लगे हाथ ये भी साफ हो गया कि योगी का मोदी बनना फिलहाल मुश्किल है
देखा जाये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बूते बीजेपी की यूपी की सत्ता में वापसी करा दी. 2019 में 2014 जैसा यूपी दोहराने की जिम्मेदारी योगी आदित्यनाथ पर है. क्या उपचुनावों में हार के बाद भी योगी कामयाब रहेंगे?
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जीत सारे जख्म भर देती है. जीत सारे सवालों का जवाब होती है. जीत काबिलियत का ऑटो-सर्टिफिकेट होती है - और हार? एक हार भी किये कराये पर पानी फेर देती है. अगर हार की हैट्रिक लगे तो? बचा खुचा सब बहा ले जाती है.
योगी आदित्यनाथ को जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया तो कट्टर हिंदुत्व की समर्थक लॉबी बड़ी खुश हुई. दूसरे धड़े को उनके प्रशासनिक अनुभव पर यकीन नहीं हो रहा था. एक दलील ये रही कि केंद्र बीजेपी की तीन साल की सरकार में जिसे मंत्री पद के लायक नहीं समझा गया वो यूपी जैसे बड़े सूबे को संभाल पाएगा? फूलपुर, गोरखपुर और अब कैराना की हार ने योगी की प्रशासनिक अनुभवहीनता, नेतृत्व क्षमता और कार्यकुशलता सभी खूबियों पर एक साथ सवालिया निशान लगा दिया है.
हाल ही में बीजेपी के कुछ नाराज सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिख कर योगी के खिलाफ शिकायत दर्ज करायी थी. बीजेपी सांसदों की भी योगी के बारे में टिप्पणी तकरीबन वैसी ही रही जैसी अखिलेश यादव की होती है, "यूपी का विकास योगी से नहीं होगा, वो सिर्फ पूजा पाठ अच्छा कर सकते हैं."
कैराना की हार के बाद कहीं ऐसा तो नहीं कि योगी ने बीजेपी और नेतृत्व को अफसोस का मौका मुहैया करा दिया हो?
क्या संभालना मुश्किल हो रहा है?
बीजेपी के ही विधायक सुरेंद्र सिंह तो अफसरों और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को ही उपचुनाव में बीजेपी की हार का कारण मान रहे हैं. योगी कैबिनेट के मंत्री ओम प्रकाश राजभर का कहना रहा कि योगी अगर अपने विवेक से काम लें तो यूपी का ये हाल नहीं होता. राजभर ने कहा था मुख्यमंत्री जिन अफसरों की सलाह लेते हैं, वही अफसर उन्हें ले डूबेंगे.
एग्जाम वॉरियर बनना होगा!
योगी विरोधी समझाना चाह रहे हैं कि मुख्यमंत्री बनने से पहले उनके पास प्रशासनिक अनुभव के नाम पर एक मंदिर का प्रमुख होना रहा. एक ऐसा अनुभव जिसमें श्रद्धा ही सर्वोपरि है और उसमें सवाल उठाना पाप है. ऐसी व्यवस्था जहां नयी चुनौतियां विरले ही आती हैं. ऐसी व्यवस्था जिसके प्रमुख को किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं के बराबर होती है. कोई फैसला लेते वक्त मन की बात काफी होती है. कोई कदम उठाते वक्त तर्कों के पैमाने पर तराशने की भरसक जरूरत नहीं ही होती है.
अगर कोई महंथ किसी सूबे का सीएम बन जाय तो उसके हर हाव भाव, चाल ढाल और बात व्यवहार में खूबियां वैसे ही देखी जा सकती हैं जैसे किसी नयी दुल्हन में. गुजरते वक्त के साथ असलियत धीरे धीरे सामने आने लगती है. सोच, मंशा और क्षमता सब कुछ रोजमर्रा के कामों के जरिये सामने आने लगता है. समझा जाये तो घूंघट जैसे ही छोटा होता जाता है मूल शख्सियत पर पड़ा पर्दा भी उठने लगता है. कामकाज आईना बन तक तस्वीर भी साफ करने लगते हैं.
तो क्या योगी सूबे को संभाल नहीं पा रहे हैं? और क्या योगी की इसी नाकामी का खामियाजा यूपी में बीजेपी को भुगतना पड़ रहा है? कैराना की हार पर बीजेपी के ही एक विधायक ने फेसबुक पर काव्यमय टिप्पणी की है.
गलतियों से सबक न लेना
14 साल बाद यूपी की सत्ता में बीजेपी की वापसी बड़े टीम वर्क का नतीजा रहा. मोदी उस टीम के नेता रहे, अमित शाह प्रशासक और योगी एक सीनियर अफसर रहे. ये भी कोई छिपी हुई बात नहीं कि योगी के कुर्सी पर बैठने में बीजेपी नेतृत्व से बड़ा रोल संघ का रहा. जाहिर है मोदी-शाह की पहली पसंद योगी तो नहीं ही थे.
संघ के योगी से प्रभावित होने की वजह उनकी कट्टर हिंदूवादी छवि ही रही. गोरखपुर और उसके आस पास के पूर्वांचल के इलाकों में उनका प्रभाव तो रहा ही है. अपने प्रभाव को और ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए योगी ने एक मशीनरी भी तैयार कर ली थी - हिंदू युवा वाहिनी. योगी के कुर्सी पर बैठने के बाद पहला चुनावी इम्तिहान निकायों के चुनाव रहे. उन्हीं दिनों केंद्र से बीजेपी ने योगी की मदद के लिए यूपी बीजेपी अध्यक्ष के रूप में महेंद्र नाथ पांडेय जैसा साथी दे दिया.
निकाय चुनावों में योगी का प्रदर्शन संतोषजनक तो रहा लेकिन उसे उल्लेखनीय नहीं माना गया. शहरों में बीजेपी का प्रदर्शन बेहतर रहा, सिवा मेयर के दो पद गंवाने के. ग्रामीण इलाकों में बीजेपी विरोधियों के मुकाबले नहीं टिक पायी. पहला टेस्ट रहा इसलिए योगी को वाहवाही ही मिली.
गोरखपुर में बीजेपी की हार के पीछे जो भी राजनीति रही हो, लेकिन फूलपुर के साथ तो ऐसा न था. ऐसा भी नहीं कि फूलपुर के लिए सिर्फ केशव मौर्या की जिम्मेदारी बनती है. दोनों हार योगी की ही हार ही मानी जाएगी. हालांकि, अमित शाह ने योगी का सरेआम बचाव किया था.
मगर, कैराना के बारे में क्या कहा जाये? आखिर बीजेपी कैराना में क्यों हार गयी? सिर्फ इसलिए कि पूरा विपक्ष एकजुट हो गया?
एग्जाम वॉरियर!
ये सही है कि कैराना में पूरा विपक्ष एकजुट रहा, लेकिन चुनाव प्रचार के लिए न तो अखिलेश यादव गये, न मायावती. मायावती ने तो यहां तक कह रखा था कि बीएसपी के कार्यकर्ता गोरखपुर और फूलपुर की तरह घर घर वोट मांगने भी नहीं जाने वाले.
योगी आदित्यनाथ और उनकी सेना तो शुरू से आखिर तक डटी रही. सारे मंत्री, आस पास के सारे विधायक और पूरा प्रशासनिक अमला भी इंतजामात में लगा रहा.
योगी ने नुस्खे भी वही आजमाये जिनकी वजह से वो खुद गोरखपुर से लोक सभा चुनाव जीतते रहे या फिर निकाय चुनावों में जिसका इस्तेमाल किया था. निकाय चुनावों से पहले योगी ने अयोध्या में दिवाली तो राजनीतिक मकसद से ही मनायी थी - और मथुरा-वृंदावन में होली भी खेली थी. कर्नाटक चुनाव के लिए प्रचार से पहले योगी के ही लोगों ने जिन्ना के मामले को तूल पकड़ाया - और उसे कैराना तक पहुंचाया भी. योगी ने भी कैराना में जिन्ना का मामला उछाला लेकिन राजनीति के पुराने चावल अजीत सिंह ने उसे जिन्ना बनाम गन्ना की बहस बना दी. योगी उसमें ऐसा उलझे कि निकलते नहीं बना. योगी ने एक और बड़ी गलती कर दी. अजीत सिंह को टारगेट करते हुए 'भीख मांगने...' वाला बयान दे डाला. योगी के इस बयान को जाट समुदाय ने खुद का और अपने नेता का अपमान माना. कुछ कुछ वैसे ही जैसे दिल्ली में केजरीवाल के गोत्र का जिक्र और बिहार में नीतीश के डीएनए पर हमला भारी पड़ा.
2019 में संभावनाएं क्या बनती हैं
हाल ही में टाइम्स ऑफ इंडिया के एक सर्वे के मुताबिक 2019 में बीजेपी को 56 सीटों के नुकसान का अनुमान लगाया गया था. सर्वे की खास बात ये रही कि इसमें 46 सीटों का नुकसान सिर्फ यूपी से रहा. इस सर्वे के हिसाब से 2019 में बीजेपी को सिर्फ 25 सीटें मिलने की संभावना है - हालांकि, 2014 के मुकाबले, इसी सर्वे के अनुसार, सिर्फ 10 सीटों का ही नुकसान होगा - क्योंकि बाकी भरपाई देश के दूसरे हिस्सों से आसानी से हो जाएगी.
बीजेपी की तैयारी यूपी में वे सीटें जीतने की भी है जिन्हें उसे 2014 में गंवाने पड़े थे. इनमें 7 तो वे ही हैं जो गांधी और मुलायम परिवार के पास हैं. अमित शाह की अमेठी और राजबरेली की रैली इस बात का सबूत है कि बीजेपी इन सीटों को लेकर किस कदर सीरियस है. एक सच ये भी है कि अब तक हुए उपचुनावों में बीजेपी अब तक 8 सीटें गंवा चुकी है.
बीजेपी ने निश्चित रूप से केंद्र के साथ साथ देश के ज्यादातर राज्यों को कांग्रेस मुक्त कर दिया है, लेकिन फिलहाल उसके पास ऐसे नेताओं की कमी है जो किसी दौर में उसके हिंदुत्व एजेंडा को मजबूती प्रदान करते थे. भीड़ जुटाने वाले नेताओं में अटल आडवाणी के अलावा कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे नेता थे तो अशोक सिंघल और विनय कटियार जैसे हिंदूवादी नेता की भी बड़ी पूछ थी.
मौजूदा दौर में मोदी और योगी से आगे गिनना शुरू करें तो बहुतेरे साक्षी महाराज और साध्वी निरंजन ज्योति जैसे नेता मिलेंगे - लेकिन उनकी राजनीति या तो बलात्कारी राम रहीम के बचाव तक सीमित हो जाती है या फिर आबादी में बराबरी और दबदबा कायम रखने के लिए बच्चे पैदा करने तक. हालत ये हो गयी है कि इनके बयान मीडिया की सुर्खियों में कुछ देर रहने के अलावा और किसी काम लायक नहीं होते - मोदी तो खुद इन्हें मुंह के लाल की संज्ञा दे चुके हैं. सलाहियत भी यही है कि थोड़ा चुप भी रहिये.
क्या 2019 में योगी यूपी में मोदी के कंधे से कंधा मिला कर बीजेपी की गाड़ी पार लगा पाएंगे? राजनीति में हार जीत लगी रहती है, लेकिन कैराना के बाद सवाल उठने भी लाजिमी हैं.
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