तेजस्वी की लोकप्रियता में इजाफा यानी नीतीश कुमार रिस्क जोन में दाखिल हो चुके हैं!
बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) को लेकर हुए सर्वे में एक मैसेज तो साफ है, नीतीश कुमार (Nitish Kumar) निर्विकल्प नेता नहीं रह गये हैं. पहले जो मामला एकतरफा माना जा रहा था, तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) मुकाबले में खड़े होते नजर आ रहे हैं.
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संयोग ही कहेंगे इसे - संयोग से जिस दिन नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) की चिराग पासवान के यहां अगल बगल बैठे हुए तस्वीर मीडिया और सोशल मीडिया पर आयी, बिहार चुनाव को लेकर एक सर्वे भी आया. सर्वे में भी तीनों ही नेताओं के बारे में लोगों ने खुल कर अपनी राय रखी है.
बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) को लेकर CSDS-लोकनीति के ओपिनियन पोल के मुताबिक, सीधे सीधे खबर तो यही है कि एनडीए को बहुमत हासिल हो रहा है - और जैसा कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पूरी तरह साफ कर दिया है मुख्यमंत्री नीतीश कु्मार ही बनेंगे, भले ही बीजेपी के मुकाबले जेडीयू की सीटें कम ही क्यों न आयें.
बीजेपी और जेडीयू की सीटों को लेकर जो आशंका जतायी जा रही है, देखा जाये तो सर्वे भी नीतीश कुमार की लोकप्रियता में गिरावट का इशारा कर संकेत तो यही दे रहा है.
अब अगर अंदर की खबर को समझने की कोशिश करें तो ऐसा लगता है कि नीतीश कु्मार धीरे धीरे रिस्क जोन में दाखिल होते जा रहे हैं - और ये ज्यादा जोखिमभरा तेजस्वी की लोकप्रियता में इजाफा से लगने लगा है.
नीतीश रिस्क जोन में कैसे और क्यों?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए सबसे खतरनाक बात एक ही है - अब तक वो विकल्पविहीनता के TINA फैक्टर के साये में काफी निश्चिंत हुआ करते रहे. चिंता की बात थोड़ी बहुत चिराग पासवान ने बढ़ायी जरूर, लेकिन बीजेपी नेतृत्व पर दबाव डाल कर जेडीयू नेता ने काफी सारी चीजें अपने मनमाफिक तो करा ही डाली हैं - लेकिन अब नीतीश कुमार के लिए नयी मुश्किल तेजस्वी यादव का चुनौती बन कर उभरना है. अब ये स्थिति अगर जोखिमभरी नहीं है तो क्या कहेंगे भला?
28 अक्टूबर को बिहार चुनाव में पहले चरण की वोटिंग होनी है और हफ्ते भर में हुआ ये सर्वे 10 से 17 अक्टूबर के बीच का है - मतलब, वोटिंग से करीब 10 दिन पहले और ये बात काफी महत्वपूर्ण है.
ओपिनियन पोल में लोगों से सवाल पूछा गया कि बिहार के लिए बेहतर मुख्यमंत्री कौन होगा?
नीतीश कुमार के पक्ष में एक बात तो जाती ही है कि ज्यादातर लोग अब भी एक बार फिर बिहार की कमान उनके ही हाथ में सौंपने के बारे में सोच रहा हैं. जो बात नीतीश कु्मार के खिलाफ जाती है, वो ये है कि तेजस्वी यादव को लेकर पहले के मुकाबले ज्यादा लोग अब संभावनाएं देखने लगे हैं.
बेशक 31 फीसदी लोग नीतीश कु्मार को अब भी बेहतरीन मुख्यमंत्री मानते हैं, लेकिन एक खास बात अब ये भी है कि 27 फीसदी लोग तेजस्वी यादव को भी मुख्यमंत्री पद के काबिल समझने लगे हैं. सर्वे के मुताबिक तेजस्वी यादव नीतीश कुमार के करीब और चिराग पासवान और बीजेपी सुशील मोदी जैसे नेताओं से काफी आगे निकल चुके हैं.
2015 में नीतीश कुमार के कामकाज से नाखुश लोग महज 18 फीसदी पाये गये थे, लेकिन पांच साल बाद ये बढ़ कर 44 फीसदी हो गया है और नीतीश कुमार के साथ साथ एनडीए के लिए भी फिक्र करने वाली सबसे बड़ी बात यही है. एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नीतीश कुमार के कामकाज से अब भी संतुष्ट लोग 52 फीसदी हैं, लेकिन पांच साल पहले ये आंकड़ा 80 फीसदी रहा.
लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक रामविलास पासवान के श्राद्ध के मोके पर नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और चिराग पासवान!
आंकड़े आकलन का आधार बनते हैं, हालांकि, ये भी जरूरी नहीं कि आकलन बिलकुल सही ही हो, लेकिन बिलकुल गलत ही होगा ऐसा भी तो मान कर नहीं चला जा सकता - वैसे भी आंकड़े कभी झूठ नहीं बोलते.
अब मामला एकतरफा नहीं रहा
बेशक यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बिहार में नीतीश कुमार के लिए अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का जिक्र करके वोट मांग रहे हों. सुशांत सिंह राजपूत केस को लेकर भले ही अमित शाह अब भी ये मानते हों कि 'हो सकता है कि कुछ लोग इस मुद्दे पर भी वोट डालें', लेकिन नीतीश कुमार का बार बार विकास की बातों पर जोर देना और तेजस्वी यादव के 10 लाख नौकरी देने के दावे को खारिज करना - ये समझने का मौका तो देता ही है कि बेरोजगारी और विकास चुनावी मुद्दे का रूप ले चुके हैं. तेजस्वी यादव बार बार यही बोल रहे हैं कि अगर महागठबंधन को सत्ता मिली तो कैबिनेट की पहली बैठक में पहले हस्ताक्षर से ही 10 लाख नौकरियों के इंतजाम किये जाएंगे.
ओपिनियन पोल से भी यही मालूम होता है कि विकास और रोजगार ही बिहार के मतदाताओं के लिए सबसे बड़ा एजेंडा बन रहा है. पोल में 29 फीसदी लोगों ने विकास की बात की, 20 फीसदी लोगों ने रोजगार को सबसे बड़ा मुद्दा माना, महंगाई और गरीबी के साथ साथ शिक्षा को भी कुछ लोग चुनावी मुद्दे के तौर पर देख रहे हैं. ये बात अलग है कि महंगाई और शिक्षा जैसी बातें नेताओं के एजेंडे में आखिरी कतार में देखने को मिलती हैं.
शुरुआती दौर में पूरा मामला एकतरफा लग रहा था. एनडीए की तरफ से तो अब भी नारा यही लगाया जा रहा है - कोई नहीं है टक्कर में. मगर, जमीनी हालात ठीक वैसे ही नहीं रह गये हैं जैसे पहले लग रहे थे - सोशल डिस्टैंसिंग की भले ही चुनावी रैलियों में खिल्ली उड़ायी जा रही हो, भले भीड़ की संख्या वोट में तब्दील न हो पाती हो, लेकिन भीड़ हवा तो बना ही रही होती है.
चिराग पासवान का भी असर तो है ही
चिराग पासवान की हालिया पैंतरेबाजी के बावजूद ओपिनियन पोल में लोग खास अहमियत तो नहीं ही दे रहे हैं. ये भी नहीं कह सकते कि पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं क्योंकि नोटिस तो ले ही रहे हैं.
बिहार ओपिनियन पोल में 6 फीसदी लोगों ने इच्छा जतायी है कि राज्य में लोक जनशक्ति पार्टी की सरकार बननी चाहिये. वैसे ये आंकड़ा चिराग पासवान के वोट बैंक के बराबर ही है. बिहार में दलित वोट 16 फीसदी है और उनमें पासवान बिरादरी का वोट शेयर 5-6 फीसदी के बीच ही माना जाता है.
दूसरी तरफ बिहार के 38 फीसदी लोग एक बार फिर एनडीए की सरकार बनने के पक्षधर हैं, जबकि 32 फीसदी लोग बदलाव की जरूरत महसूस कर रहे हैं जो चाहते हैं कि राज्य में महागठबंधन की सत्ता में वापसी हो. ये भी एक संयोग ही है कि दोनों महागठबंधनों के पक्ष में खड़े लोगों में जो फासला है वो चिराग पासवान के हिस्से के बराबर है. जहां तक सीटों का सवाल है लोक जनशक्ति पार्टी को 2-6 सीटें मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है.
बिहार की 243 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा है - 122. लोकनीति-CSDS पोल में एनडीए के खाते में 133-143 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है - और और महागठबंधन के हिस्से में 88-98 के बीच.
सत्ता विरोधी लहर
बीजेपी के अंदरूनी सर्वे में काफी पहले ही नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को महसूस किया गया था और ताजा ओपिनियन पोल भी कुछ ऐसे ही संकेत दे रहा है. ये जानने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद पहल कर बिहार के लोगों को बताया है कि वो भी चाहते हैं कि नीतीश कुमार आगे भी मुख्यमंत्री बने रहें ताकि केंद्र और राज्य सरकार मिल कर विकास के काम को आगे बढ़ा सकें.
सर्वे के मुताबिक, 40 फीसदी लोग सभी दलों के मौजूदा विधायकों से नाराज हैं - साफ है सत्ता विरोधी लहर को निष्प्रभावी करने में कामयाबी नहीं मिली है. हालांकि, ज्यादा असंतोष बीजेपी के विधायकों को लेकर ही है, बनिस्बत जेडीयू और आरजेडी या कांग्रेस विधायकों के मुकाबले.
सत्ता विरोधी फैक्टर की काट के रूप में एनडीए के पक्ष में केंद्री की मोदी सरकार के कामों को प्रचारित करने पर जोर तो पहले से ही दिया जाने लगा था - सर्वे में भी 27 फीसदी लोगों का कहना है कि वे मोदी सरकार के काम को ज्यादा अहमितय देते हैं. महज 16 फीसदी वोट देने वाले ऐसे पाये गये हैं जो वोट देने के मामले में नीतीश सरकार के काम को तवज्जो जरूर देंगे. ओपिनियन पोल में एक बात और भी सामने आयी है कि 61 फीसदी लोग मोदी सरकार के कामकाज से खुश हैं और नाखुशी जताने वाले सिर्फ 35 फीसदी ही हैं.
बदलाव का कितना इशारा
हर चुनाव में कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके बारे में पहले से किसी भी तरह का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है, ऐसे स्विंग वोटर आखिरी वक्त में या वोटिंग की तारीख से एक दो दिन पहले फैसला लेते हैं. ऐसे वोटर अक्सर हवा का रुख देखकर भी वोट करते हैं. अब अगर ऐसे वोटर की संख्या ज्यादा हो तो इनकी भूमिका निर्णायक भी हो जाती है.
ओपिनियन पोल में ये बात भी समझने की कोशिश की गयी है. 10 फीसदी ऐसे लोग पाये गये हैं जो वोटिंग को लेकर अभी तक कोई भी फैसला नहीं कर पाये हैं, जबकि 14 फीसदी वोटर का इशारा है कि वे वोटिंग वाले दिन ही तय करेंगे कि किसे वोट देना है. अब अगर ये दोनों आंकड़े जोड़ कर समझने की कोशिश की जाये तो कुल 24 फीसदी यानी यानी करीब एक चौथाई वोटर आखिरी फैसला 28 अक्टूबर को ही लेने जा रहा है जब बिहार की 71 विधानसभा सीटों पर पहले चरण की वोटिंग होगी. जाहिर ये भी कोई करामात कर ही सकते हैं!
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