इंदिरा गांधी आज होतीं तो क्या मोदी-शाह के मुकाबले कांग्रेस को खड़ा कर पातीं?
इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के करिश्माई नेतृत्व का दुनिया तो लोहा मानती ही है, मुश्किल दिनों में कांग्रेस भी शिद्दत से याद करती है. जरा सोचिये मोदी-शाह (Modi-Shah BJP) से जूझ रहे सोनिया-राहुल गांधी (Sonia-Rahul Gandhi) की जगह अगर इंदिरा होतीं तो कैसा होता?
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कांग्रेस अपने ही इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है, हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि ये दौर वो पहली बार देख रही है. कांग्रेस के बचाव में पार्टी नेता भी उसके बाउंस-बैक की दुहाई देते हैं - और उसी के आधार उनकी भी उम्मीदें कायम हैं.
ज्यादातर कांग्रेस नेता इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की हार के बाद इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के नेतृत्व में फिर से सत्ता हासिल करने की मिसाल दिया करते हैं, लेकिन ये चर्चा कम ही होती है कि उससे पहले भी कांग्रेस को भारी उठापटक का सामना करना पड़ा था जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी सियासी काबिलयत की बदौलत न्यूट्रलाइज किया था.
सवाल ये है कि अगर इंदिरा गांधी आज होतीं तो भी क्या कांग्रेस को बीजेपी के सामने ऐसे ही जूझना पड़ता जैसे राहुल गांधी और सोनिया गांधी (Sonia-Rahul Gandhi) संघर्ष कर रहे हैं? ध्यान रहे इंदिरा के जमाने में उनके सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा कोई लोकप्रिय नेता नहीं था - और न ही अमित शाह (Modi-Shah BJP) जैसी चुनावी मशीन!
सोनिया-राहुल के सामने कोई नयी चुनौती नहीं है
2019 के आम चुनाव से पहले सोनिया गांधी ने कई बार बड़े ही आत्मविश्वास के साथ केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को शिकस्त देने की बात दोहरायी थी. इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में तो सोनिया गांधी का कहना रहा कि कांग्रेस बीजेपी को जीतने ही नहीं देगी - और फिर चुनावों के दौरान जब वो रायबरेली से कांग्रेस उम्मीदवार थीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को याद दिलाया कि 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी अजेय माने जाते थे. बात बिलकुल सही थी. कांग्रेस ने एनडीए को न सिर्फ 2004 में सत्ता से बेदखल किया, बल्कि 2009 में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भी सत्ता से दूर रखा.
लेकिन जब आम चुनाव के नतीजे आये तो पांव तले जमीन खिसक जाने का एहसास कराने वाले रहे. गांधी परिवार के गढ़ रहे अमेठी में राहुल गांधी को बीजेपी की स्मृति ईरानी ने हरा दिया था और पूरे देश में कांग्रेस के हिस्से में लगातार दूसरी बार भी इतनी सीटें नहीं आ सकीं कि वो लोक सभा में विपक्ष के नेता पद की हकदार बन सके. हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने तो कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी भी छोड़ दी.
1977 से पहले भी इंदिरा गांधी को चुनौतियों से जूझना पड़ा था, लेकिन वो चुनौतियां कांग्रेस के भीतर से ही मिली थीं. राहुल गांधी को तो ऐसा कोई चैलेंज नहीं फेस करना पड़ा लेकिन कांग्रेस के भीतर से सोनिया गांधी को जरूर चैलेंज किया गया. सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर विरोध करते हुए शरद पवार ने अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस बना ली, लेकिन बाद में यूपीए में वो भी शामिल हो गये. कांग्रेस से अलग होकर कोशिशें तो माधवराव सिंधिया ने भी की और प्रणव मुखर्जी ने भी किये, लेकिन शरद पवार के अलावा ममता बनर्जी ही सफल हो पायीं. फिलहाल शरद पवार की पार्टी महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में साझीदार है और ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल में तीसरी पारी के लिए तैयारियों में जुटी है.
इंदिरा गांधी की तुलना में देखा जाये तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी के सामने भी चुनौतियां करीब करीब वैसी ही हैं, मुश्किल ये है कि दोनों में से कोई भी करिश्माई नेता नहीं है और इसीलिए खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है.
1969 में कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं का ग्रुप इंदिरा गांधी को किनारे लगाने की कोशिश में था. भले ही कांग्रेस के बुजुर्गों की मौजूदा टोली नेतृत्व के नाम चिट्ठी लिख रही हो, या फिर इंटरव्यू में कटाक्ष के जरिये राहुल गांधी और सोनिया गांधी को सलाह देने या सबक सिखाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन फिलहाल किसी की ऐसी हैसियत तो नहीं ही है कि वो इंदिरा गांधी की तरह कांग्रेस से निष्कासित कर सके. इंदिरा गांधी के साथ तो ये वाकया भी हो चुका है. एक स्थिति ऐसी बनी कि राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा गांधी को कांग्रेस उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हराने के लिए सारी ताकत झोंक देनी पड़ी थी. तब इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने के लिए लेफ्ट उम्मीदवार वीवी गिरि का सपोर्ट किया और नीलम संजीव रेड्डी को हरा दिया. फिर क्या था, गुस्से में बुजुर्ग ब्रिगेड ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निकाल दिया और इंदिरा गांधी ने अपनी नयी पार्टी बना ली. जब चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी को जनता का भारी समर्थन मिला और सीनियर टीम चारों खाने चित्त हो चुकी थी.
हर दौर में नेता तो एक ही होता है - वो इंदिरा गांधी का दौर था, ये नरेंद्र मोदी का वक्त है
फिलहाल राहुल गांधी और सोनिया गांधी को भी इंदिरा गांधी जैसे प्रदर्शन का इंतजार है, लेकिन लगता ऐसा है जैसे दोनों इंदिरा गांधी की तरह संकट से उबरने का रास्ता नहीं खोज रहे, बल्कि उस दिन के इंतजार में बैठे हैं जब जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी से ऊब जाये और जायका बदलने और फिर से आजमाने के मकसद से सत्ता कांग्रेस को सौंप दे. परिवर्तन संसार का नियम जरूर है, लेकिन हर परिवर्तन के लिए कोई निश्चित अवधि हो ये भी जरूरी तो नहीं है - ये गीता का ज्ञान है और यही ये भी समझाता है कि कर्म करना ज्यादा जरूरी होता है फल की इच्छा के बगैर. मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व कर्म करने से पहले लगता है फल का ही इंतजार कर रहा है.
ये तो रही इंदिरा गांधी के जमाने की कांग्रेस और सोनिया-राहुल की कांग्रेस में फर्क समझने की कोशिश - अब अगला सवाल यही है कि इंदिरा गांधी आज अगर होतीं तो मोदी-शाह की जोड़ी से टकराना उनके लिए भी वैसा ही होता जैसा सोनिया-राहुल के साथ हो रहा है या अलग होता?
इंदिरा की स्टाइल अलग जरूर होती
कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई को एक पल के लिए भूल कर राजनीतिक विरोध की चुनौती को समझने की कोशिश करें तो परिस्थितियां बिलकुल अलग लगती हैं. इमरजेंसी के बाद जिस तरह से इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी की, करीब करीब वैसे ही सोनिया गांधी ने 2004 में कांग्रेस फिर से सत्ता दिला दी थी और 10 साल तक सरकार भी चलायी.
जैसे इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष एकजुट हुआ था वैसे ही देश में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की पहली सरकार भी बनी थी. उससे पहले भी कांग्रेस को ऐसे ही दौर से दो चार होना पड़ा था. 1984 की ऐतिहासिक भारी जीत के बाद राजीव गांधी, अपने की करीबी साथी रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के सामने बोफोर्स घोटाले के आरोपों में गच्चा खा गये, लेकिन इंदिरा गांधी की ही तरह वीपी सिंह की सरकार गिरा कर चंद्रशेखर को सरकार बनाने के लिए सपोर्ट कर दिया - जैसे इंदिरा गांधी ने चरण सिंह के कंधे पर बंदूक रख कर इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई की सरकार गिरा दी थी. बाद में राजीव गांधी ने मौका देखकर अपने खिलाफ जासूसी के इल्जाम में चंद्रशेखर की भी सरकार गिरा दी थी.
अपने जमाने में इंदिरा गांधी भी बेहद लोकप्रिय नेता रही हैं, ठीक वैसे ही जैसे आज के दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोग पसंद करते हैं. 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ जंग जीतने के बाद पूरी दुनिया इंदिरा गांधी का लोहा मानने लगी थी. परमाणु परीक्षण इंदिरा गांधी ने भी किया था और बाद में एनडीए के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक्शन की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पाकिस्तान के खिलाफ दो-दो बार सर्जिकल स्ट्राइक किया है और फिलहाल तो लोग उसे इंदिरा गांधी की उपलब्धि से भी बड़ा मानते हैं.
अब अगर सवाल ये है कि क्या आज इंदिरा गांधी होतीं और मोदी-शाह से मुकाबला होता तो वो बराबरी पर छूटता? या इंदिरा गांधी को शिकस्त झेलना पड़ता या फिर मोदी शाह पर इंदिरा गांधी भारी पड़तीं?
ऐसे में जरूरी नहीं कि इंदिरा गांधी आज होतीं तो वैसे ही सफल रहतीं जैसे अपने जमाने में रहीं. प्रियंका गांधी वाड्रा में कांग्रेस के लोग ही नहीं कांग्रेस से बाहर वाले भी कई लोग इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं - लेकिन कांग्रेस में औपचारिक एंट्री के बाद प्रियंका गांधी तो पूरी तरह फेल ही रही हैं. अब इससे बड़ी नाकामी क्या होगी कि जिस अमेठी में वो बचपन से घर घर लोगों से मिलती जुलती रहीं और एक गहरा और मजबूत रिश्ता कायम कर रखा था उसी इलाके में महज पांच साल दिल्ली से छोटे छोटे दौरे कर स्मृति ईरानी ने प्रियंका और राहुल से जीत छीन ली.
कहने वाले कह सकते हैं कि प्रियंका गांधी को जब उतने अधिकार मिले ही नहीं तो वो इंदिरा गांधी जैसा करिश्मा कैसे दिखायें. जवाब ये है कि अमेठी से राहुल गांधी को जिताने के लिए प्रियंका गांधी को कौन से पॉवर चाहिये थे?
जंग-ए-मैदान में ताकत का प्रदर्शन टीम वर्क होता है और उसमें भी देश, काल और परिस्थिति बड़े महत्वपूर्ण फैक्टर होते हैं. किसी भी नेता की ताकत देश की जनता तय करती है - और वो जनता फिलहाल नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ है.
लगता तो ऐसा ही है कि इंदिरा गांधी आज होतीं तो भी मोदी-शाह के सामने कड़े संघर्ष करने ही पड़ते, लेकिन वो हालात को हैंडल सोनिया-राहुल से बेहतर तरीके से जरूर करतीं. कम से कम वो तो राहुल गांधी की तरह कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ कर नहीं ही भागतीं. इंदिरा गांधी होतीं और उनको लगता कि प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमले बैकफायर कर रहे हैं तो निश्चित तौर पर वो कोई नयी रणनीति अपनातीं, न कि बच्चों की तरह जिद पर अड़ी रहती हैं और साथियों की सलाह को बार बार हारने के बावजूद खारिज करती रहतीं.
इंदिरा गांधी की 103वीं जयंती पर हर कोई अपने अपने तरीके से याद करते हुए श्रद्धांजलि दे रहा है. इंदिरा गांधी के काफिले की गाड़ी के चालान के लिए क्रेन बेदी के तौर शोहरत हासिल करने वाली पुद्दुचेरी की उप राज्यपाल और पूर्व आईपीएस किरण बेदी ने उस पल को याद किया है जब वो इंदिरा गांधी से मिलने गयी थीं.
Happy birthday Madam. U were an inspiration in my growing up yrs. U invited me to a breakfast with u after u saw me lead the 26th Jan Republic Day Parade at the Rajpath,in 1975. It made waves then,being invited by Hble Prime Minister of India. It made history @PIB_India pic.twitter.com/Qz5Bn1Gozm
— Kiran Bedi (@thekiranbedi) November 19, 2020
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