सुप्रीम कोर्ट के बदले रुख से स्पष्ट है, गे कपल की विवाह की चाहत अधूरी ही रहेगी...
हां, सामाजिक संरचना में समलैंगिकों को वे सहूलियतें ज़रूर मिल जायेंगी जिनसे वे वंचित हैं. ऑन ए लाइटर नोट कहें, अन्यथा न लीजिएगा, साजन बिना सुहागन ही सुहाग के फायदे मिल जाएंगे. बिलकुल 'ना' से तो थोड़ा 'हां' हो रहा है तो फ़िलहाल संतोष करें.
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हां, सामाजिक संरचना में समलैंगिकों को वे सहूलियतें ज़रूर मिल जायेंगी जिनसे वे वंचित हैं. ऑन ए लाइटर नोट कहें, अन्यथा न लीजिएगा, साजन बिना सुहागन ही सुहाग के फायदे मिल जाएंगे. चूंकि संवैधानिक बेंच को लगा कि पर्सनल लॉ कानून में घुसे बगैर सेम सेक्स मैरिज को मान्यता देना मुश्किल है, मैराथन सुनवाई के छठवें दिन बेंच ने आखिरकार सरकार से पूछ ही लिया कि वह 3 मई तक बताएं सेम सेक्स मैरिज नहीं होगी तो उनकी रोजमर्रा की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए वो क्या करने जा रही है. कई मसले हैं मसलन विरासत, मेंटेनेंस, एडॉप्शन, नॉमिनेशन, जिनसे जुड़े कानूनों में दलाव करना पड़ेगा और जैसा सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बताया कि अगर सेम सेक्स मैरिज को मान्यता देनी होगी तो संविधान के 158 प्रावधानों, भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और 28 अन्य कानूनों में बदलाव करना होगा. निःसंदेह शीर्ष न्यायालय की संवैधानिक पीठ प्रो समलिंगी विवाह है और वश चलता तो सेम सेक्स विवाह को मान्यता देते हुए विधायिका को समयबद्ध सीमा में कानूनों में समुचित जोड़ घटाव और बदलाव के लिए निर्देश भी दे देती. याद कीजिए सुनवाई का पहला दिन जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वो पर्सनल लॉ के क्षेत्र में जाए बिना देखेगा कि क्या साल 1954 के विशेष विवाह कानून के ज़रिए समलैंगिकों को शादी के अधिकार दिए जा सकते हैं.
अपनी बातों से सुप्रीम कोर्ट ने गे/ लेस्बियन कपल को चिंता में डाल दिया है
परंतु सात दिनों से चल रही सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणी ने भी अकाट्य तर्क रखे और तदनुसार पीठ ने माना भी कि कानून बनाना उनका काम नहीं है, ये संसद और विधानसभाओं का काम है. अंततः बेंच को कहना पड़ा कि इस वक्त हम शादी के सवाल पर विचार नहीं कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रो मंशा से सुनवाई शुरू की थी, अब इसे हठी होना ही समझिये जब सातवें दिन पीठ याचिकाकर्ताओं को आभास कराती है कि अगर अदालत विधायी क्षेत्र में उद्यम नहीं कर सकती (चूंकि कर भी नहीं सकती) तो भी इसका इरादा उन्हें सामाजिक सुरक्षा और कल्याण के मद्देनजर असहाय नहीं छोड़ना है और तदनुसार हम सुनिश्चित करेंगे कि भविष्य में उनका बहिष्कार न हो.
जनमानस में एक बात तो लंबे अरसे से घर कर चुकी है कि अरसे से तक़रीबन अस्पर्शनीय समझे जाने वाले या पड़े महत्वपूर्ण मामलों में आजकल सिर्फ सुप्रीम बैलेंसिंग होती है. कहने का मतलब पक्ष विपक्ष दोनों पार्टियों को मुगालता हो जाए उसकी जीत हुई. और शीर्ष न्यायालय इस मामले में भी यही करने जा रही है.पहले तो केंद्र सरकार को आभास दे दिया कि वह अपीलकर्ताओं को फेवर देने जा रही है जिसके दबाव में आकर आखिरकार सरकार ने कह दिया कि वह सेम सेक्स कपल्स को सोशल बेनिफिट्स देने पर विचार करने के लिए समिति बनाने को तैयार है और तदनुसार समलैंगिक जोड़ों की 'चिंताओं' को दूर करने के लिए प्रशासनिक कदमों का पता लगाने के लिए केंद्र कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक पैनल गठित करने पर सहमत हो गया है, याचिका कर्ता अपने सुझाव इस कमिटी को भेज सकते हैं.
और ज्योंही सॉलिसिटर जनरल ने माननीय न्यायालय को केंद्र के प्रस्ताव की सूचना दी, बेंच ने अपीलकर्ताओं को एक तरह से सांत्वना दे दी कि बिलकुल 'ना' से तो थोड़ा 'हां' हो रहा है तो फ़िलहाल संतोष करें. कहां सदी लग गई थी समलिंगी संबंधों को जायज ठहराने में और अब तो मात्र पांच साल में ही सामाजिक सुरक्षा भी मिल रही है. एक बार ये हो गया तो खुल्लमखुल्ला विवाह भी होने लगेंगे और फिर शीघ ही क़ानूनी मान्यता भी मिल ही जायेगी. पिछले साल ही कोलकाता में एक गे कपल( फैशन डिज़ाइनर अभिषेक रे और उसके पार्टनर चैतन्य शर्मा ने) की बाकायदा हिंदू रीति रिवाज से हुई भव्य शादी ने खूब सुर्खियां बटोरी थी.
शीर्ष न्यायालय ने थोड़ी कूटनीति भी खेली और केंद्र सरकार की पीठ थपथपा ही दी कि उसे लग रहा है कि केंद्र अब समलैंगिक लोगों के एक साथ रहने को स्वीकार करता दिख रहा है. चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने भी डिप्लोमेटिक अंदाज में कहा कि 'अदालत कहती है मान्यता, तो इसका मतलब शादी के बारे में मान्यता नहीं है, इसका मतलब ये हो सकता है कि वो मान्यता जिससे एक जोड़ा कुछ लाभ के लिए योग्य हो जाता है और दोनों लोगों के जुड़ाव को विवाह से तुलना करने की ज़रूरत नहीं है.'
और इसी अंदाज को बरकरार रखते हुए वरिष्ठ और शायद भावी गे जज सौरभ कृपाल को भी पीठ ने बताया कि यदि अदालत कतिपय युवा लोगों की भावनाओं के अनुसार चलेगी, तो इससे अन्य लोगों की भावनाओं पर बहुत अधिक दबाव पड़ेगा और न्यायालय ऐसा नहीं कर सकती चूंकि इसे संवैधानिक जनादेश के अनुसार चलना होगा, लोकप्रिय नैतिकता के अनुसार नहीं.अंततः होगा क्या ? केंद्र सरकार समिति बनाएगी, लंबी प्रक्रियाओं का दौर चलेगा.
सरकार का उद्देश्य यही होगा कि समिति की रिपोर्ट 2024 चुनाव के पहले किसी हाल में नहीं आए और इस उद्देश्य की पूर्ति हो भी जाएगी बगैर किसी आपत्ति के क्योंकि इतना समय तो किसी भी समिति के लिए उचित ही माना जाता रहा है. और अंत में एक वरिष्ठ अधिवक्ता की मानसिकता पर कहे बिना नहीं रहा जा रहा है. राजनीति ने उनकी विधायी कुशाग्रता को कुंठित ही कर दिया है.
सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल और एडवोकेट जनरल को साथ साथ आया देख वे तुच्छ टिप्पणी करने से बाज नहीं आए कि ये डबल इंजन सरकार नहीं बल्कि डबल बैरल सरकार है. उन्हें लगा वे म्यूट पर हैं लेकिन जब एसजी तुषार ने उनको एक्सपोज़ करते हुए कहा कि वे सुन रहे हैं, उन्होंने ख़ुद को म्यूट किया. ख़ैर ! उनकी पुरानी आदत है, स्वयं को म्यूट नहीं कर पाते तभी तो बहुत पहले एक “एपिसोड” हो गया था. दरअसल सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी के राजनीतिक रवैये ने अपीलकर्ताओं के मामले को हतोत्साहित सा कर दिया.
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