सोचिये सीवान में चंदा बाबू और आशा रंजन जैसे लोग कैसे जीते होंगे
आका के बाहर आते ही जुर्म की दस्तक भी देख लीजिए - सीवान मेें तीन दिनों में ही दो लोगों की हत्या हो जाती है. जांच और सजा की जिम्मेदारी एक बार फिर पुलिस और अदालत पर चली जाती है.
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ग्यारह साल बाद एक अपराधी की जमानत अर्जी मंजूर होती है - और दो दिन बाद ही एक जज अपने ट्रांसफर ऑर्डर से राहत की सांस लेता है. याद कीजिए जंगलराज के सवाल पर बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने खुद ही सवाल दाग दिया था - पठानकोट और व्यापम क्या है?
ये कहानी है सीवान की है जहां आरजेडी नेता शहाबुद्दीन जमानत पर रिहा होकर पहुंचे हैं - बड़े शान से जनता दरबार लगा रहे हैं.
एक बाप की की जिद
चंदा बाबू के दो बेटों की बेरहमी से हत्या कर दी गई - तीसरा गवाह था उसे भी मार डाला गया. अब बस चौथा बचा है जो दिव्यांग है. चंदा बाबू को अधिकारियों ने कई बार सीवान छोड़ कर कहीं चले जाने की सलाह दी, लेकिन वो नहीं माने.
कहते हैं, "हम कहां जाएं? हम सीवान छोड़कर नहीं जाएंगे. अब यहीं रहेंगे. अब यहीं जियेंगे और यहीं मरेंगे. चाहे भगवान जिंदा रखें, चाहे शहाबुद्दीन मरवा दें."
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चंदा बाबू की तरफ से सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में शहाबुद्दीन की जमानत रद्द कराने के लिए अपील दायर की है - और अब उन्हें उसी से थोड़ी बहुत उम्मीद है.
एक जज की गुजारिश
2004 के तेजाब कांड में सीवान कोर्ट के जज अजय कुमार श्रीवास्तव ने ही दिसंबर 2015 में फैसला सुनाया था. चंदा बाबू के बेटों गिरीश, सतीश और राजीव की हत्या के जुर्म में मोहम्मद शहाबुद्दीन को अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई थी.
सोचिये जिस जज की अदालत में अपराधी थर्र थर्र कांपते होंगे. शहाबुद्दीन की भी नसें भी उस वक्त तो झन्ना ही उठी होंगी जब जज ने दोषी करार देने के बाद सजा का एलान किया होगा.
लेकिन वक्त का तकाजा देखिये. साल भर में ही सत्ता बदल जाती है. सत्ता के भागीदार बदल जाते हैं - और कानून के साथ ऐसा खेल खेला जाता है कि जब वही अपराधी जेल से छूटता है तो पूरा इलाका थर्रा उठता है. यहां तक कि सजा सुनाने वाले जज की रूह भी कांप उठती है.
कानूनी प्रक्रिया के तहत जमानत पर छूटे... |
अब इसे लोक तंत्र की खूबसूरती कहें या कानून की कमजोरी. जिसे कानून के डर से भागते फिरना चाहिये वो जनता दरबार लगा रहा है - और कानून के रखवाले को जान बचाने के लिए तबादले की गुजारिश करनी पड़ रही है.
कानून की नजर में सभी वाकई बराबर हैं. चाहे शहाबुद्दीन हों या उनके नेता लालू प्रसाद कानून दोनों को बराबर मानता है - तभी तो दोनों ही सजा मिलने के बावजूद लोकतंत्र की कृपा से जनता के सेवक बने हुए हैं. एक लोकतांत्रिक सरकार की सत्ता में सीधे भागीदार है तो दूसरा उसी की पार्टी की पावरफुल कार्यकारिणी का सदस्य.
एक पत्नी का संघर्ष
पत्रकार राजदेव रंजन की पत्नी आशा देवी भी सीवान में डटी हुई हैं. दो छोटे बच्चों के साथ रहती हैं लेकिन हरदम डर के साये में.
कहती हैं, "जबसे शहाबुद्दीन को ज़मानत मिली है, मेरा परिवार दहशत में है. मगर हमने भी ठान ली है कि हम कानूनी लड़ाई लड़ेंगे. थोड़ा मुश्किल काम है क्योंकि वो जांच में असर डाल सकते हैं."
राजदेव रंजन की हत्या की जांच सीबीआई ने शुरू कर दी है - हर किसी की तरह आशा देवी के लिए सीबीआई ही उम्मीद की किरण है. फिर भी वो चाहती हैं कि जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो और उसके लिए अपील दायर कर रखी है.
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आका के बाहर आते ही जुर्म की दस्तक भी देख लीजिए - तीन दिनों में ही दो लोगों की हत्या हो जाती है. मारे गये लोगों में से एक का नाम नीतीश सोनी बताया जाता है जो कभी शहाबुद्दीन के लिए काम करता था. पुलिस का मानना है कि शहाबुद्दीन के जेल जाने के बाद सोनी ने अपना धंधा बदल लिया था.
शहाबुद्दीन के छूटते ही उसकी दुनिया भी छूट गयी. जांच और सजा की जिम्मेदारी एक बार फिर पुलिस और अदालत पर चली जाती है.
चंदा बाबू, जज साहब और आशा रंजन तो मिसाल भर हैं. बाकियों के बारे में सोच कर देखिए - दिल दहल उठेगा.
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