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Updated: 23 नवम्बर, 2020 12:14 PM
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अब तो नहीं, लेकिन पहले राहुल गांधी (Rahul Gandhi) जरूर कहा करते थे कि वो सिस्टम को बदलना चाहते हैं. प्रधानमंत्री बनने को लेकर पूछे जाने पर कहा करते थे कि उनके पास प्लस प्वाइंट है, लेकिन उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं. सिस्टम तो जल्दी नहीं बदलता, लेकिन व्यक्ति को जरूर बदल देता है. राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद तब स्वीकार किया जब कभी भी प्रधानमंत्री बन जाने का मौका उनके हाथ से फिसल चुका था. बदले माहौल में, हो सकता है कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए, राहुल गांधी कहने लगे थे कि अगर कांग्रेस को आम चुनाव में बहुमत मिला तो वो प्रधानमंत्री बन सकते हैं, लेकिन आम चुनाव में तो उनकी अमेठी की सीट तक चली गयी - और उसी के चलते कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी भी छोड़नी पड़ी.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में तो ऐसा लगा जैसे कांग्रेस भी अरविंद केजरीवाल की सरकार बन जाने की पक्षधर रही, लेकिन अभी अभी बिहार चुनाव में भी राहुल गांधी को आम चुनाव जैसा ही झटका लगा है. बिहार चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर राहुल गांधी बहुतों के निशाने पर हैं. आरजेडी नेता तो उनके पिकनिक मनाने को लेकर ताने मार रहे हैं, कांग्रेस के भीतर भी सवाल उठने लगे हैं - जैसे हारते रहने की आदत पड़ती जा रही हो.

एक तरफ कांग्रेस का ये हाल है, दूसरी तरफ तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) छोटी छोटी बारीकियों पर गौर करते हुए बिहार चुनाव के नतीजों की समीक्षा कर रहे हैं - और फटाफट एक्शन भी लेते जा रहे हैं. आरजेडी में अनुशासन को लेकर तेजस्वी यादव के सख्ती भरे रवैये को लालू यादव के जमाने से बिलकुल अलग देखा जा रहा है.

बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद कमेटियां तो कांग्रेस में भी बनायी गयी हैं, लेकिन वे सब राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक और विदेश मामलों को लेकर गठित हुई हैं. अब तक तो ऐसा कोई भी कदम देखने को नहीं मिला है जिससे लगे कि कांग्रेस पार्टी बिहार चुनाव के नतीजों को लेकर किसी तरह से चिंतित हो. कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) जैसे नेताओं की तरफ से चिंता जरूर जतायी गयी है, लेकिन वो तो नक्कारखाने की तूती ही समझे जा रहे हैं.

तेजस्वी यादव से सीखने लायक बातें

राहुल गांधी के सीखने लायक चीजें तो तब भी हुआ करती थीं जब वो तेजस्वी यादव के साथ बिहार चुनाव प्रचार के दौरान मंच शेयर कर रहे होते थे. जिस तरह तेजस्वी यादव अपने एजेंडे और चुने हुए चुनावी मुद्दों पर फोकस नजर आते थे, राहुल गांधी कभी नहीं दिखे.

राहुल गांधी के भाषण में नीतीश कुमार का जिक्र जरूर आता था, लेकिन घूम फिर कर वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खामियां गिनाने में ही दिलचस्पी लेते देखे जाते रहे. बिहार चुनाव में राहुल गांधी के भाषण पर कांग्रेस नेता फुरकान अंसारी की टिप्पणी रही कि वो किसी को समझ में ही नहीं आता. वैसे इस टिप्पणी के लिए उनको कांग्रेस मुख्यालय की तरफ से नोटिस भेजा जा चुका है.

लालू यादव की गैरमौजूदगी में 2015 जितनी आरजेडी की सीटें तो तेजस्वी यादव भी नहीं दिला सके लेकिन सबसे बड़ी पार्टी जरूर बना दिया. 80 की जगह इस बार आरजेडी की सीटें तो 75 ही आयीं लेकिन वो बीजेपी की 74 से ज्यादा जरूर रहीं. कांग्रेस की सीटों की बात करें तो 70 सीटों पर लड़ कर भी महज 19 पर ही जीत मिली, जबकि 2015 में ये संख्या 27 रही.

rahul gandhi, tejashwi yadavज्ञान किसी से भी ग्रहण करने से किसी का कद या पद प्रभावित नहीं होता

राहुल गांधी जहां हार जीत को लेकर संत-मुद्रा महसूस करते लग रहे हैं, वहीं तेजस्वी यादव सबसे बड़ी पार्टी की छवि हर मामले में बनाये रखना चाहते हैं. ऐसा लग रहा है जैसे तेजस्वी यादव छोटी छोटी गलतियों को सुधार कर और कमियों को दुरूस्त कर आरजेडी को नया कलेवर देने की कोशिश कर रहे हों. तेजस्वी यादव ने लालू यादव के भरोसेमंद रामचंद्र पूर्वे जैसे बुजुर्ग नेता की जगह जगदानंद सिंह को बिहार आरजेडी की कमान सौंप दी थी और नतीजे तो यही बता रहे हैं कि फैसला गलत नहीं हुआ. समझा गया कि रघुवंश प्रसाद सिंह के आखिरी दिनों में नाराज होने की वजह भी जगदानंद सिंह के कामकाज का तरीका ही रहा. ये सही है कि जीत सारी कमियों को ढक देती है.

सीतामढ़ी के पूर्व सांसद सीताराम यादव को छह साल के लिए आरजेडी से बाहर करने के साथ साथ महेश्वर यादव, प्रेमा चौधरी, अशोक सिंह, संजय सिंह और फराज फातमी जैसे नेताओं के सामने हमेशा के लिए रास्ता बंद कर तेजस्वी यादव ने कड़ा संदेश देने की कोशिश की है. सुनने में आया है कि अभी छोटे-बड़े करीब दो दर्जन नेताओं पर एक्शन की तलवार लटक रही है.

क्या कांग्रेस में ऐसी कोई बात सुनी गयी? जब लोक सभा चुनाव के बाद अशोक गहलोत और कमलनाथ का नाम लेकर जलील करने के बाद भी कोई एक्शन नहीं हुआ तो भला बिहार चुनाव राहुल गांधी के लिए किस खेत की मूली है.

ये भी सही है कि आरजेडी में पहली बार चुनाव नतीजों की इस कदर समीक्षा हो रही है कि हार के लिए जिम्मेदारी तय हो सके और उसके बाद अगर कोई दोषी पाया जाता है तो उस पर कार्रवाई भी होकर रहे.

ऐसा कभी लालू यादव के जमाने में नहीं होता था. बहुत हुआ तो शिकायत मिलने पर लालू यादव अपने अंदाज में थोड़ी फटकार लगा दिया करते थे, लेकिन निष्कासन जैसी चीजें तो विरले ही सुनने को मिलती होंगी. वो भी तब जब सिर से ऊपर पानी बहने लगा हो. तेजस्वी यादव इसे बदलने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.

वैसे तेजस्वी यादव को 2015 के चुनाव नतीजे आने के बाद भी आरजेडी नेताओं से बातचीत में ऐसी पहल देखी गयी थी कि पार्टी की जंगलराज वाली छवि बदली जा सके, लेकिन तब लालू यादव जेल से बाहर थे और तेजस्वी यादव के पास खुद करने को बहुत कुछ नहीं था. लिहाजा जंगलराज के लिए खुल कर माफी मांगने के लिए भी तेजस्वी यादव को पांच साल तक इंतजार करना पड़ा.

आखिर ऐसी बातें कांग्रेस में क्यों नहीं देखने को मिलतीं? क्या राहुल गांधी के पास तेजस्वी यादव जैसे कड़े फैसले लेने के लिए मैंडेट नहीं है या फिर वो ऐसी बातों में दिलचस्पी नहीं लेते?

राहुल गांधी भी चाहते तो तारिक अनवर, अखिलेश प्रसाद सिंह और अविनाश पांडे को बैठाकर पूछ तो सकते ही थे. ज्यादा कुछ नहीं तो जमीनी स्तर पर उनको चुनावों के दौरान जो फीडबैक मिला उसके बारे में तो जान ही सकते थे. अकेले न सही, महागठबंधन में रहते ही आरजेडी के साथ और तेजस्वी यादव की तरह कांग्रेस में सुधार की कोशिश तो कर ही सकते थे.

आखिर ऐसी ही बातों को लेकर ही तो राहुल गांधी के साथ साथ सोनिया गांधी भी कांग्रेस में बागी तेवर अख्तियार किये नेताओं के निशाने पर बने हुए हैं!

पहल जहां से हो, अच्छी ही कही जाएगी

बिहार चुनाव के नतीजों पर कपिल सिब्बल की टिप्पणी के बाद, गुलाम नबी आजाद ने फिर से कांग्रेस नेतृत्व को वस्तुस्थिति की तरफ ध्यान दिलाने की कोशिश की है. इस बीच बिहार कांग्रेस के नेता अखिलेश प्रसाद सिंह की तरफ से पहल की कोशिश हो रही है. अखिलेश प्रसाद सिंह ने राहुल गांधी से मिलने का वक्त मांगा है ताकि भविष्य को लेकर सोच विचार किया जा सके.

अखिलेश प्रसाद सिंह का मानना है कि कांग्रेस ने बिहार में चुनाव लड़ने के लिए गलत सीटें चुन ली थीं और पार्टी को उसी की कीमत चुकानी पड़ी है. एनडीटीवी से बातचीत में अखिलेश प्रसाद सिंह का कहना रहा कि सीटों को लेकर जल्दबाजी में फैसला लिया गया. अखिलेश प्रसाद सिंह का कहना है कि वो राहुल गांधी से मिल कर बताएंगे कि संगठन की कमजोरियों को दूर करने की जरूरत है और इसे धारदार बनाया जाना चाहिये.

पहल जहां से हो अच्छी बात है. अगर राहुल गांधी की तरफ से पहल नहीं हुई तो अखिलेश प्रसाद सिंह भी कांग्रेस के ही नेता हैं. मुश्किल तो ये है कि अखिलेश प्रसाद सिंह भी संगठन की कमजोरियों को ही दूर करने की जरूरत बता रहे हैं, लेकिन ये कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद की बातों से कहां अलग है? अगर अलग नहीं है तो क्या गारंटी है कि राहुल गांधी, अखिलेश प्रसाद सिंह से मुलाकात करेंगे और उनकी सलाहों में दिलचस्पी लेंगे. जिस जल्दबाजी की बात अखिलेश प्रसाद सिंह कर रहे हैं, उसकी वजह तो मुलाकात का वक्त और फैसले में देर ही समझ में आती है.

अखिलेश सिंह की बातों से तो ऐसा ही लगता है जैसे हरियाणा चुनाव की ही तरह बिहार के मामले में भी हुआ. 2019 का आम चुनाव खत्म होते ही हरियाणा कांग्रेस के नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने राहुल गांधी से मुलाकात का वक्त मांगा था. मुलाकात किसी न किसी वजह से टलती रही और फिर राहुल गांधी का विदेश दौरा तय हो गया. फिर भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सोनिया गांधी से मुलाकात के लिए वक्त लेने की जद्दोजगद करनी पड़ी. मुलाकात भी हुई और हुड्डा की लगभग सभी मांगें मान भी ली गयीं, एक छोड़ कर. हुड्डा की इच्छा के खिलाफ सोनिया गांधी ने अपनी करीबी और भरोसेमंद कुमारी शैलजा को हरियाणा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया.

हरियाणा चुनाव के नतीजे आये तो मालूम हुआ कि हुड्डा को वक्त न देने और हरियाणा के बारे में कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से फैसला लेने में बहुत देर कर देने का का क्या परिणाम हुआ - अगर सब कुछ समय से हुआ होता तो बीजेपी के लिए मनोहरलाल खट्टर को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाना मुश्किल हो सकता था या मुमकिन भी नहीं होता.

बिहार में अखिलेश प्रसाद सिंह की बातों से तो ऐसा ही लगता है कि चुनाव से पहले थोड़ा होम वर्क हुआ होता तो नतीजे अलग हो सकते थे. बीजेपी की तरफ से अमित शाह की रैली 8 जून को हुई थी और महीने भर बात तक कांग्रेस में आरजेडी के साथ सम्मानजनक सीटों पर बातचीत चलती रही.

कपिल सिब्बल के बाद बिहार चुनाव पर गुलाम नबी आजाद की भी टिप्पणी आ गयी है - 'हम सभी हार को लेकर चिंतित हैं, खासकर बिहार और उपचुनाव परिणामों के बारे में. मैं हार के लिए नेतृत्व को दोष नहीं देता. पार्टी से जुड़े हमारे लोगों का जमीनी स्तर पर संपर्क खत्म हो गया है. लोगों का पार्टी से प्यार होना चाहिए. पिछले 72 सालों में कांग्रेस सबसे निचले पायदान पर है.'

गुलाम नबी आजाद से साफ साफ ये भी कह दिया है कि अब पांच सितारा संस्कृति को छोड़ने का वक्त आ गया है - जब तक इसे नहीं छोड़ेंगे तब तक कोई चुनाव नहीं जीता जा सकता.

लगता है राहुल गांधी को कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद जैसे कांग्रेस नेताओं की सलाहियत पसंद नहीं आ रही है, फिर तो वो बेधड़क तेजस्वी यादव के एक्शन से सबक ले सकते हैं - और हां, अखिलेश प्रसाद सिंह को भी थोड़ा वक्त देकर उनकी बात सुन लेंगे और उस पर एक्शन भी ले लेंगे तो कांग्रेस को ही फायदा होगा - और ये बताने की जरूरत तो नहीं ही है कि कांग्रेस का फायदा भी राहुल गांधी का ही फायदा है.

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