शुभेंदु अधिकारी मुख्यमंत्री बन सकते हैं, अगर वो बीजेपी का एक सपना पूरा कर दें
शुभेंदु अधिकारी (Suvendu Adhikari) नंदीग्राम से ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के खिलाफ बीजेपी की तरफ से अधिकृत कर दिये गये हैं - बीजेपी ने साफ कर दिया है कि उसका कोई मुख्यमंत्री चेहरा नहीं (BJP No CM Face) होगा - तो क्या शुभेंदु के लिए कोई स्कोप नहीं है?
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कुछ चीजें होनी ही होती हैं. शुभेंदु अधिकारी (Suvendu Adhikari) को नंदीग्राम से बीजेपी उम्मीदवार बनाया जाना भी कुछ कुछ वैसा ही है - ये तो होना ही था जैसा. ये तो कहना ठीक नहीं होगा कि शुभेंदु अधिकारी की मन मांगी मुराद पूरी हो चुकी है.
विधानसभा में एंट्री मिलते ही हर नेता की इच्छा तो मुख्यमंत्री (BJP No CM Face) की कुर्सी पर बैठने की ही होती है, जैसे हर सांसद प्रधानमंत्री बनना चाहता है. मुश्किल तो ये है कि चुनाव जीतने की सूरत में भी शुभेंदु अधिकारी की ये ख्वाहिश पूरे होने की संभावना कम ही है. ये तो शुभेंदु अधिकारी भी पहले से ही जानते और समझते होंगे. हो सकता है यही वो बात हो जो उनको ऐसा फैसला लेने के लिए मजबूर की हो जिसके बाद वो यहां तक का सफर पूरा किये हों.
तृणमूल कांग्रेस में शुभेंदु अधिकारी की भूमिका भी करीब करीब वैसी ही होगी जैसी कांग्रेस में हिमंता बिस्वा सरमा की होती होगी. अपने बारे में सोचते वक्त शुभेंदु अधिकारी के सामने भी हिमंता बिस्व सरमा का चेहरा सामने आता ही होगा. जैसे हिमंता बिस्व सरमा अपनी जगह कांग्रेस नेता गौरव गोगोई की पूछ बढ़ने से खफा थे, शुभेंदु अधिकारी की भी तृणमूल कांग्रेस सांसद अभिषेक बनर्जी से नाराजगी थी. शुभेंदु अधिकारी ने भी हिमंता बिस्व सरमा की ही तरह पाला बदलने का फैसला ये सोच कर किया होगा कि जब मुख्यमंत्री बनने का स्कोप नहीं बचा है तो वहीं चलो जहां सम्मान भी मिले और थोड़ी हैसियत भी बनी रहे. अभी तक तो शुभेंदु अधिकारी की बीजेपी में पूछ हिमंता बिस्व सरमा जैसी ही है. आने वाले दिनों में उनका कद घटेगा, बढ़ेगा या जहां है वहीं कायम रहेगा ये निश्चित तौर पर वक्त ही तय करेगा - और काफी हद तक नंदीग्राम के साथ साथ पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे भी.
बीजेपी में फिलहाल ज्योतिरादित्य सिंधिया भी वैसे ही दौर से गुजर रहे होंगे. ये तो है कि शिवराज सिंह मंत्रिमंडल में अपने समर्थकों के लिए सिंधिया ने काफी कुर्सियां सुरक्षित कर ली हैं, लेकिन वे मुख्यमंत्री बनवाने में कोई अलग भूमिका तो नहीं ही निभा सकती है.
सवाल है कि क्या शुभेंदु अधिकारी बीजेपी में वो सब हासिल कर सकते हैं जो उनको तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने नहीं दिया? ये तो पूरे नॉर्थ ईस्ट में बीजेपी का परचम लहराने के बाद भी अब तक हिमंता बिस्व सरमा को भी नहीं नजर आ रहा होगा - और न ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही अभी तक ऐसे कोई संकेत समझ में आ रहे होंगे. अभी तो वो इतना ही चाहते होंगे कि किसी तरह मोदी कैबिनेट में उनके लिए भी एक ठिकाना मिल जाये. 2019 में गुना गंवाने के बाद 2020 में बीजेपी ने राज्य सभा से ही सही संसद में तो पहुंचा ही दिया है.
ऐसे नेताओं के लिए उम्मीद की एक किरण राजस्थान बीजेपी के अध्यक्ष सतीश पूनिया के उस बयान में नजर आ सकती है जो सचिन पायलट के सिलसिले में सामने आया था, वरना, केरल के श्रीधरन प्रकरण के बाद तो नये सिरे से संदेह पैदा होने लगे हैं.
शुभेंदु-ममता जंग के आगे क्या है
मुख्यमंत्री पद का चेहरा न सही, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव होने तक शुभेंदु अधिकारी वीआईपी उम्मीदवार तो बने ही रहेंगे. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के पश्चिम बंगाल दौरे में भगवा धारण करने वाले शुभेंदु अधिकारी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोलकाता रैली से ठीक पहले नंदीग्राम से उम्मीदवार घोषित किया है - और पार्टी के पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय का दावा है कि बिग्रेड ग्राउंड में प्रधानमंत्री मोदी की रैली बंगाल चुनाव को दिशा देने वाली होगी. पहले तो फिल्म स्टार मिथुन चक्रवर्ती के मोदी की रैली में ही बीजेपी में शामिल होने की चर्चा रही, लेकिन अब आशंका के बादल वैसे ही छाये हुए हैं जैसे सौरव गांगुली को लेकर. कुछ दिन पहले चर्चा रही कि सौरव गांगुली को मोदी की रैली में ही मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जा सकता है, लेकिन पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष के बयान के बाद वो चर्चा भी थम गयी.
नंदीग्राम के नतीजे से जुड़ा है शुभेंदु अधिकारी का राजनीतिक भविष्य
वैसे पश्चिम बंगाल में बीजेपी के मुख्यमंत्री पद को लेकर कैलाश विजयवर्गीय ने काफी हद तक तस्वीर साफ ही कर दी है. उनसे पहले अमित शाह ने बस इतना ही बताया था कि बीजेपी के सत्ता में आने की स्थिति में जो भी मुख्यमंत्री बनेगा वो बंगाल की मिट्टी का ही बेटा होगा.
अमित शाह के बयान के हिसाब से देखें तो अभी से ही शुभेंदु अधिकारी को निराश भी नहीं होना चाहिये. ये आम धारणा जरूर है कि बीजेपी का मुख्यमंत्री होने के लिए संघ की पृष्ठभूमि अनिवार्य शर्त है, लेकिन लगता तो ऐसा भी है कि ये कोई आखिरी शर्त नहीं है.
पहले बीएस येदियुरप्पा का कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर कब्जा और फिर केरल में मेट्रोमैन ई. श्रीधरन के संकेत से ये तो साफ हो ही चुका है कि बीजेपी में 75 साल की उम्र सीमा सिर्फ सीनियर बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और कुछ अन्य नेताओं के लिए बनायी गयी थी. हालांकि, श्रीधरन की मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी को लेकर केंद्रीय मंत्री वी. मुरलीधरन का बयान और तीन घंटे के भीतर ही खंडन ने नये सिरे से संशय की स्थिति पैदा कर दी है.
शुभेंदु अधिकारी जैसे नेताओं को उम्मीद कायम रखने के लिए राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष सतीश पुनिया का वो बयान कभी कभार याद कर लेना चाहिये जिसमें उनका कहना था कि सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाये जाने पर विचार किया जा सकता है. ये तभी की बात है जब सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच विवाद चरम पर था. हो सकता है कि ऐसा बयान राजस्थान बीजेपी के अंदर तात्कालिक राजनीतिक हालात की उपज भी हो. राजस्थान में बीजेपी के लिए सबसे बड़ी दिक्कत वसुंधरा राजे से निबटना है.
जहां तक पश्चिम बंगाल के लिए बीजेपी के मुख्यमंत्री पद का सवाल है, कैलाश विजयवर्गीय के बयान से तस्वीर काफी हद तक साफ भी हो चुकी है. हालांकि, उनके बयान में भी लोचा नजर आ रहा है.
कैलाश विजयवर्गीय का दावा है कि जिन राज्यों में बीजेपी सत्ता में नहीं होती - वहां मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया जाता बल्कि चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाता है. अब अगर ये बदलाव अभी अभी हुआ है तो बात अलग है, नहीं तो ऐसे कई उदाहरण हैं जो कैलाश विजयवर्गीय के दावे से मेल नहीं खाते.
1. असम में 2016 कि विधानसभा चुनाव में बीजेपी सर्बानंद सोनवाल को पहले से ही मुख्यमंत्री का चेहरा बना कर मैदान में उतरी थी. तब सर्बानंद सोनवाल केंद्र में मंत्री हुआ करते थे. तब एक और खास बात रही, असम चुनाव से ठीक पहले बीजेपी को बिहार चुनाव में भारी शिकस्त मिली थी और उसे लेकर बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल की तरफ से सख्त बयान सामने आया था.
2. हिमाचल प्रदेश में 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी के मुख्यमंत्री पद का चेहरा प्रेम कुमार धूमल घोषित किये गये थे - लेकिन वो चुनाव हार गये और फिर जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री बनाये गये.
3. कर्नाटक तो अपवाद ही रहा है. 2018 में कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव हुए और वहां तो बीएस येदियुरप्पा पहले से ही और खुद ही खुद को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर चुके थे. बहुमत से दूर रह जाने के बाद भी मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब बहुमत साबित करने के लिए समय सीमा तय कर दी तो इस्तीफा देकर भाग खड़े हुए. करीब सवा साल बाद जरूर कुमारस्वामी सरकार को गिराकर सीएम की कुर्सी हासिल कर लिये और अब भी आबाद हैं. बीच बीच में बगावती स्वर उठते रहते हैं लेकिन फिर बीजेपी नेतृत्व के हस्तक्षेप से शांत भी हो जाते हैं.
कैलाश विजयवर्गीय के दावे से ये चीजें मेल तो नहीं ही खातीं, एक खास बात ये भी है कि ऐसा तभी हुआ जब बीजेपी तीनों ही राज्यों में से किसी में भी सत्ता में नहीं थी - और तीनों ही राज्यों तब कांग्रेस की सरकारें थीं.
नतीजों पर निर्भर होगा शुभेंदु का भविष्य
देखा जाये तो शुभेंदु अधिकारी ने सिर्फ पाला बदला है, अपनी भूमिका नहीं - अब तक वो जो कुछ भी ममता बनर्जी के लिए करते आ रहे थे वही सारे काम अब वो बीजेपी के लिए कर रहे हैं या आगे भी करते रहने की संभावना है.
सवाल ये है कि क्या वो वही सब चीजें बीजेपी को भी दिला सकते हैं, जो अब तक उनके जरिये ममता बनर्जी को मिलती रहीं. माना तो ये भी जाता रहा है कि ममता बनर्जी को 2011 में नंदीग्राम आंदोलन के जरिये सत्ता दिलाने वाले शुभेंदु अधिकारी ही हैं.
हालांकि, ममता बनर्जी ऐसे दावों को खारिज करती हैं. ममता बनर्जी कहती हैं कि लोग आते जाते रहते हैं और उससे तृणमूल कांग्रेस की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. ममता बनर्जी ये भी याद दिलाती हैं कि जब तृणमूल कांग्रेस बनी थी तब तो ये लोग नहीं थे बल्कि बाद में आये थे.
अब ये इस बात पर निर्भर करता है कि क्या बीजेपी भी शुभेंदु अधिकारी का ममता की तरह इस्तेमाल कर सकती है? इस्तेमाल से मतलब चुनावी जीत में जरूरी टूल वाले रोल से है.
अगर शुभेंदु अधिकारी अपने नहीं बल्कि ममता के बूते मैदान में बने हुए थे तो ये बीजेपी की क्षमता पर निर्भर करेगा कि वो शुभेंदु का कितना फायदा उठा पाती है. शुभेंदु से पहले मुकुल रॉय को पार्टी में लाने का बीजेपी का यही मकसद था, लेकिन मुकुल रॉय पूरी तरह फेल रहे. क्योंकि मुकुल रॉय जो कुछ करते रहे वो ममता के नाम पर ही करते रहे - शुभेंदु का भी वही हाल है, ममता के साथ शुभेंदु के पूरे परिवार की राजनीति चलती आयी है.
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