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Updated: 03 जनवरी, 2021 10:50 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) ने अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ 'औरंगाबाद' (Aurangabad Renaming) नाम की डबल बैरल बंदूक तान दी है. असर ये हो रहा है कि एक ही साथ बीजेपी और कांग्रेस (BJP and Congress) दोनों ही अपने अपने हिसाब से सतर्कता बरतने लगे हैं. दोनों ने अपनी अपनी पोजीशन भी संभाल ली है. उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना भी तो यही चाहती है.

महाविकास आघाड़ी का मुख्यमंत्री बनने के बाद बीजेपी नेता उद्धव ठाकरे के हिंदुत्व की राजनीति पर लगातार सवाल उठाते आ रहे थे. राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी तो पत्र लिख कर पूछ रहे थे कि आप तो हिंदुत्व का झंडा बुलंद किये रहते थे - ये सेक्युलर कब से हो गये. राज्यपाल ने ये पत्र महाराष्ट्र में मंदिरों को खोले जाने के आदेश में सरकार की तरफ से हो रही देर को लेकर लिखा था - लेकिन सवाल इस अंदाज में पूछा जा रहा था जैसे भारतीय संविधान के तहत पद और गोपनीयता की शपद लेने वाले किसी मुख्यमंत्री का सेक्युलर व्यवहार कोई गुनाह हो.

औरंगाबाद का नाम बदल कर संभाजीनगर करने के शिवसेना के प्रस्ताव पर महाराष्ट्र में खूब बहस हो रही है. शिवसेना की सबसे बड़ी कामयाबी ये है कि सपोर्ट और विरोध दोनों ही तरफ राजनीतिक दलों से लेकर अन्य संगठन भी खड़े हो गये हैं - उद्धव ठाकरे को ऐसा ही कोई हथियार तो चाहिये था जिससे वो सभी विरोधियों को एक साथ नचा सकें.

शिवसेना और कांग्रेस आमने सामने

औरंगाबाद का नाम बदल कर संभाजी नगर करने का प्रस्ताव शिवसेना की तरफ से ऐसे अंदाज में आया है कि पहली बार लग रहा है कि महाराष्ट्र में कोई शिवसैनिक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा है. वरना, गरीबों के लिए 'शिव भोजन थाली' को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसा प्रयोजन नजर में आया हो जिसमें उद्धव ठाकरे या शिवसेना की नीतियों पर सरकार में हिस्सेदार एनसीपी और कांग्रेस तैयार हुए हों.

महाराष्ट्र में गैर-बीजेपी सरकार के अस्तित्व में आने से पहले जितनी भी बैठकें हुईं या फैसले हुए किसी में भी शिवसेना के मन की हुई हो, कभी लगा नहीं. तब सुनने में तो यही आ रहा था कि कांग्रेस ने सरकार में शामिल होने से पहले अपनी सारी बातें मनवा ली है, लेकिन बाद के दिनों में गठबंधन सरकार को लेकर जिस तरीके से कांग्रेस नेताओं के बयान आते रहे हैं, लगता नहीं कि कांग्रेस की वजह से ही सब कुछ हुआ होगा. फिर तो यही लगता है कि कांग्रेस के नाम पर एनसीपी नेतृत्व ने अपने मनमाफिक सारी बातें शिवसेना से मनवा ली. अनुभवी और दंबक नेता शरद पवार ने तो संजय राउत के साथ पहली शिष्टाचार मुलाकात में ही भांप लिया था कि बाला साहेब ठाकरे से किसी शिवसैनिक को ही मुख्यमंत्री बनाने के वादे को पूरा करने के लिए उद्धव ठाकरे कितने समझौते कर सकते हैं. कांग्रेस नेतृत्व को भी ये बात तब पता चली जब दिल्ली से सीनियर नेताओं की एक टीम मुंबई पहुंची और शिवसेना नेतृत्व से मुलाकात हुई. कांग्रेस नेताओं ने पाया कि पार्टी के नाम पर शिवसेना के सामने जो शर्तें रखी गयी हैं वो तो उनमें से किसी को मालूम तक नहीं हैं. बहरहाल, ये सब तो सरकार बनने से पहले की बातें हैं - अब तो सरकार को साल भर से ज्यादा हो चुके हैं.

सामना में शिवसेना की तरफ से कहा गया है, 'भले ही सरकारी रिकार्ड में नाम नहीं बदला हो, मगर शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने अपने जमाने में ही औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर कर दिया था - जब महाराष्ट्र में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और लोगों ने भी इसे स्वीकार भी कर लिया था.'

ये भी बिलकुल वैसे ही है जैसे मुगलसराय का नाम वास्तव में बदले जाने के करीब दो दशक पहले ही संघ और बीजेपी समर्थक तबके में उसे दीनदयाल नगर के तौर पर जाना जाने लगा था. वाराणसी और आस पास के कुछ अखबारों ने तो तभी से दीनदयाल नगर नाम से डेटलाइन भी शुरू कर दी थी.

sharad pawar, uddhav thackeray'औरंगाबाद' का रिमोट किस के कंट्रोल में है?

शिवसेना के हिसाब से, सामना संपादकीय में लिखा है, 'कांग्रेस ने औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर करने के प्रस्ताव का विरोध किया है और बीजेपी इस बात से खुश हो गई है, लेकिन कांग्रेस की तरफ से प्रस्ताव का विरोध कोई नयी बात नहीं है - और ऐसे में इसे महाविकास आघाड़ी सरकार से जोड़ना सरासर बेवकूफी ही है.'

औरंगाबाद में मराठा क्रांति मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष बालासाहेब थोराट का पुतला जलाया - क्योंकि थोराट ने नाम बदलने का विरोध किया है. वैसे कांग्रेस का विरोध भी लगता है जैसे दबी जबान में रस्म निभाने जैसा हो - विरोध के नाम पर कांग्रेस की तरफ से सिर्फ ये बात याद दिलायी जा रही है कि औरंगाबाद के नाम बदलने का प्रस्ताव महाविकास आघाड़ी के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का हिस्सा नहीं है.

कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण मतभेद वाले मुद्दों पर कांग्रेस का पक्ष रखते देखे गये हैं. जैसे यूपीए को शिवसेना के एनजीओ जैसा बताने पर ये कहते हुए काउंटर किया था कि जो यूपीए में है ही नहीं उसे टिप्पणी नहीं करनी चाहिये. अशोक चव्हाण भी थोराट की ही तरह कह रहे हैं कि शहर का नाम बदलना महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार की प्राथमिकता नहीं है - विरोध के स्वर का तेवर थोड़ा तीखा है तो वो है संजय निरुपम का, लेकिन उनकी मुश्किल ये है कि वो मौजूदा समीकरणों में कांग्रेस की स्थानीय राजनीति में मिसफिट चल रहे हैं.

NCP की खामोशी क्या कहती है?

हैरानी की बात ये है कि हर छोटी बड़ी बात पर रिएक्शन देने वाली शरद पवार की पार्टी एनसीपी की तरफ से कोई रिएक्शन नहीं दिखा है. क्या औरंगाबाद का नाम बदलने के प्रस्ताव के पक्ष या विपक्ष में शरद पवार की कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती है - कहीं ऐसा तो नहीं शरद पवार की इस मुद्दे पर खामोशी के पीछे कोई गहरा राज छिपा हुआ है?

शिवसेना का नाम भी छत्रपति शिवाजी के नाम पर ही रखा गया है और वो औरंगाबाद का नाम उनके बेटे छत्रपति संभाजी के नाम पर रखना चाहती है. छत्रपति संभाजी जब औरंगजेब की हिरासत में थे तभी उनकी मौत हुई थी - और यही वजह है कि शिवसेना के इस प्रस्ताव का विरोध करने की हिम्मत को कोई भी जुटा नहीं पा रहा है. मुद्दा ये है कि एक तरफ मराठी अस्मिता की बात है और दूसरी तरफ सेक्युलर पॉलिटिक्स, लेकिन उसकी भी एक निश्चित हद है. अगर कंगना रनौत मुंबई को पीओके जैसा बताती हैं तो शिवसेना तो डंके की चोट पर विरोध करती हैं, लेकिन बीजेपी नेताओं के जबान अपनेआप सिल से जाते हैं. 1995 में औरंगाबाद नगर निगम ने शहर का नाम बदले जाने की सिफारिश के साथ एक प्रस्ताव पारित किया था, जहां बरसों से शिवसेना का दबदबा कायम है, लेकिन महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे से पहले की किसी भी सरकार ने नाम नहीं बदला. यहां तक कि बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस सरकार ने भी नहीं.

लिहाजा बीजेपी को भी मजबूरी में शिवसेना के समर्थन में बयान देना पड़ रहा है. महाराष्ट्र में बीजेपी के अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल की दलील है, अगर दिल्ली में औरंगजेब रोड, बदल कर एपीजे अब्दुल कलाम रोड हो सकता है, इलाहाबाद का नाम प्रयागराज हो सकता है, फैजाबाद अयोध्या हो सकता है तो औरंगाबाद संभाजीनगर क्यों नहीं हो सकता?’

ये सुनते ही शिवसेना सवाल करने लगती है, 'लेकिन हम पूछना चाहते हैं कि बीजेपी ने ऐसा क्यों नहीं किया - जब वो महाराष्ट्र में सत्ता में थी?'

और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को तो इसके सपोर्ट में होना ही था. नासिक में एमएनएस कार्यकर्ता रोडवेज स्टेशन जा धमके और बस में जो औरंगाबाद का बोर्ड लगा था उसे हटाकर संभाजी नगर का लगा दिया - वैसे भी महाराष्ट्र में एकमेव विधायक वाली पार्टी एमएनएस इससे ज्यादा और कर भी क्या सकती है?

महाराष्ट्र में सरकार बनने के बाद से शिवसेना को एक ऐसे सियासी हथियार की दरकार रही जिसे एक ही साथ वो अपने सभी राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल कर सके - औरंगाबाद का नाम बदलने का मुद्दा कुछ ऐसा ही लग रहा है.

अब तक तो ऐसा ही लग रहा है जैसे औरंगाबाद का नाम बदलने की शिवसेना की मुहिम पार्टी की रणनीति के हिसाब से ही आगे बढ़ रही है. शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत खुल कर इस मुद्दे पर बयानबाजी तो कर ही रहे हैं, पार्टी के मुखपत्र सामना में पुराने तेवर में संपादकीय भी लिख रहे हैं जिस पर बहस भी खूब हो रही है.

कुछ दिनों से कांग्रेस को शिवसेना अपनी खास रणनीति के तहत लगातार टारगेट करती आ रही है. बीजेपी के साथ साथ महाराष्ट्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष से बराबर दूरी बना कर चल रही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी शिवसेना के सपोर्ट में खड़ी हो चुकी है.

कुछ दिनों से कांग्रेस को शिवसेना अपनी खास रणनीति के तहत लगातार टारगेट करती आ रही है. कांग्रेस की मजबूरियां कुछ ऐसी हैं कि वो ऐसे किसी भी विवादित मसले को नजरअंदाज करने की कोशिश करती है. खास कर कांग्रेस नेतृत्व या दिल्ली से तो कोई रिएक्शन भी नहीं दिया जाता. जब बहुत ज्यादा जरूरी होता है तो महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता ही थोड़ी बहुत बयानबाजी करके काम चला लेते हैं.

जो बीजेपी शिवसेना को हिंदुत्व के मुद्दे पर उसके रुख को लेकर सवाल खड़े करती आ रही थी, वो भी मजबूरी में ही सही सपोर्ट में खडी हो गयी है. शिवसेना के लिए ये सबसे खास बात है.

शिवसेना को मालूम है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही दलों की कमजोर नसें कौन और कहां पर हैं - और औरंगाबाद से संभाजी नगर के इस सियासी सफर में वो हर संभव फायदा उठा रही है. हालांकि, ताज्जुब सबसे ज्यादा शरद पवार के स्टैंड को लेकर हो रहा है - ऐसा तो नहीं की शरद पवार की भी मुहिम को लेकर मौन सहमति हो. कहीं ऐसा तो नहीं कि शरद पवार ने अपनी दूरगामी सोच के तहत कोई नयी व्यूह रचना की हो जिसमें लग तो रहा है कि बंदूक उद्धव ठाकरे चला रहे हैं लेकिन ट्रिगर पर हाथ शरद पवार का ही है?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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