ट्रंप में ये बदलाव नहीं बल्कि भटकाव है
डोनाल्ड ट्रंप के पहले विदेशी दौरों में सऊदी अरब की यात्रा को भी शामिल कराना और फिर उसपर की गई मेहरबानियां उनके रवैये में आए बदलाव का संकेत हैं.
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‘बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं’- अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद अपने पहले विदेशी दौरे के लिए सऊदी अरब को चुनने और फिर उसके साथ गलबहियां करने से डोनाल्ड ट्रंप पर फिलहाल ये जुमला सटीक बैठता है. इससे साबित हो गया है कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद को जड़ से मिटाने की बातें करना महज उनकी जुमलेबाजी ही थी. हालांकि राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से सात मुस्लिम देशों को प्रतिबंधित करने वाली विवादास्पद सूची तैयार की, उससे लगा कि वो अपने चुनावी अभियान के दौरान किए गए वादों पर अमल करने के लिए गंभीर हैं लेकिन अपने पूर्व-निर्धारित पहले विदेशी दौरों के कार्यक्रम में सऊदी अरब की यात्रा को भी शामिल कराना और फिर उसपर की गई मेहरबानियां उनके रवैये में आए बदलाव का संकेत हैं.
अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से पहले डोनाल्ड ट्रंप एक व्यवसायी थे और जाहिर है कि इस पद से सेवामुक्त होने के बाद भी वो कारोबारी ही रहेंगे. ये बात यूं भी भरोसे से कही जा सकती है कि ज्यादा से ज्यादा वह दो कार्यकाल यानी आठ बरस तक ही अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर आसीन रह सकते हैं क्योंकि वहां के संविधान के हिसाब से कोई भी व्यक्ति महज दो बार ही राष्ट्रपति का चुनाव लड़ सकता है. इससे लगता है कि ट्रंप न तो अपनी कारोबारी जेहनियत को त्यागना चाहते हैं और न ही उससे होने वाले अमेरिकियों के फायदे को हासिल करने से गुरेज करेंगे, भले ही इससे उनकी विदेश नीति को किसी तरह के बदलाव या फिर दूसरा रास्ता अख्तियार क्यों न करना पड़े.
उनके इस दौरे के दौरान अमेरिका और सऊदी अरब के मध्य साढ़े तीन बिलियन डॉलर के कारोबारी डील होना इसकी एक नजीर है. इसका एक तिहाई हिस्सा अर्थात 110 बिलियन डॉलर केवल रक्षा समझौतों के रूप में सामने आया है. जाहिर है कि सऊदी अरब के साथ हुए इन सौदों से अमेरिका को काफी लाभ मिलने वाला है. ये अलग बात है कि अमेरिका के साथ हुए रक्षा करार के तहत मिलने वाले आधुनिक हथियारों और फौजी साजो-सामान का इस्तेमाल सऊदी अरब आतंकवाद को पालने-पोसने, दुनिया में उसे फैलाने, यमन और सीरिया जैसे देशों में ईरान समर्थित शिया विद्रोहियों से लड़ने में करेगा.
देखा जाए तो ये एक तरह से डोनाल्ड ट्रंप के द्वारा अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बराक ओबामा की मध्य पूर्व एशिया और अरब देशों के प्रति अपनाई गई नीतियों को पूरी तरह से नकार देना है. बताते चलें कि अमेरिका और सऊदी अरब के पारंपरिक रिश्तों में 2011 में खटास तब आनी शुरू हुई थी जब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबाना ने अरब देशों में अपने शासकों के खिलाफ चल रहे उस ‘जन-विद्रोह’ को समर्थन देना आरंभ किया जिसे पश्चिमी देशों ने ‘अरब बसंत’ का नाम दिया था. फिर सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद को अपदस्थ करने और यमन में ईरान समर्थित शिया ‘हौसी’ विद्रोहियों के खिलाफ लड़ाई में साथ देने से अमेरिका ने इंकार कर दिया. अलबत्ता अमेरिका-सऊदी के मध्य दोतरफा नजदीकियों में असल दुराव उस वक्त आया जब वॉशिंगटन ने तेहरान को उसके परमाणु कार्यक्रमों को बंद करने के नाम पर ईरान पर चले आ रहे बरसों के प्रतिबंध को हटा लिया. इसे वॉशिंगटन और तेहरान के रिश्तों में एक नई सुबह के आगाज की तरह देखा गया. अपने चिरप्रतिद्वंदी ईरान को अमेरिका के जरिए पुचकारने से सऊदी अरब की तिलमिलाहट लाजमी थी. इसे अरब देशों के प्रति अमेरिकी नीति आए स्पष्ट बदलाव की संज्ञा दी गई और माना जाने लगा कि अब अमेरिका को तेल तथा अन्य सामरिक सहयोग के लिए सऊदी की जरूरत नहीं है क्योंकि ईरान के रूप में उसे दूसरा विकल्प मिल गया है.
अब इसे ट्रंप का ओबामा के साथ ‘अल्लाह वास्ते’ का बैर माना जाए या फिर ‘अमेरिका फर्स्ट’ की उनकी नीति का असर कि उन्होंने फिर से सऊदी अरब और मध्य पूर्व एशिया के प्रति अमेरिका की उसी पारंपरिक नीति पर अमल करना प्रारंभ कर दिया है जो दशकों तक ‘तेल के बदले सुरक्षा’ पर आधारित रही है. बताते चलें कि राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ओबामाकेयर, आव्रजन जैसी ओबामा की कई पालिसियों को एक-एक करके उलट चुके हैं. इसके पीछे ट्रंप ‘अमेरिका फर्स्ट’ यानी अमेरिकी हितों को सर्वोपरि रखने की दलील देते आए हैं.
असल में बराक ओबामा अपनी मध्यपूर्व एशिया समेत तमाम अरब देशों की नीतियों में व्यापारिक रिश्तों के साथ-साथ सामरिक हितों को भी साधते थे. इसके प्रति उनकी नीतियों को दूरदर्शी माना जाता रहा है. पदमुक्त होते-होते उन्होंने इन मामलों पर अमेरिका की पारंपरिक नीतियों में परिवर्तन करने से भी परहेज नहीं किया. इसके बरक्स ट्रंप हर चीज को व्यवसायिक नजरिए और मोलभाव के आईने से देखते हैं. सऊदी यात्रा के दौरान उनकी निगाह बड़े बिजनेस समझौते पर टिकी थी जिसे उन्होंने फलीभूत भी किया.
इसके अतिरिक्त उन्होंने इस दौरे में ‘एक तीर से कई निशाने’ साधने वाला काम भी किया है. दरअसल उन्होंने किंग सलमान के साथ कट्टरपंथी विचारधारा से लड़ने के लिए राजधानी रियाद में बने वैश्विक केंद्र का उद्घाटन भी किया. इसमें 55 मुस्लिम देशों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की. इस मौके पर ट्रंप ने आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई को किसी धर्म विशेष अथवा आस्था के विरुद्ध नहीं बल्कि अच्छाई और बुराई के बीच जंग की संज्ञा दी. इसे भी उनके वैचारिक बदलाव के रूप में लिया जा रहा है, जबकि देखा जाए तो उनकी नजर नैटो की तर्ज पर बनने वाली ‘अरब नैटो’ वाली उस अरब देशों की प्रस्तावित फौज पर है जिसकी घोषणा आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के लिए की गई है. इसके प्रशिक्षण और हथियारों के सप्लाई के लिए अमेरिका अपने हित साधने की फिराक में है.
यही नहीं इस दौरे में अमेरिकी राष्ट्रपति ने रियाद में हुई खाड़ी देशों की सहयोग परिषद (जीसीसी) और यूएस की मीटिंग में हिस्सा लिया. माना जा रहा है कि इसमें उन्होंने अपने एक ट्रिलियन डॉलर के ढांचागत विकास की योजनाओं में हिस्सेदारी के लिए प्रेरित किया है. अमेरिका के इस मंसूबे में सऊदी अरब 40 बिलियन डॉलर का सहयोग करेगा.
इसके विपरीत सऊदी अरब ईराक, सीरिया, यमन और बहरीन समेत उन तमाम अरब देशों में अपने द्वारा प्रायोजित प्रॉक्सी वॉर के लिए अमेरिका से समर्थन चाहेगा. अमेरिका के जरिए फिर से मध्य पूर्व क्षेत्र में अस्थिरता के लिए ईरान को दोषी ठहराने से सऊदी अरब के हौसले बुलंद हुए हैं. इसी का नतीजा है कि सऊदी हुकूमत ने शाही खैरमकदम से लेकर किंग अब्दुल अजीज अल सऊद एवार्ड से नवाजने तक ट्रंप को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
अपनी फौजी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए सऊदी को अमेरिका की जरूरत है तो वहीं अमेरिका को तेल और दीगर कारोबार के लिए सऊदी अरब की जरूरत है. दोनों की एक दूसरे पर यही निर्भरता पिछले सात दशकों से उस वक्त से चली आ रही है जब 1945 में स्वेज नहर में खड़े अमेरिकी युद्धपोत क्विंसी पर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट और सऊदी किंग अब्दुल अजीज बिन सऊद के बीच मुलाकात हुई थी. तभी रूजवेल्ट ने सऊदी सुरक्षा को अमेरिका सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण करार दिया था. ट्रंप अमेरिका की उसी पारंपरिक नीति की तरफ लौटते दिखाई दे रहे हैं.
अपने चुनावी अभियान के दौरान वो दूसरे देशों में अमेरिका की दखलअंदाजी को बंद करने और अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की मौजूदगी को धन और सेना के जवानों की जिंदगियों से खिलवाड़ बताते आए थे. इसके बावजूद उन्होंने सीरिया में टॉम हॉक मिसाइलों से हमले किए और अफगानिस्तान में अब तक का सबसे बड़ा गैर परमाणु ‘महाबम’ गिराया. जैसे ये सब चुनावी जुमलेबाजियां साबित हुईं, वैसे ही सऊदी अरब और इस्लामी कट्टरपंथ पर दिए गए उनके बयान भी बेमाने होते रहे हैं.
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