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Updated: 31 मई, 2018 01:17 PM
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कैराना के नतीजे से कुछ बातें पूरी तरह साफ हो चुकी हैं. बीजेपी तभी कामयाब हो पाती है जब उसके सामने बिखरा विपक्ष हो. एकजुट विपक्ष के आगे बीजेपी के सारे हथकंडे फेल हो जाते हैं.

कैराना विपक्ष से कहीं ज्यादा अहम बीजेपी के लिए था. बीजेपी को कैराना जीत कर ही विपक्ष से फूलपुर और गोरखपुर की हार का बदला लेना था. मगर, बीजेपी फेल हो गयी.

कैराना में न तो नरेंद्र मोदी का वाया बायपास चुनाव प्रचार काम आया और न ही टीम योगी का 'जिन्ना बनाम गन्ना' की बहस में कुछ हासिल हुआ. जो बीजेपी जगह जगह अपनी जीत को मोदी सरकार की नीतियों पर मुहर बता रही थी, कैराना में उसे सिरे से खारिज कर दिया गया.

योगी सिर्फ श्रद्धालुओं के वोट बटोर पाते हैं

गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों में बीजेपी की हार को यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने मन से स्वीकार नहीं किया था. शायद इसलिए भी कि वो पूरे मन से चुनाव भी नहीं लड़े थे. मन से वैसे भी कोई काम तभी किया जाता है या हो पाता है जब चीजें मन माफिक हों. गोरखपुर में सिर्फ मन माफिक न होता तो भी शायद उतना फर्क नहीं पड़ता. बीजेपी नेतृत्व ने टिकट उसे दे दिया जिस खेमे के खिलाफ ही योगी की राजनीति चलती रही. नतीजा भी वही रहा जिसकी अंदरखाने को अपेक्षा रही.

yogi adityanathवोट देने वाले हर जगह भाव के भूखे नहीं होते...

गोरखपुर और फूलपुर की हार का जो कारण योगी आदित्यनाथ ने बताया था वो रहा - ओवर कॉन्फिडेंस. योगी ने समझाने की भी कोशिश की कि बीजेपी को लगा ही नहीं कि समाजवादी पार्टी और बीएसपी मिल भी जायें तो बीजेपी का बाल भी बांका कर सकेंगी - और बस इसी में मात खा गये. गोरखुपुर और फूलपुर में तो बीएसपी कार्यकर्ताओं ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के लिए घर घर जाकर वोट भी मांगे थे, कैराना में ऐसा करने से तो मायावती ने पहले ही मना कर दिया था.

अगर योगी आदित्यनाथ और बीजेपी की अब भी यही राय है तो उस पर फिर से विचार करना जरूरी है. असल बात तो ये है कि योगी की कामयाबी के साथ कंडीशन अप्लाई हैं. योगी को सफलता खास परिस्थितियों में ही मिल पाती है.

हकीकत तो ये है कि योगी वहीं सफल हो पाते हैं जहां उनके आभामंडल का लोगों पर प्रभाव होता है. गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ सिर्फ इसलिए जीतते आ रहे थे क्योंकि लोग उन्हें मंदिर का महंथ समझ कर वोट देते रहे. गौसेवा या जिस तरह के सामाजिक कामों में योगी की शिरकत की बातें होती रही हों, लोगों में उन्हें लेकर कोई गंभीरता नहीं देखने को मिली है.

गोरखपुर उपचुनाव में जो अंदर से खबरें आयीं उनके मुताबिक योगी मंदिर से ही किसी को मैदान में उतारना चाह रहे थे. हालात के हिसाब से देखें तो वो गलत भी नहीं थे. मंदिर के नाम पर उन्हें वोट मिल सकते थे.

योगी बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडा के पोस्टरबॉय हैं. बीजेपी हर उस जगह योगी को घमाती है जहां उसे जरूरी लगता है. यही वजह है कि योगी केरल भी जाते हैं और हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनाव में भी बीजेपी के लिए वोट मांगते हैं.

योगी आदित्यनाथ को बीजेपी चाहे जिस जंग में उतारे, फायदा उसे उसी जगह होता है जहां नाथ संप्रदाय के लोगों की आबादी का वोट निर्णायक होता है - त्रिपुरा और कर्नाटक के कोस्टल इलाके इस बात के सबसे बड़े सबूत हैं. दोनों ही जगह लोगों ने योगी के नाम पर बीजेपी को इसलिए वोट दिये क्योंकि वो नाथ संप्रदाय के महंथ हैं - और महंथ को वे लोग भगवान शिव का दर्जा देते हैं.

कैराना में योगी कोई करिश्मा नहीं दिखा सके. अब तो वो ये भी नहीं कह सकते कि विपक्ष के इस तरह एकजुट होने का उन्हें अंदाजा नहीं था. कैराना चुनाव जीत कर योगी को साबित करना था कि यूपी सीएम की कुर्सी पर वो काबिलियत के बूते बैठे हैं न कि संघ से मजबूत कनेक्शन के चलते. कैराना के नतीजे ने योगी की पोल खोल दी है - और अब उन्हें योगी-शाह के कोपभाजन के लिए भी तैयार भी रहना ही होगा.

2019 के लिए कैराना क्या मायने रखता है?

कैराना की स्थानीय सियासत की बात करें तो हाल फिलहाल लड़ाई में वहां सिर्फ दो सियासी घराने आमने-सामने होते हैं. एक हुकुम सिंह का घराना और दूसरा मुनव्वर हसन का परिवार.

ajeet singh, tabassum hassanबीजेपी के पास एकजुट विपक्ष का तोड़ नहीं...

विपक्ष की मौजूदा उम्मीदवार तबस्सुम हसन 2009 में बीएसपी की टिकट पर लोक सभा पहुंची थीं. फिलहाल वो समाजवादी पार्टी में हैं लेकिन उपचुनाव में अजीत सिंह की पार्टी आरएलडी के टिकट पर उतरी हैं.

2014 में तबस्सुम के बेटे नाहिद हसन हुकुम सिंह से हार गये थे. 2017 के विधानसभा चुनाव में कैराना सीट से नाहिद के मुकाबले बीजेपी की उम्मीदवार हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह रहीं - और वो चुनाव हार गयीं. नाहिद की मां तबस्सुम ने मृगांका को दोबारा पछाड़ दिया है.

कैराना को लेकर टिकट देने में बीजेपी को बहुत दिमाग लगाने के जरूरत भी नहीं थी. हुकुम सिंह की बेटी होने के नाते ट्रेंड के हिसाब से मृगांका का ही हक बनता था. वैसे भी बीजेपी के पास कैराना में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं था.

ये लड़ाई मृगांका सिर्फ अपने बूते नहीं लड़ रही थीं. वो तो लड़ाई के मैदान में बीजेपी को रिप्रजेंट कर रही थीं. चुनाव तो वास्तव में यूपी की जिम्मेदारी संभाल रहे योगी आदित्यनाथ लड़ रहे थे. लोक सभा उपचुनाव में चूक जाने से मृगांका की सेहत पर बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला. जो अपने इलाके का विधानसभा चुनाव हार गया हो - वो भी तब जब सूबे में बीजेपी को भारी बहुमत मिली हो भला उससे कैसी और कितनी अपेक्षा रखी जानी चाहिये?

mriganka singhसहानुभूनति बेअसर रही...

योगी आदित्यनाथ तो इसी दम पर सीएम बने थे कि 2019 में वो बीजेपी को 2014 से भी बड़ी कामयाबी दिलाएंगे. अगर गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना कोई पैमाना है तो योगी आदित्यनाथ ने तो बीजेपी की लुटिया डूबाने का पूरा इंतजाम कर डाला है.

ये सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बागपत में रैली कर बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने की परोक्ष रूप से बड़ी कोशिश की. कुछ कुछ वैसे ही जैसे चुनाव प्रचार के दौरान कर्नाटक के मंदिरों से दूरी बनाये रखने के बाद वोटिंग के दिन टीवी पर नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा पाठ करते नजर आये.

ताज्जुब तो इस बात को लेकर है कि नगर निगम और पंचायत चुनावों में भी छोटी छोटी बातों पर गौर फरमाने वाले अमित शाह कैराना के मामले में कभी एक्टिव नहीं दिखे. कहीं ऐसा तो नहीं कि जो दिलचस्पी गोरखपुर में योगी ने नहीं दिखायी थी, वैसी ही दिलचस्पी कैराना में अमित शाह ने नहीं दिखायी. सियासत में तो ये सब यूं ही चलता रहता है.

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