मोदी के वाजपेयी बनने की कवायद आडवाणी से बिलकुल अलग है!
संघ अपने प्रचारकों को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर तो बिठा देता है, लेकिन लंबे वक्त तक कुर्सी पर कब्जा मुश्किल होता है. आडवाणी के साथ हुए सेक्युलर हादसे के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वस्वीकार्य छवि गढ़ने की कोशिश तो हो रही है, लेकिन फूंक फूंक कर.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई भी मस्जिद दौरा हर किसी का ध्यान विशेष रूप से खींचता है. नरेंद्र मोदी का इंदौर के सैफी मस्जिद में जाना भी खास इसलिए है कि क्योंकि पहली बार कोई प्रधानमंत्री बोहरा धर्मगुरू से मिलने पहुंचा है. प्रधानमंत्री मोदी के नाम पहली बार वाले रिकॉर्ड में ये एक और वाकया जुड़ गया है.
2002 के गुजरात दंगों के चलते मोदी का मुस्लिम समुदाय से किसी भी रूप में कनेक्ट होना बरबस ही कौतूहल का विषय बन जाता है. जब भी ऐसा कुछ होता है, 2011 के एक कार्यक्रम में मुस्लिम टोपी पहनने से मोदी के इंकार की याद दिला देता है.
सवाल ये है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी की कोई उदार छवि गढ़ने की कोशिश चल रही है? ध्यान रहे किसी जमाने में लौह पुरुष कहलाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ऐसी ही एक कोशिश में हादसे के शिकार हो चुके हैं.
मुस्लिम टोपी नहीं पहनी और नंगे पांव मस्जिद पहुंचे
2011 में एक कार्यक्रम के दौरान इमाम शाही सैयद ने मंच पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम टोपी पहनाने की कोशिश की, लेकिन वो असफल रहे. इस वाकये की तस्वीर खासी चर्चित रही और खूब विवाद भी हुआ.
गुजरा हुआ जमाना...
टोपी पहनने से इंकार करना भले ही गुजरे जमाने की बात हो है. इंदौर की सैफी मस्जिद में प्रधानमंत्री मोदी का नंगे पांव पहुंचना ताजातरीन वाकया है. लेकिन क्या इसे मोदी को मुस्लिम समुदाय से नजदीकियों के तौर पर देखा जाना चाहिये? ऐसा तो नहीं ही कहा जा सकता.
मुस्लिम समुदाय में बोहरा लोगों से मोदी के नजदीकियों की अरसे से चर्चा रही है. हालांकि, 2002 के गुजरात दंगों के बाद बोहरा समुदाय मोदी से खफा हो गया था. दंगों में बोहरा समुदाय के लोगों के भी घर और दुकानें जलायी गयी थीं. गुजरात में दाहोद, राजकोट और जामनगर जैसे इलाकों में बोहरा समुदाय का वर्चस्व है. गुजरात में 9 फीसदी मुस्लिम हैं और बोहरा समुदाय महज एक फीसदी ही है.
नंगे पांव शाल ओढ़े मस्जिद में...
बोहरा समुदाय के विरोध के बावजूद जब मोदी सत्ता में लौटे तो कारोबारियों के लिए जो नीतियां बनायीं उसके चलते वे लोग उनसे फिर से जुड़ गये. तब से लेकर आज तक साथ हैं. ऐसे में जबकि मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं - मोदी का ये मस्जिद दौरा खास मायने रखता है.
गुजरात की ही तरह मध्य प्रदेश में इंदौर के अलावा उज्जैन और बुरहानपुर में दाऊदी बोहरा समुदाय के लोग बड़ी तादाद में बसे हैं - और बीजेपी को आने वाले चुनाव में बहुत उम्मीदें होंगी.
मस्जिद-मस्जिद, 'मोदी-मोदी'
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी के रवैये में थोड़े बहुत बदलाव जरूर देखे गये और उन्होंने स्लोगन भी दिया - सबका साथ, सबका विकास. 2017 में जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे के गुजरात दौरे में मोदी उन्हें लेकर अहमदाबा की सीदी मस्जिद लेकर गये थे. सिंगापुर की मशहूर चुलिया मस्जिद का भी मोदी का दौरा खासा चर्चित रहा जहां उन्हें हरे रंग की चादर भेंट की गई थी. इसी तरह मोदी दुबई, ओमान और इंडोनेशिया की मस्जिदों में जा चुके हैं.
चुलिया मस्जिद में मोदी...
अटल बनने के चक्कर में आडवाणी न बन जायें
मोदी की छवि पर गुजरात दंगों का इतना प्रभाव रहा है कि अब तक पूरी तरह पीछा नहीं छोड़ पाया है. अपनी सफाई में मोदी जब भी कुछ कहते हैं उसे सीधे दंगों और मुस्लिम समुदाय से जोड़ दिया जाता है. मोदी लगातार ऐसी ही तमाम वर्जनाओं को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
2019 में बीजेपी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम का भी हर संभव इस्तेमाल करना चाहती है. वाजपेयी के निधन के वक्त भी मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह का जिक्र आया. जम्मू कश्मीर में तो हमेशा वाजपेयी फॉर्मूले की बात होती ही है. मुख्यमंत्री रहते महबूबा मुफ्ती ने भी मोदी को काफी कुछ वाजपेयी जैसा समझा था. महबूबा का ये कहना कि मोदी ही कश्मीर समस्या सुलझा सकते हैं, उनके कहने की वजह भी यही थी.
वैसे भी मोदी मुस्लिम समुदाय के उसी तबके बीच जा रहे हैं जो पहले से ही उनके समर्थक रहे हैं. देश के भीतर से ज्यादा देश से बाहर इसका फायदा उठाया जा सकता है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे तैसे मौका मिलने पर अपने आदमी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक तो पहुंचा देता है, लेकिन लंबी पारी खेलना अब भी उसके लिए मुश्किल साबित होता है. दरअसल, लंबी पारी खेलने के लिए संघ को वाजपेयी की जरूरत महसूस हो रही है. फिलहाल मोदी भी मस्जिद मस्जिद घूम कर अटल बनने की ही कोशिश कर रहे हैं.
मोदी की ही तरह किसी दौर में लालकृष्ण आडवाणी की लौहपुरुष की छवि गढ़ी गयी थी. इसमें काफी योगदान उनकी रथयात्रा और अयोध्या आंदोलन में भूमिका का भी रहा. बाद के दिनों में आडवाणी की भी उदार छवि गढ़ने की कोशिश की गयी. नतीजा ये हुआ कि सेक्युलर बनने के चक्कर में जिन्ना के नाम पर आडवाणी ने ऐसी छलांग लगाई कि फ्रैक्चर करा बैठे - और फिर हमेशा के लिए उनकी राजनीति पर प्लास्टर चढ़ा दिया गया.
देखा जाये तो मोदी के समर्थकों के बीच उनकी कट्टर हिंदू नेता की छवि ही उनका सरमाया है. अगर उस पर जरा भी आंच आयी तो - संघ भी हाथ खींच लेगा और लोग भी 'मोद-मोदी' करना छोड़ देंगे. पते की बात ये है कि इसका एहसास खुद मोद को भी है और संघ को भी. इसीलिए फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं.
मोदी की मस्जिद यात्रा से और कुछ भले न हो, मुस्लिम समुदाय को लेकर उनकी नीतियों पर सवाल उठाने वालों के सामने बतौर मिसाल इसे जरूर पेश किया जा सकता है. अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर के लिए भी ये बेहद माकूल साबित हो सकता है.
ये क्या कम है कि मोदी के किसी मस्जिद में नंगे पांव दाखिल होने की चर्चा हो. ये क्या कम है कि मुस्लिम टोपी पहनने से इंकार कर देने वाले मोदी के नंगे पांव मस्जिद में दाखिल होने की चर्चा हो रही है - 'सबका साथ, सबका विकास' यही तो है.
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