सियासत जैसा चाहेगी क्या वैसा ही स्कूलों में पढ़ेंगे बच्चे?
राज्य में जिस पार्टी की सरकार होगी क्या बच्चों को उसी पार्टी के हिसाब से स्कूलों में पढ़ना होगा. देश में लगता है अब यही हवा बह निकली है. कम से कम पश्चिम बंगाल और राजस्थान में तो ऐसा ही हो रहा है.
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पहल ममता बनर्जी ने बंगाल में की. शुरुआत राज्य के बोर्ड की ओर से संचालित स्कूलों में सातवीं कक्षा में पढ़ाई जाने वाली पर्यावरण विज्ञान की किताब से हुई. इस किताब में इंद्रधनुष के लिए पहले 'रोमधोनु' शब्द का इस्तेमाल होता था यानि 'राम का धनुष'. इसे बदल कर अब 'रोंगधोनु' कर दिया गया है. साथ ही आकाश का रंग बताने के लिए पहले किताब में 'आकाशी' शब्द का इस्तेमाल होता था. उसे भी बदल कर 'आसमानी' कर दिया गया.
बात यही तक रुक जाती तो गनीमत था. बात इससे भी आगे निकली. अब ममता बनर्जी सरकार ने आठवीं की इतिहास की किताब में बदलाव का फैसला किया है. बदलाव ऐसा कि बच्चे अब सिंगुर जमीन आंदोलन के बहाने ममता बनर्जी की महानता का ही पाठ पढ़ेंगे. यहीं नहीं तृणमूल कांग्रेस के दर्जन भर से अधिक नेताओं के नाम भी बच्चों को रटने पढ़ेंगे. इन नेताओं में पार्थ चटर्जी, मुकुल रॉय, पुर्णेंदु बासु, अशिमा पात्रा, डोला सेन, बृत्या बासु, अर्पिता घोष, सोवन चटर्जी, फिरहद हकीम, सोवनदेब चटर्जी, सुब्रता बक्शी, रबिंद्रनाथ भट्टाचार्जी, बेचाराम मन्ना आदि शामिल हैं.
पश्चिम बंगाल में स्कूली किताबों को रिडिजाइन करने के लिए जिम्मेदार एक्सपर्ट कमेटी के चेयरमैन अवीक मजूमदार इन बदलावों को पूरी तरह जायज ठहराते हैं. मजूमदार के मुताबिक 'इंद्रधनुष का राम या लक्ष्मण से कोई लेना देना नहीं है. ये सिर्फ रंगों का धनुष है. इसलिए हमने 'राम' की जगह 'रोंग' का इस्तेमाल करने का फैसला किया जिसका बांग्ला में अर्थ 'रंग' होता है. मजूमदार सिंगुर के जरिए चैप्टर में ममता बनर्जी और टीएमसी नेताओं के नाम जोड़ने को भी सही बताते हैं. उनका कहना है कि अगर उन्होंने आंदोलन की अगुआई की है तो उनका नाम जोड़ना तर्कसंगत है. वो सवाल भी करते हैं कि क्या किसी को इसलिए शामिल नहीं किया जाए कि उसका एक सियासी पार्टी से ताल्लुक है.
बंगाल से हटकर राजस्थान की बात की जाए तो वहां भी हाल में बारहवीं की अर्थशास्त्र की किताब में बदलाव का फैसला किया गया है. इस किताब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले और कैशलेस अर्थव्यवस्था पर नए चैप्टर को जोड़ा जा रहा है,.राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष बीएल चौधरी का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया और कैशलेस मिशन को आगे बढ़ाने के मकसद से स्कूल सिलेबस में नोटबंदी और कैशलेस अर्थव्यवस्था का पाठ जोड़ा जा रहा है.
अगर सियासत से हट कर सामाजिक व्यवस्था की बात की जाए तो महाराष्ट्र के स्कूलों में क्या पढ़ाया जा रहा है, उस पर भी नजर डाल ली जाए. महाराष्ट्र राज्य बोर्ड की 12 वीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की किताब में एक चैप्टर में बताया गया है कि देश मे दहेज की बुराई जारी रहने की वजह कुरुपता है. चैप्टर में लिखा गया है-
"अगर लड़की कुरूप या दिव्यांग है तो उसकी शादी करना मुश्किल हो जाता है. इस तरह की लड़कियो की शादी के लिए दूल्हा और उसका परिवार अधिक दहेज मांगते हैं. ऐसी लड़कियों के माता-पिता असहाय होते हैं और दूल्हे और उसके परिवार की मांगों के हिसाब से दहेज देते हैं. इससे दहेज की कुप्रथा को बढ़ावा मिलता है."
महाराष्ट्र में इस मामले ने तूल पकड़ा तो राज्य के शिक्षामंत्री विनोद तावड़े सफाई देते नजर आए. उनका कहना है कि दहेज संबंधी चैप्टर पिछली सरकार के वक्त चार साल पहले जोड़ा गया था. तावड़े ने जांच कराने की बात करने के साथ ही कहा कि सियासत और शिक्षा को आपस में नहीं जोड़ा जाना चाहिए.
तीन राज्यों के स्कूली किताबों के किस्से आपने पढ़ लिए. यहां बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि क्या अब जिस राज्य में सरकार बदलेगी, उसमें सत्ता मे आने वाली पार्टी के हिसाब से ही क्या स्कूली किताबों को भी बदल दिया जाएगा. यानि आज छात्र कुछ पढ़ रहे हैं तो कल उन्हें कुछ और पढ़ना पढ़ेगा. आखिर शिक्षा से राजनीति का ये घालमेल क्यों? सियासत अपने फायदे के लिए देश के नौनिहालों को मोहरा क्यों बनाना चाहती है?
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