अटल-आडवाणी और शाह-मोदी की जोड़ी में ये बुनियादी फर्क है
एकतरफ जहां वाजपेयी-आडवाणी युग राजनीतिक 'राज-धर्म' या 'कर्तव्य' के खाके पर चलता था वहीं मोदी-शाह काल में इसका 'चाणक्य-नीति' का एक अपरिपक्व रुप दिखता है.
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1996 में भाजपा के फायरब्रांड नेता लालकृष्ण आडवाणी ने "हवाला" डायरी में अपना नाम आने के तुरंत बाद संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. कई लोगों के लिए ये एक कठोर कदम था. इसलिए उनसे इस कदम के उठाने के पीछे का कारण पूछा गया. उन्होंने कहा- "मैंने नैतिकता के आधार पर ये कदम उठाया है. मेरे अंतर्मन की आवाज मैंने सुनी. मैं एक ऐसी पार्टी से जुड़ा हूं जो और पार्टियों से अलग है. हमारी पार्टी सार्वजनिक जीवन में सत्यता के लिए प्रतिबद्ध है."
भाजपा पार्टी विद ए डिफरेंस है ये एक इस्तीफे से समझा दिया था आडवाणी जी ने
उसी साल जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 दिनों में गिर गई थी, तो बीजेपी ने इसके लिए बड़ा ही गर्व महसूस किया कि पार्टी के रूप में उनकी अपनी विशिष्टता का प्रतिबिंब है. उनकी पार्टी पहले की कांग्रेस पार्टी की तरह सत्ता की भूखी नहीं है.
2018 में कर्नाटक में सत्ता के लिए हुई उठापटक और खरीद फरोख्त के आरोप प्रत्यारोपों ने पार्टी का मुखौटा अंततः गिरा ही दिया है. नैतिकता के सारे दावे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और चुनावी अजेयता के अहंकार में ढह गए. बीजेपी की विशिष्टता विचारधारा और आदर्शवाद के दो खंभों पर टिकी थी: राजनीतिक बाजार में उनकी हिंदू राष्ट्रवाद की मूल विचारधारा थी, वहीं एक नैतिक निरपेक्षता थी जिसे पार्टी ने आरएसएस से प्राप्त करने का दावा किया था.
आरएसएस प्रचारकों का जीना मरना, सोचना समझना सब हिंदू राष्ट्र का विचार ही होता है. साथ ही तपस्या, आत्म-अनुशासन और अखंडता भी इसके मूल में आधारित है. माना जाता है कि सुबह शाखाओं में दी जाने वाली कड़ी ट्रेनिंग में नैतिकता और "नैतिक" शिक्षा दी जाती है. आडवाणी-वाजपेयी की जोड़ी इसी "शाखा" की कठोर और अनुशासनात्मक संस्कृति के उत्पाद थे. और इसी "शाखा" से जन्में नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार ने खुद को कांग्रेस से अलग स्थापित किया था
वाजपेयी और आडवाणी उस कांग्रेस युग में के थे, जब जवाहरलाल-इंदिरा की जोड़ी ने आजादी के बाद लगभग चालीस सालों तक भारत पर शासन किया था. बीजेपी (या जिसे तब जनसंघ के नाम से जाना जाता था) एक मामूली सी राजनीतिक पार्टी थी. इसे तब एक उच्च जाति के वर्चस्व वाली ब्राह्मण-बनिया पार्टी के रूप में जाना जाता था. जिसकी "हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान" विचारधारात्मक ढांचा था जिससे इसका विकास सीमित होता था.
1992 में राम जन्माभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद ही संघ परिवार का अस्तित्व भारतीय राजनीति के केंद्र में स्थापित करने का ऐतिहासिक क्षण था. 1980 के दशक के दौरान कांग्रेस द्वारा "अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण" की राजनीति ने भाजपा को वो अवसर दे दिया जिसके बाद उन्होंने आक्रामक हिंदू आंदोलन के लिए कमर कस ली.
लेकिन फिर भी हवाला डायरी मामले पर आडवाणी के इस्तीफे के बाद ये बात सामने आई कि अभी भी यह एक ऐसी पार्टी थी जहां राजनीतिक आदर्शवाद और वैचारिक कठोरता सह-अस्तित्व में थी. बहुसंख्यक विचारधारा ने बीजेपी को अपना मुख्य समर्थक दिया जो भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे. नतीजतन धीरे-धीरे उन्हें भारतीयों के वो महत्वपूर्ण वोट मिले जो कांग्रेस के भ्रष्टाचार और राजवंश से थक गए थे. इसी वोट ने अटल बिहारी वाजपेयी को पांच साल के लिए देश का पहला गैर-कांग्रेसी प्रधान मंत्री बनने के लिए प्रेरित किया और 2014 में बीजेपी की बहुमत वाली सरकार का नेतृत्व करने के लिए मोदी को चुना.
मोदी शाह की जोड़ी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भाजपा को साम दाम दंड भेद सब लगाकर स्थापित करने को कटिबद्ध है
लेकिन एकतरफ जहां वाजपेयी-आडवाणी युग राजनीतिक "राज-धर्म" या "कर्तव्य" के खाके पर चलता था वहीं मोदी-शाह काल में इसका "चाणक्य-नीति" का एक अपरिपक्व रुप दिखता है. एक ऐसा प्रमाण जिससे ये साबित होता है कि किसी भी कीमत पर सत्ता पाना है. उदाहरण के लिए जहां वाजपेयी अपने गठबंधन सहयोगियों को आसानी से जगह दे देते, वहीं मोदी के मामले में ये स्पष्ट है कि उनके लिए "बीजेपी-फर्स्ट" का नियम सर्वोपरि है और सहयोगी पार्टियां सिर्फ साथ देने के लिए ही हैं.
जहां 1990 के दशक के मध्य में आडवाणी विचारात्मक अलगाव की शरण ले लेते हैं. वहीं अमित शाह भाजपा कश्मीर से लेकर केरल तक भाजपा को पहुंचाने के एकमात्र लक्ष्य में दृढ़ता से लगे हैं. और इस रास्ते में अपने राजनीतिक विरोधियों को वो सिर्फ विरोधी नहीं बल्कि "शत्रु" के रूप में देखते हैं. संघ परिवार के जमीनी कार्यकर्ता अभी भी पार्टी के लिए घर घर जाकर प्रचार करते हैं. अभियान चलाते हैं.
नतीजतन, हिंदुत्व विचारधारा के लिए इसकी प्राथमिक प्रतिबद्धता जस की तस है. लेकिन जहां जम्मू-कश्मीर में पीडीपी जैसे "अपवित्र" गठजोड़ को स्वीकार करके भाजपा ने दिखा दिया कि उनका आदर्शवाद अब सत्ता के लिए समझौतें करने को तैयार है. कर्नाटक (और इसके पहले गोवा और मणिपुर) में भी यही हुआ है. "कांग्रेस-मुक्त" भारत के अपने सपने को साकार करने चक्कर में भाजपा अब कांग्रेस के ही उन बातों को दोहरा रही है जिससे उन्होंने घृणा का भाव दिखाया था.
सत्ता के लिए जोड़ तोड़ कर भाजपा ने खुद को कांग्रेस की उन्हीं गलतियों के साथ खड़ा कर लिया है जिसका विरोध कर वो सत्ता में आई
कर्नाटक में सत्ता के लिए राजभवन का दुरुपयोग करने और लोकतांत्रिक संस्थानों की प्रतिष्ठा को कम करने पर पिछले हफ्ते सफाई दी. आखिरकार, वजूभाई वाला से बहुत पहले, राम लाल और कई अन्य गवर्नरों ने सत्तारूढ़ कांग्रेस के राजनीतिक एजेंटों के रूप में कार्य किया. लेकिन अतीत में कांग्रेस ने संवैधानिक पदों का दुरुपयोग किया था इसके आधार पर अभी और आगे किए जाने दुरुपयोगों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
हां, कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता को पाने और डक्कन के पठार में मोदी-शाह को रोकने के लिए उतनी ही बेताब थी. लेकिन क्या वह पैसे और पावर के बल पर इसे सही साबित करना सही है? निश्चित रूप से कांग्रेस की विफलताओं की बराबरी करने के प्रयास में बीजेपी ने ये साबित कर दिया कि वो पार्टी विद डिफेरेंस नहीं है.
2014 में पीएम मोदी ने लाल किले की प्राचीर से देश से पूरे जोश और उत्साह के साथ "ना खाउंगा, ना खाने दूंगा" वादा किया था. 2018 में कर्नाटक के ताबड़तोड़ अभियान जिसमें विवादास्पद रेड्डी भाइयों को प्रमुखता से सामने लाया. और चुनाव के बाद के "सुपर-ओवर" में बहुमत जुटाने के लिए धुआंधार प्रयास किए. जिसमें विधायकों को अपनी पार्टी बदलने और पक्ष बदलने के लिए भी जुगत भिड़ाते हैं. नरेंद्र मोदी अभी भी भारत के नंबर एक नेता हैं. लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले योद्धा के रुप में उनकी विश्वसनीयता को झटका जरुर लगा है.
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