मोदी के मस्जिद जाने का डबल फायदा होता अगर कैराना में ये चूक न हुई होती
ये नरेंद्र मोदी ही रहे जिनके टोपी पहनने को लेकर खूब विवाद हुआ था - और अब वही मंदिर के साथ साथ मस्जिद भी जाने लगे हैं. क्या ये कैराना का कमाल जिसने इलाके में कमल खिलने से रोक दिया.
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सिंगापुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर दर्शन के साथ साथ मस्जिद भी गये. प्रधानमंत्री मोदी ने मरिअम्मन मंदिर के दर्शन तो किये ही, चाइना टाउन में सबसे पुरानी चिलुया मस्जिद भी पहुंचे. बाद में अपने ट्विटर टाइमलाइन पर मोदी ने तस्वीरें भी शेयर की.
बीजेपी के दबाव में राहुल गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोग और जनेऊ धारण करने पर बीजेपी उनके पीछे लग जाती रही. बाद में जब राहुल ने खुद को शिव भक्त बताया तो बीजेपी ने वैसे ही रिएक्ट किया जैसे प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री पर अरविंद केजरीवाल की टिप्पणी होती है - सब फर्जी है.
कैराना में भी कमल खिल सकता था
जिन्ना बनाम गन्ना फॉर्मूला 2018 में भले ही नाकाम साबित हुआ हो लेकिन 2014 में बीजेपी को इसका भरपूर फायदा भी मिल चुका है. 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले भी बीजेपी सांसद हुकुम सिंह ने कैराना से पलायन का मुद्दा उठाया था. 'ये घर बिकाऊ है...' वाली वायरल तस्वीर तो याद ही होगी. वो 2013 के दंगों के बाद हिंदुओं के पलायन की बात कह रहे थे, लेकिन बाद में पीछे हट गये. श्मशान बनाम कब्रिस्तान जैसे जुमलों का बीजेपी को पूरे यूपी में तो फायदा मिला लेकिन कैराना में ये नहीं चला और हुकुम सिंह की बेटी मृगांका तब विधानसभा चुनाव भी हार गयी थीं. कैराना लोक सभा का नतीजा उसी का विस्तार भर है.
मस्जिद में मोदी!
एक वो भी दौर रहा जब जाटों और मुस्लिम समुदाय के बीच की खाई बहुत ही गहरी हो चुकी थी. ये ध्रुवीकरण का ही नतीजा रहा कि बागपत से इलाके के क्षत्रप अजीत सिंह को भी शिकस्त खानी पड़ी.
कैराना लोक सभा की पांच में से चार सीटों पर 2017 में बीजेपी ने कब्जा जमा लिया था, सिर्फ कैराना की सीट 2014 में हुकुम सिंह से हार जाने वाले नाहिद हसन उनकी बेटी मृगांका से झटक लिये और समाजवादी पार्टी की झोली में भर दिया.
2014 और 2017 में बीजेपी के प्रदर्शन और और यूपी की कमान योगी आदित्यनाथ के हाथों में होने के बाद विपक्ष के लिए उम्मीदवार का चयन आसान नहीं था - ऊपर से मुस्लिम उम्मीदवार तो और भी बड़ा रिस्क था, लेकिन आम राय बनी और वे मैदान में कूद पड़े.
...और चूक गयी बीजेपी
यूपी से 2014 में कोई मुस्लिम संसद नहीं पहुंचा था. कैराना से तबस्सुम हसन के चुने जाने के बाद विपक्ष को इसका भी क्रेडिट मिल चुका है. करीब एक तिहाई मुस्लिम आबादी वाले कैराना में बीजेपी पहली बार 2014 के मोदी लहर में जीत पायी थी. उससे पहले खुद हुकुम सिंह को भी उसी सीट पर शिकस्त खानी पड़ी थी.
मंदिर में मोदी
अगर कैराना में बीजेपी सहानुभूति बटोरने और लड़ाई में जिन्ना को घसीटने की बजाय राजनीतिक समीकरण के हिसाब से चली होती तो नतीजा अलग हो सकता था. मृगांका जब 2017 की बीजेपी लहर में विधानसभा चुनाव हार चूकी थीं तो भला उनकी कामयाबी की कितनी संभावना हो सकती थी. यूपी विधानसभा चुनाव में किसी मुस्लिम कैंडिडेट को टिकट न देने का सवाल उठा तो बीजेपी का जवाब था - कोई जिताऊ मुस्लिम चेहरा नहीं रहा.
योगी के सत्ता में आने के साथ ही बीजेपी ने मोहसिन रजा के रूप में एक चेहरा तो खड़ा किया ही है. कैराना में मोहसिन उम्मीदवार होते तो लोगों को फैसले लेने में थोड़ी मुश्किल जरूर होती. असल बात तो ये है कि बीजेपी ने मुस्लिम वोट बैंक को बांटने के लिए कुछ नहीं किया - और पूरे विपक्ष के जातीय वोटों को इकट्ठा होने दिया - फिर जीत की उम्मीद किस हिसाब से कर रही थी?
2013 में कैराना और आस पास के इलाके सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आये थे - 2014 के चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण भी हुआ और इस बार वही ध्रुवीकरण बीजेपी के खिलाफ चला गया. कैराना में चुनाव प्रचार खत्म हो जाने के बाद और वोटिंग से ऐन पहले बीजेपी ने प्रधानमंत्री मोदी की बागपत में रैली आयोजित कर फायदा लेने की कोशिश जरूर की, लेकिन लगता है लोगों मूड पहले से बना लिया था और उसे बदलने के बारे में सोचा तक नहीं. अब तक तो यही सुनने को मिल रहा था - 'देश बदल रहा है'. ऐसा क्यों लग रहा है कि बीजेपी बदल रही है. अरे नहीं, नरेंद्र मोदी बदल रहे हैं. है कि नहीं?
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