Triple talaq bill राज्यसभा में लेकिन शाह बानो से माफी मांगने का मौका चूक रही कांग्रेस
भाजपा के बहुमत वाली लोकसभा से पास होने के बाद triple talaq bill राज्यसभा में पहुंचा है. इस बिल को कानूनी जामा पहनाने के कांग्रेस का साथ जरूरी है. लेकिन क्या वो 1986 में मुस्लिम वोटबैंक की खातिर उठाए कदम को वापस खींच पाएगी?
-
Total Shares
लोकसभा में पारित हो चुके तीन तलाक बिल को अब राज्यसभा में पेश कर दिया गया है. जहां इस बिल पर बहस जारी है. बिल के कुछ प्रावधानों को लेकर कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने इसका काफी विरोध किया लेकिन ये बिला लोकसभा में पास हो गया. लेकिन इस बिल की असल परीक्षा तो राज्यसभा में है जहां एनडीए के पास बहुमत नहीं है.
राज्यसभा का अंकगणित
राज्यसभा में कुल सदस्यों की संख्या 245 है, लेकिन अभी 4 सीटें खाली हैं. ऐसे में राज्यसभा में इस बिल को पारित कराने के लिए कुल 121 सांसदों का समर्थन चाहिए, लेकिन एनडीए के पास महज 113 सांसद हैं और उसमें भी जेडीयू ने विरोध का फैसला किया है. यानी अपने दम पर एनडीए के पास कुल 104 का आंकड़ा है. उधर विपक्ष को 109 सांसदों का समर्थन हासिल है. माना जा रहा है कि YSR कांग्रेस, जेडीयू, टीआरएस और एआईएडीएमके सदन में मतदान के दौरान अनुपस्थित रह सकते हैं. ऐसे में इनके मौजूद ना होने से भी फर्क पड़ेगा. अगर राज्यसभा में यही तस्वीर रहती है तो बिल को पारित करा पाना मुश्किल हो जाएगा.
राज्यसभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बिल पेश किया
बिल को पास कराने के लिए कांग्रेस का समर्थन जरूरी
तीन तलीक बिल पर कांग्रेस का कहना है कि वो इस बिल के विरोध में नहीं हैं. लेकिन उन्हें कुछ प्रावधानों को लेकर ऐतराज है. ऐतराज का मतलब यही है कि कांग्रेस इस बिल के समर्थन में वोट नहीं देगी. और यदि ऐसा हुआ तो फिर पहले की तरह एक बार फिर मुस्लिम महिलाओं की हार होगी. लेकिन तीन तलाक बिल पर कांग्रेस के रुख का इतिहास गवाह है. 1986 में राजीव गांधी सरकार द्वारा शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिये पलट दिया गया था. इसके बाद राजीव गांधी की जमकर निंदा की गई थी और उनपर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप लगे थे. आज राज्यसभा में इस बिल को समर्थन देने से कांग्रेस खुद पर लगे तमाम आरोपों को भी मिटा सकती है. 1986 में क्या हुआ था जिसपर कांग्रेस को आज भी सुनना पड़ता है उसके लिए शाहबानो की कहानी जानना बेहद जरूरी है.
क्या था शाहबानो मामला-
इंदौर की रहने वाली शाहबानो के पति वकील मोहम्मद अहमद खान ने उन्हें उनके पांच बच्चों सहित घर से निकाल दिया था. वकील साहब कभी-कभी अपने बच्चों की परवरिश के लिए कुछ रकम शाहबानो को दे दिया करते थे. लेकिन शाह बानो अपने शौहर से बाकायदा हर महीने गुजारा-भत्ता मांग रही थीं.
मुसलमानों में तलाक के बाद बीवी को ‘नफ़्का’ यानी गुजारा-भत्ता देने का चलन नहीं होता. शाहबानो को पति ने इस्लामिक कानून के लिहाज से मेहर की रकम देकर मामला खत्म कर लिया था. ऐसे में शाह बानो के लिए अपने पांच बच्चों की परवरिश करना मुश्किल हो रहा था. तब उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया और शौहर से हर महीने तय रकम गुजारा-भत्ता के रूप में देने की अपील की.
न्यायिक मजिस्ट्रेट से लेकर हाई कोर्ट तक ने इस मांग को जायज मानते हुए फैसला शाह बानो के पक्ष में दिया. लेकिन मोहम्मद अहमद खान ने इस फैसले को इस्लामिक रवायत में दखल मानते हुए इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. 23 अप्रैल, 1985 को चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपना फैसला शाह बानो के पक्ष में दिया. सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान को अपनी पूर्व बेगम को हर महीने 500 रुपये का गुजारा-भत्ता देने का आदेश दिया.
इस फैसले से मुस्लिम समाज के पुरुष परेशान हो गए थे क्योंकि अब उनके लिए तीन तलाक देकर अपनी बीवी से पीछा नहीं छुड़ा सकते थे. अदालत ने साफ कह दिया था कि तलाक के बाद पत्नी को मेहर देने का मतलब उसे गुजारा-भत्ता दे देना नहीं है. तलाकशुदा पत्नी को अदालत जाकर अपने पूर्व पति से गुजारा-भत्ता मांगने का पूरा हक है.
उस वक्त भी इस मामले पर जमकर राजनीति हुई. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो के पक्ष में आए न्यायालय के फैसले के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. उनका कहना था कि न्यायालय उनके पारिवारिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करके उनके अधिकारों का हनन कर रहा है. केंद्र की सत्ता में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार थी. राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पारित कर दिया. इस अधिनियम के जरिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया गया.
लेकिन आज कांग्रेस के पास अपनी गलती को सुधारने का पूरा मौका है. वो इस बिल को समर्थन देकर कांग्रेस के पास शाह बानो से माफी मांगने का मौका है. कांग्रेस पर लगे मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों को धोने का यही एक मौका है जिसके जरिए कांग्रेस समाज के सामने एक अच्छा उदाहरण पेश कर सकती है. क्योंकि हर कोई जानता है कि मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को जहन्ननुम बनाने वाले ट्रिपल तलाक को खत्म होना ही चाहिए. लेकिन राजनीति पार्टियां अक्सर राजनीति के खेल में लोगों की भलाई नजरअंदाज कर देती हैं.
ये भी पढ़ें-
आजम खान ने तीन तलाक पर संसद के बहिष्कार का बेहद छिछोरा बहाना खोजा!
तीन तलाक: एक सामाजिक मामले को धार्मिक बताकर राजनीतिक बनाने का खेल
आपकी राय