Uddhav Thackeray को क्या इस्तीफा देना होगा? उनके सामने क्या विकल्प हैं
कोरोना वायरस (Coronavirus) के इस दौर में सबसे ज्यादा परेशान महाराष्ट्र (Maharashtra) के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) हैं जिन्हें अपना इस्तीफ़ा (Resignation) देना पड़ सकता है. यानी उद्धव को कोरोना से तो लड़ना है ही साथ ही उन्हें अपना संवैधानिक पद भी बचाना है.
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नोवेल कोरोना वायरस (Coronavirus) का प्रकोप हमारी स्वास्थ्य सुविधाओं की परीक्षा लेते हुए लोगों के स्वास्थ्य और पूरी मानवता को प्रभावित कर रहा है. ये एक ऐसा समय है जो हमारी सरकार के लिए भी तमाम तरह की चुनौतियां लाया है. इस बार हमारी सरकार का मुकाबला एक अदृश्य दुश्मन से है जो लोगों की जान के साथ साथ हमारे देश की अर्थव्यवस्था (Economy ) को भी प्रभावित कर रहा है. देश के अन्य राज्यों के मुकाबले महाराष्ट्र (Maharashtra ) के हालात अलग हैं वहां इस बीमारी ने संवैधानिक संकट ला दिया है. अगर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) ने कोई संवैधानिक रास्ता नहीं निकाला उन्हें शायद अपने पद से इस्तीफ़ा (Resignation) देना पड़े. बता दें कि गत वर्ष 28 नवंबर को उद्धव ठाकरे ने बतौर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री (CM ) शपथ ली थी. दिलचस्प बात ये है कि उद्धव, महाराष्ट्र विधानसभा के दोनों सदनों में से किसी के भी सदस्य नहीं हैं.
संविधान का अनुच्छेद 164 एक गैर-विधायक को छह महीने के लिए मुख्यमंत्री के कार्यालय सहित मंत्रियों की परिषद में एक पद पर कब्जा करने की अनुमति देता है. उद्धव ठाकरे की यह समय सीमा 28 मई को समाप्त हो रही है. प्री-कोरोनावायरस युग में, उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र विधान परिषद का चुनाव लड़ना और जीतना था. विधायकों द्वारा निर्वाचित होने के लिए नौ सीटों के लिए यह चुनाव 26 मार्च को चुनाव होना था. लेकिन नोवेल कोरोना वायरस के प्रकोप ने चुनाव आयोग को अनिश्चित काल के लिए चुनाव स्थगित करने के लिए मजबूर कर दिया.
शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन की महाराष्ट्र सरकार में थिंक-टैंक ने इस स्थिति से निपटने के लिए एक रास्ता निकाला है. सरकार ने राज्यपाल बी एस कोशियारी से अनुरोध किया है कि वो वो अपने कोटे से उद्धव ठाकरे को विधान परिषद में नामित करें.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए चुनौतियाँ दोहरी हैं उन्हें कोरोना से भी लड़ना है और अपना पद भी बचाना है
बताते चलें कि महाराष्ट्र के विधान परिषद में राज्यपाल के नामांकन द्वारा भरे जाने वाले दो पद हैं. इस सन्दर्भ में अगर हम संविधान के अनुच्छेद 171 पर नजर डालें तो संविधान कहता है कि राज्यपाल साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और समाज सेवा के लिए क्षेत्र के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को नामित कर सकते हैं.
उद्धव ठाकरे उल्लेखित मानदंडों में से किसी में भी सीधे फिट नहीं होते हैं, लेकिन सामाजिक सेवा का व्यापक दायरा है. और, अगर राज्यपाल किसी को विधान परिषद में नामित करता है, तो उसके फैसले को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है. कम से कम हालिया दिनों में तो ऐसी कोई मिसाल नहीं दिखी है.
राज्यपाल कोशियारी ने अभी तक सीएम उद्धव को विधान परिषद के लिए नामित नहीं किया है. इसने हाल ही में शिवसेना नेता संजय राउत को राज्यपाल के करीब जाने का मौका दिया है जो नहीं चाहते कि उद्धव राज्यपाल से नामित होकर विधान परिषद जाएं.
ये एक तरह से राजनीति हो सकती है पर इसके पीछे कुछ कानूनी बेचीदगियां भी हैं. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 151A किसी व्यक्ति को विधान परिषद में नामित करने के लिए राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति पर रोक लगाती है. इसमें कहा गया है कि विधान परिषद में रिक्त सीटों पर चुनाव या नामांकन नहीं किया जा सकता है, यदि रिक्ति के संबंध में किसी सदस्य के कार्यकाल का शेष एक वर्ष से कम है. बता दें कि राहुल नरवेकर और रामराव वाडुकुट के इस्तीफे के कारण पैदा हुई दो रिक्तियों का कार्यकाल जून में समाप्त हो रहा है यानी दोनों का ही शेष कार्यकाल एक साल से कम है.
इसलिए जैसी कि चीजें वर्तमान में दिख रही हैं उद्धव ठाकरे 28 मई से पहले एमएलसी नहीं बन सकते. इन परिस्थितियों में सवाल ये खड़ा होता है कि क्या उद्धव ठाकरे अपना इस्तीफ़ा देंगे? वो तब तक अपने पद पर नहीं बने रह सकते जब तक किसी भी सदन के लिए उनका चुनाव नहीं हो जाता.
तकनीकी तौर पर वो पुनः महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री तब बन सकते हैं जब वो 27 या 28 मई को अपना इस्तीफ़ा दे दें और दोबारा शपथ लें. इसी तरह कोई और शिव सेना नेता भी शपथ ले सकता है यदि उद्धव का विकल्प नहीं मिला. कोविड 19 उद्धव ठाकरे के लिए दोहरी चुनौतियां लेकर आया है जहां एक तरह उन्हें इस जानलेवा बीमारी से लड़ना है तो वहीं उनके लिए ये लड़ाई संवैधानिक भी है.
अगर उद्धव इस्तीफा देने का फैसला करते हैं और शपथ लेते हैं, तो एक और बाधा आ सकती है. यह पंजाब के एक मामले से संबंधित है, जहां 1995 में कांग्रेस के तेज प्रकाश सिंह को मंत्री नियुक्त किया गया था और 1996 में राज्य विधानसभा में उन्हें पुनः नियुक्त किया गया इस मामले में सिंह की 6 महीने की अवधि समाप्त हो गई थी.
ध्यान रहे कि ऐसे ही मामलों को लेकर2001 में सुप्रीम कोर्ट ने इस्तीफे और पुनः अपॉइंट होने को "अनुचित, अलोकतांत्रिक, अमान्य और असंवैधानिक" घोषित कियाथा इस फैसले का तेज प्रकाश सिंह पर कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन अब जबकि उद्धव ठाकरे रडार पर हैं तो निश्चित तौर पर ये फैसला उन्हें प्रभावित कर सकता है.
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