तीन तलाक: एक सामाजिक मामले को धार्मिक बताकर राजनीतिक बनाने का खेल
कोई लाख कह ले कि तीन तलाक का मामला धार्मिक है, राजनीतिक नहीं लेकिन तीन तलाक पर सिर्फ राजनीति हो रही है. असल में मुस्लिम पुरुष जिनकी मां, बहन और बेटियां हैं वो वाकई ये चाहते हैं कि तीन तलाक पर कानून बने, क्योंकि अपनी बेटियों, बहनों और माओं के साथ हो रहे अत्याचारों को असल में वही करीब से देख पा रहे हैं.
-
Total Shares
बुलंदशहर की आसिया बानो को उसके पति ने सिर्फ इसलिए तीन तलाक दे दिया क्योंकि उसने लगतार चार बेटियों को जन्म दिया था, लड़का पैदा नहीं हो रहा था. दो बेटियों की मौत हो चुकी है लेकिन अब महिला अपनी दो बेटियों के साथ मायके में रह रही है.
परवीन के पति ने कुवैत से फोन पर तीन तलाक इसलिए दे दिया क्योंकि दहेज में दो लाख रुपए नहीं दिए थे. आजमगढ़ में भी दहेज में स्कॉर्पियों कार नहीं देने पर पति ने तीन तलाक दे दिया. मोटी बीवी पसंद नहीं थी इसलिए तलाक दे दिया, खाने में नमक कम डाला था इसलिए तलाक दे दिया.
यासमीन के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं. पति दुबई में नौकरी करता है. एक दिन किसी बात से नाराज होकर उसने फोन पर ही यासमीन को तलाक-तलाक-तलाक कह दिया. पूरी जिन्दगी, भविष्य के सपने सब कुछ पति की नाराजगी और इन तीन शब्दों की भेंट चढ़ गए. यासमीन ने अपने लिए ये जीवन नहीं चुना था, वो नहीं चाहती थी कि उसका शौहर उसे छोड़े. दोबारा पति उसे तभी अपनाएगा जब वो हलाला करवाकर आएगी. हलाला यानी किसी और से निकाह करे और शारीरिक संबंध भी बनाए. भले ही वो उसके लिए राजी हो या न हो.
तीन तलाक बिल का विरोध करने वालों को महिलाओं की तकलीफें नजर क्यों नहीं आतीं?
ये जीवन है उन महिलाओं का जिनको सजा के तौर पर तीन तलाक एक झटके में दे दिया जाता है. पति इतनी अकड़ भी इसीलिए दिखाते हैं क्योंकि पत्नियां पतियों पर निर्भर रहती हैं. वो जानते हैं इसे छोड़ देने पर इसकी अक्ल ठिकाने आ जाएगी. यानी तलाक सबक सिखाने की नियत से दिया जाए या पीछा छुड़ाने की, लेकिन नुक्सान में सिर्फ महिलाएं ही रहती हैं.
सुनिए इस बिल का विरोध करने वालों की बचकानी दलीलें
आजम खान कहते हैं कि इस्लाम ने महिलाओं को बराबर के अधिकार दिए हुए हैं, वो दावा करते हैं कि आज तलाक और महिलाओं के प्रति हिंसा की खबरें सबसे कम इस्लाम धर्म में ही सुनने को मिलती हैं. साथ ही ये भी कहते हैं कि ये मामला पूरी तरह से धार्मिक है, राजनीतिक नहीं. वो और उनकी पार्टी सिर्फ उन्हीं बातों का समर्थन करते और मानते हैं जो कुरान में लिखी हैं.
असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि सरकार को मुस्लिम महिलाओं से ‘हमदर्दी’ है हिंदुओं महिलाओं से क्यों नहीं? उन्होंने कहा कि यह बिल संविधान विरोधी और आर्टिकल 14, 15 का उल्लंघन है. इस विधेयक के तहत गैर मुस्लिम को 1 साल की सजा है लेकिन मुसलमान को 3 साल सजा देने का प्रावधान है. क्या यह आर्टिकल 14 और 15 का उल्लंघन नहीं है? उन्होंने कहा कि इस बिल से सिर्फ मुस्लिम पुरुषों को सजा मिलेगी. यह विधेयक मुस्लिम महिलाओं के हित में नहीं है, बल्कि उन पर बोझ है.
कांग्रेस के शशि थरूर को बहुत बुद्धिमान समझा जाता है. तीन तलाक पर उनका कहना है कि यह विधेयक मुस्लिम महिलाओं को कोई लाभ नहीं पहुंचाएगा, उन्होंने कहा कि मुस्लिम महिलाओं की सुरक्षा के बजाय, विधेयक मुस्लिम पुरुषों का अपराधीकरण करता है.
ओवैसी साहब तीन तलाक बिल को संविधान विरोधी बता रहे हैं
कोई लाख कह ले कि ये मामला धार्मिक है, राजनीतिक नहीं लेकिन तीन तलाक पर सिर्फ राजनीति हो रही है. दलीलें ये कि सिर्फ मुस्लिम पुरुषों के साथ अत्याचार क्यों. जबकि असल में मुस्लिम पुरुष जिनकी मां, बहन और बेटियां हैं वो वाकई ये चाहते हैं कि तीन तलाक पर कानून बने, क्योंकि अपनी बेटियों, बहनों और माओं के साथ हो रहे अत्याचारों को असल में वही करीब से देख पा रहे हैं, ये राजनीति करने वाले नहीं.
सरकार क्या चाहती है
लोकसभा में शुक्रवार को तीन तलाक को गैर कानूनी ठहराने वाले मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2019 को वोटिंग के बाद पेश कर दिया गया. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसे नारी न्याय और गरिमा का सवाल बताते हुए कहा कि मुस्लिम महिलाओं पर और अत्याचार होते नहीं देख सकते और ऐसे में इस बिल का संसद से पारित होना बहुत जरूरी है. रविशंकर प्रसाद ने कहा कि हम संसद हैं, हमारा काम कानून बनाना है, जनता ने हमें कानून बनाने के लिए चुना है. कानून पर बहस अदालत में होती है. लोकसभा को अदालत न बनाएं.
“Triple Talaq is not an issue of politics, prayer or religion; it is an issue of justice, dignity and empowerment of women.”
Law Minister Shri @rsprasad introduces #TripleTalaqBill in Lok Sabha, 21.06.2019 pic.twitter.com/xNSMgqUAnq
— BJP (@BJP4India) June 21, 2019
महिलाओं पर अगर अत्याचार होता है तो इसकी सजा अत्याचार करने वाले को मिलनी ही चाहिए. ये दो और दो चार वाली बात है. आप खुद को खुदा समझकर अपनी बीवी की किस्मत का फैसला करेंगे, उसे छोटी-छोटी बातों पर नाराज होकर तलाक देंगे, फिर हलाला के लिए मजबू करेंगे. तो ये किसी भी तरह से उचित नहीं. हालांकि इसे धर्म के नाम पर सही ठहराने वालों की कोई कमी नहीं है लेकिन अब इस मामले को धर्म के आधार पर नहीं बल्कि मानवता के आधार पर देखने की जरूरत है. क्योंकि मामले अगर धर्म से निपट रहे होते और इसलाम के कानून पर महिलाओं को भरोसा होता तो पुलिस में आकर तीन तलाक के खिलाफ मामले दर्ज न हो रहे होते. मामलों पर अगर शिकायत आएगी तो कानूनन सजा देने का प्रावधान भी तो होना ही चीहिए. सरकार को चाहिए कि ऐसा कानून लाया जाए जो धर्म पर केंद्रित न होकर सभी के लिए समान हो. दहेज के खिलाफ कानून है, और वो ऐसा है जिससे कम से कम लोगों में डर तो है. उसी तरह से तीन तलाक पर भी ऐसा कानून आना ही चाहिए जिसके बारे में सोचकर तीन तलाक बोलने से पहले व्यक्ति कम से कम तीन बार तो सोचे ही.
तीन तलाक बिल पर सरकार अध्यादेश ला चुकी है और संसद से पारित होने के बाद यह बिल कानून बनकर अध्यादेश की जगह ले लेगा. हालांकि जिस तरह से इस बिल को लेकर लोकसभा में हंगामा हुआ उससे लगता तो नहीं कि तीन तलाक बिल को कानून की शक्ल देना सरकार के लिए आसान होगा. अभी तो सरकार को राज्यसभा की कड़ी परीक्षा से गुजरना है, जहां बहुमत विपक्ष के पास है.
ये भी पढ़ें-
कैसे ट्रिपल तलाक़ कानून पुरुषों के खिलाफ है, जबकि दहेज कानून नहीं!
मुस्लिम महिला का मोदी को ये गिफ्ट दिखाता है कि उन्हें 'सबका विश्वास' मिलने लगा है !
आपकी राय