर भी कुछ नहीं कहते.
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हापुड़ पार करने के बाद अतराड़ा में इलाहाबाद बैंक की शाखा के बाहर अच्छी खासी भीड़ नजर आई. वहां मौजूद कई लोग सुबह चार बजे से खड़े थे. त्यागी के उलट इन लोगों को लग रहा था कि चुनाव में नोटबंदी का असर हो सकता है. हालांकि इस सीट के चुनाव परिणाम नोटबंदी से ज्यादा असर इस बात का पड़ेगा कि बसपा के राज्यसभा सांसद मुनकाद अली कितने मुस्लिम वोटरों को बसपा प्रत्याशी की तरफ झुका पाते हैं. और कहीं शाहिद मंजूर और मुनकाद, दोनों ने अपना दम दिखा दिया तो यहां बीजेपी भी लड़ाई में आ सकती है. वैसे पिछले विधानसभा चुनाव में मेरठ में बसपा का खाता नहीं खुला था. यहां की सात में चार सीट बीजेपी और तीन सीट सपा के खाते में गईं थीं. ये हालात बदलने के लिए बसपा के वरिष्ठ नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के पुत्र और पश्चिमी यूपी में भाईचारा अभियान के प्रमुख अफजल सिद्दीकी पिछले दो साल से यहां डेरा डाले हैं. दिल्ली में पढ़े-लिखे अफजल गांव-गांव जाकर अब तक सैकड़ों भाईचारा सभाओं को संबोधित कर चुके हैं. आम तौर पर आधुनिक कपड़े पहने वाले अफजल के सिर पर इन बैठकों में क्रोशिया वाली टोपी जरूर नजर आ जाती है. पार्टी सूत्रों की मानें तो इस सघन अभियान के जरिए बसपा ने मेरठ और अलीगढ़ जैसे जिलों में भी अपनी पैठ मजबूत की है, जहां पिछले चुनावों में बसपा का खाता भी नहीं खुला था. इसके साथ ही वे मुजफ्फरनगर और बागपत जैसी अच्छी पकड़ वाले जिलों में दलित-मुस्लिम एकता को और मजबूत करने में जुटे हैं.
और इस दलित-मुस्लिम एकता ने इलाके की राजनीति पर एकछत्र राज करने वाले जाट समुदाय को उलझन में डाल दिया है. दलित जहां पहले ही जाटों के साथ वोट डालना पसंद नहीं करते थे, वहीं मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से मुस्लिम और जाट समुदाय में भी खाई चौड़ी हो गई है. इस खाई से अजित सिंह की आरएलडी के लिए वजूद का संकट खड़ा हो गया है. लंबे समय से जाट-मुस्लिम गठजोड़ आरएलडी का जनाधार रहा था. जाट-मुस्लिम खाई को इस बात से समझा जा सकता है कि आरएलडी के दिग्गज नेता कोकब हमीद के बेटे अहमद हमीद इस बार बसपा के टिकट से बागपत सीट से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं. बागपत जिले की वह छपरौली सीट भी इस समय आरएलडी के लिए सुरक्षित नहीं रही, जहां से पार्टी आज तक कभी नहीं हारी.
इस समीकरण के टूटने से जाट समुदाय दुविधा में है. लोकसभा चुनाव में उसने बीजेपी को वोट जरूर दिया, लेकिन उसके बाद से बीजेपी में उनकी खास सुनवाई नहीं हुई. मुजफ्फरनगर के युवा किसान नेता संजीव तोमर कहते हैं, ''हरियाणा में बीजेपी ने जाटों को पूरी तरह हाशिये पर डाल दिया. यहां भी आरक्षण की मांग नहीं सुनी.'' अखिल भारतीय जाट आरक्षण समिति के नेता यशवीर मलिक ने तो 8 जनवरी को खरड़ में बाकायदा बड़ी पंचायत कर बीजेपी का विरोध करने की बात कही. खतौली से कांग्रेस के नेता अमानतुल्लाह बताते हैं कि बीजेपी गांव के स्तर पर गंगा जल लेकर शपथ दिला रही है लेकिन इस बार लोग शायद झांसे में नहीं आएंगे. रिझाने की कोशिशों से मतदाताओं में दुविधा है. मुजफ्फरनगर, शामली और बागपत जिले इसी दुविधा से जूझ रहे हैं. और इसी दुविधा के कारण सपा को आरएलडी से गठबंधन करने में जरूरत से ज्यादा समय लग रहा है.
अगर गन्ना बेल्ट में ये दुविधा है तो आलू बेल्ट का मुकाबला भी कम दिलचस्प नहीं है. सादाबाद विधानसभा क्षेत्र से किस्मत आजमा रहे बसपा के पूर्व मंत्री रामवीर उपाध्याय आलू के खेतों के बीच बसे गांव जाजऊ में जनसंपर्क करते मिल गए. उपाध्याय को सतीश चंद्र मिश्र के बाद बसपा का दूसरा प्रमुख ब्राह्मण चेहरा माना जाता है. अगड़ी जातियों में बीजेपी के प्रति बढ़ते आकर्षण के बीच ब्राह्मणों को पार्टी के साथ जोड़े रखना उनकी बड़ी चुनौती है. वे पिछली बार सिकंदरा राऊ से मामूली अंतर से चुनाव जीते थे. उपाध्याय ने कहा, ''नोटबंदी के कारण आलू उगाने वाला किसान पूरी तरह बरबाद हो गया है. इस चुनाव में बीजेपी को इसका सबक मिल जाएगा.'' उपाध्याय से अपना दुखड़ा रोने आए प्रशांत कुमार ने इंडिया टुडे को बताया, ''8 नवंबर की रात नोटबंदी का ऐलान होने के बाद से आलू के दाम एकदम से गिरे. इस फैसले ने किसानों को तबाह कर दिया है. आप देखना इस इलाके में बीजेपी पूरी तरह साफ हो जाएगी.''
लेकिन बीजेपी ऐसा नहीं मानती. मथुरा सीट से बीजेपी प्रत्याशी श्रीकांत शर्मा का दो टूक कहना है, ''नोटबंदी के बारे में लोगों को बरगलाने की सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं. जनता मोदीजी के फैसले के साथ है. राष्ट्रनिर्माण के लिए देश कोई भी तकलीफ उठाने को तैयार है.'' बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव शर्मा इस बार मथुरा सीट पर कांग्रेस के नेता सदन प्रदीप माथुर को टक्कर देने उतर रहे हैं. शर्मा उन तेजतर्रार युवा नेताओं में हैं जो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बेहद करीब माने जाते हैं. शर्मा के समर्थक तो यहां तक मानते हैं कि अगर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी तो शर्मा की हैसियत मुख्यमंत्री से कम की नहीं होगी. इसके लिए उनको अपना पहला विधानसभा चुनाव बड़े अंतर से जीतना होगा. तीन चुनावों से माथुर की जीत का अंतर भले ही कम होता जा रहा हो, लेकिन इस बार उनके पास सपा का भी साथ है. पिछले चुनाव में सपा प्रत्याशी को भी यहां 50,000 के करीब वोट मिले थे. यानी मुकाबला कड़ा है.
उधर, आगरा दक्षिण से बीजेपी विधायक योगेंद्र उपाध्याय की ईदगाह रोड की कोठी पर 17 जनवरी को बीजेपी कार्यकर्ताओं की बैठक में आगे की रणनीति तैयार की जा रही है. लोगों से सहजता से घुल-मिल जाने वाले उपाध्याय कार्यकर्ताओं को तेजी से काम में लगने के लिए कह रहे हैं. नोटबंदी और जातिगत समीकरणों के सवाल को टालते हुए वे कहते हैं, ''यूपी विकास चाहता है. केंद्र और राज्य में समान विचारधारा की सरकार होगी तो विकास तेजी से होगा.'' केसरिया स्वेटर के ऊपर सफेद शॉल और सिर पर हिमाचली टोपी पहने उपाध्याय बार-बार इस बात की ताकीद कर रहे थे कि उनका नामांकन 19 जनवरी को सुबह 10.30 से 11 बजे होना है, क्योंकि पंडित ने यही शुभ मुहूर्त बताया है. बीजेपी और सपा, दोनों को यहां शुभ मुहूर्त की जरूरत है क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में जिले की नौ सीटों में से बीजेपी को दो और सपा को एक सीट से संतोष करना पड़ा था.
लेकिन पिछले चुनाव में सपा के गढ़ रहे अलीगढ़ में नजारा अलग है. पार्टी से नाम का औपचारिक ऐलान होने से पहले ही विधायक जफर आलम ने शहर में अपने चुनाव कार्यालय का उद्घाटन किया. आचार संहिता का पेच न फंसे इसलिए उनके कार्यकर्ताओं ने अपनी लाल टोपियों पर पार्टी का नाम लिखने की जगह 'अलीगढ़' लिख रखा है. अलीगढ़ी तालों की सबसे बड़ी कंपनी लिंक लॉक्स के मालिक जफर आलम दावे से कहते हैं, ''व्यापारी नोटबंदी पर कुछ कहे, लेकिन अकेले में कंधे पर सिर रखकर रो रहा है.''
और उसके रोने में भी चुनावी संभावनाएं तलाशी जाएंगी. बीजेपी भी इसे जान रही है, इसीलिए अलीगढ़ में आचार संहिता के बाद लगे पार्टी के आधिकारिक होर्डिंग में रोता किसान तो दिख रहा है, उसे दिलासा देते मोदी नहीं दिख रहे हैं. उधर, सत्ता विरोधी लहर न होने के बावजूद अखिलेश आखिर तक अपनी ताकत को तौल रहे हैं. लेकिन क्या इतना बसपा का गढ़ ढहाने के लिए काफी होगा?
रामवीर उपाध्याय
विधानसभा क्षेत्रः सादाबाद
मायावती की पिछली सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे रामवीर उपाध्याय पार्टी में सतीश चंद्र मिश्र के बाद दूसरा प्रमुख ब्राह्मण चेहरा हैं. उन्हें अपनी सीट जीतने के साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को साथ बनाए रखने का कठिन काम भी करना है. जाट प्रभाव वाली इस सीट पर उन्हें आरएलडी से कड़ी टक्कर मिल सकती है.
संगीत सिंह सोम
विधानसभा क्षेत्रः सरधना
मेरठ जिले की इस सीट से विवादित नेता एक बार फिर बीजेपी के टिकट से चुनाव मैदान में हैं. मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी सोम इस चुनाव को भी सांप्रदायिक रंग देने की तैयारी में हैं. उनकी गाड़ी से दंगों की सीडी जब्त की गई, जो तनाव फैलाने के लिए बांटी जा रही थी. उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हो गई है.
योगेंद्र उपाध्याय
विधानसभा क्षेत्रः आगरा दक्षिण
आगरा की इस शहरी सीट से उपाध्याय को बीजेपी ने दुबारा चुनाव मैदान में उतारा है. उनके सामने अपनी सीट बचाने के साथ ही बसपा के किले को ढहाने की चुनौती भी है. पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी जिले की 9 सीटों में से सिर्फ दो सीटें जीत पाई थी. उपाध्याय को लगता है कि मोदी लहर अभी कायम है.
दो पार्टी, दो चेहरे और अलग कहानी
अजित सिंह
अध्यक्ष राष्ट्रीय लोकदल पार्टी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में लंबे समय से दबदबा रखने वाले अजित सिंह करियर के मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में उनके गृह जिले बागपत की तीन में से दो सीटें बसपा ले गई थी. उसके बाद वे लोकसभा चुनाव भी हार गए. उनकी उम्मीदें महागठबंधन पर टिकी हैं, लेकिन यहां उन्हें मन मुताबिक सीटें नहीं मिल पा रही हैं. इस बार उनकी चुनौती उस छपरौली सीट को बचाने की जहां आएलडी आज तक कभी नहीं हारी. मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाट-मुस्लिम एकता टूट जाने से पार्टी के जनाधार को गहरी चोट पहुंची है. मंझे हुए नेता ने फिलहाल चुप्पी साध रखी है और वे बाजी पलटने वाली चाल का इंतजार कर रहे हैं.
अफजल सिद्दीकी
पश्चिम यूपी में बसपा भाईचारा प्रभारी
कई नेताओं को बसपा इसलिए छोडऩी पड़ी कि वे अपने बच्चों के लिए पार्टी में उचित जगह नहीं दिला पाए, लेकिन नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बेटे अफजल सिद्दीकी ने पिछले दो साल से पश्चिम यूपी में जिस बड़े पैमाने पर काम किया, उसमें बहनजी ने खुद अफजल को बड़ी जिम्मेदारी दी. इलाके में सैकड़ों भाईचारा सभाएं कर चुके अफजल की कोशिश पश्चिम में दलित-मुस्लिम समीकरण को फौलादी बना देने की है. वे लगातार यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि मुसलमानों का भविष्य बसपा के ही साथ में है. उन्हें लगता है कि सपा में लंबे समय तक चली अंतरकलह और आरएलडी का टूटा समीकरण बसपा के काम को और आसान बना देगा.
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