वोट की खातिर तेलंगाना में 66 करोड़ की इफ्तार पार्टी!
जनता को सियासतदानों के इस फूट डालो और शासन करो की राजनीति को समझना होगा और धर्म के नाम पर इस खिलवाड़ का विरोध करना होगा.
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सबसे ज्यादा कर्ज में डूबे राज्यों की तेलंगाना का नाम शामिल है. हर व्यक्ति पर 50 हजार रु. से अधिक का कर्ज है. जहां रोज दो किसान आत्महत्या करते हैं. वहां के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने इफ्तार पार्टी देने के लिए सरकारी खजाना खोल दिया है.
तेलंगाना सरकार ने 8 जून को 66 करोड़ रुपए की सालाना इफ्तार का आयोजन किया था. पूरे राज्य के 800 मस्जिदों में इस इफ्तार का आयोजन किया गया जिसमें इनको दिए जाने वाले गिफ्ट भी शामिल हैं. हैदराबाद के फतेह मैदान में आयोजित इस इफ्तार में लगभग 7000 मेहमानों के आने की बात कही जा रही है. जिसमें राज्य सरकार के सभी मंत्रियों सहित ब्योरोक्रेट और अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी भी शामिल थे.
इफ्तार की दावत निजी थी उस पर जनता का पैसा पानी की तरह बहाया गया
इतनी बड़ी रकम अगर किसी 'पार्टी' पर खर्च किए जाएं तो विवाद तो होगा ही. हुआ भी. एक पीआईएल में ये आरोप लगाया गया कि तेलंगाना के सार्वजनिक निधि (अल्पसंख्यक कल्याण राज्य क्षेत्र योजना) का उपयोग कर राज्य सरकार द्वारा ये इफ्तार आयोजित किया गया. राज्य सरकार ने इस आयोजन के लिए 15 करोड़ रुपए की मंजूरी दे दी थी. साथ ही सरकार ने हर मस्जिद को एक लाख रुपए दिए ताकि वो इफ्तार के आयोजन की तैयारियां कर सकें. और उपहार में लोगों को कपड़े दिए गए जिसे वो ईद के दिन पहन सकें.
अब अगर किसी निजी आयोजन के लिए जनता के पैसे को पानी की तरह बहाया जाएगा तो जाहिर सी बात है कि सवाल तो उठेंगे ही.
खोखली और बांटने वाली इस राजनीति को नकारना होगा
पहला सवाल- तो यही है कि क्या इफ्तार जैसे किसी निजी आयोजन के लिए जनता के पैसे का इस्तेमाल करना जायज है? चंद्रशेखर राव 2014 से इफ्तार का आयोजन कर रहे हैं और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय भी उन्ही के पास है. हर साल इफ्तार के आयोजन पर पानी की तरह यूं पैसे बहाना क्या जरुरी है? अगर इन पैसों का इस्तेमाल जनता के कल्याण के लिए किया गया होता तो क्या सही नहीं होता? विकास कार्यों में ये पैसे लगाए जा सकते थे.
दूसरा सवाल- ये कि आखिर जनता के पैसों को सरकार निजी आयोजन के लिए कैसे विधानसभा द्वारा पास करा सकती है? वो भी तब जब राज्य में किसान बेहाल हैं. विकास कार्यों की स्थिति कछुए की रफ्तार को भी पीछे छोड़ने पर आमादा है.
धर्म का ये पाखंड अब खत्म होना ही चाहिए
तीसरा सवाल- इस तरह के आयोजन करने के पीछे सरकार की मंशा तुष्टिकरण की राजनीति को हवा देना तो नहीं है?
चौथा सवाल- सरकारी पैसा धर्म और जाति, लिंग आदि के भेदभाव से ऊपर सिर्फ जनता के कल्याण के लिए होता है. फिर इस तरह के धार्मिक आयोजन करके सरकार जनता के बीच मतभेद को बढ़ावा क्यों दे रही है?
जनता को सियासतदानों के इस फूट डालो और शासन करो की राजनीति को समझना होगा और धर्म के नाम पर इस खिलवाड़ का विरोध करना होगा. वरना हम तो पैसे पैसे को मोहताज होते रहेंगे. अपनी ही कमाई हुई दौलत को देश की तरक्की के नाम पर टैक्स के रुप में भरेंगे. और असलियत में सरकारें इसे अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस्तेमाल करेगी.
एक बात तो साफ है जनता को अगर विकास चाहिए तो बंटवारे की इस राजनीति को ठेंगा दिखाना होगा. सिरे से नकारना होगा. वरना वो दिन दूर नहीं जब हमारे बच्चों को प्लेट में रोटी नहीं धर्म परोसने की नौबत आ जाएगी. क्योंकि हमारी सरकारें टैक्स के रुप में हमारा खून चूसकर अपनी प्लेटों को भर रही होगी.
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