महाराष्ट्र की सियासी तस्वीर भी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे जैसी साफ नजर आ रही है!
महाराष्ट्र की राजनीति (Maharashtra Politics) का हाल भी राष्ट्रपति चुनाव जैसा लग रहा है. सारे समीकरण द्रौपदी मुर्मू यानी बीजेपी (BJP) के पक्ष में दिखायी पड़ रहे हैं - और उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) की स्थिति यशवंत सिन्हा जैसी हो गयी है.
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महाराष्ट्र की राजनीति (Maharashtra Politics) जिस तरफ बढ़ रही है, राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे जैसी संभावना नजर आने लगी है. जैसे राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी (BJP) ने अभी बस उम्मीदवार घोषित किया है - और हर कोई मान कर चल रहा है कि द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति भवन की राह में अब महज कुछ कागजी खानापूर्ति ही बची है.
महाराष्ट्र की राजनीति को देखें तो बीजेपी, उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) से ढाई साल पुराना हिसाब बराबर करने की स्थिति में आ गयी है. उद्धव ठाकरे वैसे भी इस्तीफे की पेशकश और मुख्यमंत्री का सरकारी बंगाल वर्षा छोड़ कर हथियार डालने का संकेत दे चुके हैं - वैसे बाकी कोई चारा भी तो नहीं बचा है उद्धव ठाकरे के पास! उद्धव ठाकरे भी यशवंत सिन्हा की ही तरह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं.
जैसे राष्ट्रपति चुनाव में नंबर गेम की ही असली भूमिका है, महाराष्ट्र की राजनीति में भी आंकड़ों का खेल अचानक उद्धव ठाकरे के खिलाफ हो गया है. ये आंकड़ों का ही खेल रहा, जिसमें बीजेपी 2019 में पिछड़ गयी थी. तब लोगों ने शिवसेना के साथ तो बीजेपी को बहुमत दिया था, लेकिन बीजेपी अपने बलबूते ऐसी स्थिति हासिल नहीं कर सकी थी कि वो शिवसेना के साथ छोड़ने पर अपने राजनीतिक विरोधियों को एकजुट होने से रोक सके - बड़ी वजह यही रही कि तब उद्धव ठाकरे ने शरद पवार की सलाह से सरकार बना ली.
उद्धव ठाकरे के खिलाफ एकनाथ शिंदे ने बगावत करके बीजेपी की राह काफी आसान कर दी है. कांग्रेस और एनसीपी को तो बीजेपी ने 2019 के आम चुनाव और फिर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में कमजोर कर ही दिया था. शिवसेना तब बीजेपी के साथ हुआ करती थी, इसलिए बची रही - गठबंधन टूटने के बाद से बीजेपी को ऐसे ही किसी मौके की तलाश थी. उद्धव ठाकरे की कमजोर कड़ी एकनाथ शिंदे ने बीजेपी की मुंहमांगी मुरादी ही पूरी कर दी है.
शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने तो उद्धव ठाकरे के अगले कदम के संकेत दे ही दिये थे, 'ज्यादा से ज्यादा क्या होगा... हम सत्ता में नहीं होंगे.' साथ ही, ये भी बता दिया था कि 'महाराष्ट्र का मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम महाराष्ट्र को विधानसभा भंग करने की तरफ ले जा रहा है.'
विधानसभा भंग होने के साथ ही मान कर चलना होगा कि पूरा मामला केंद्र के हाथ में चला जाएगा. फिर बीजेपी पर निर्भर करेगा कि चीजों को कैसे चलने देती है? कहने को तो बीजेपी यही कह रही है कि शिवसेना के मामले में न तो उसका कोई हाथ है, न किसी ने उससे कोई संपर्क किया है. ठीक ही कह रही है बीजेपी अगर एक साथ इतने विधायक गुजरात या असम पहुंच जायें तो सुरक्षा के इंतजाम तो करने ही होंगे. आखिर कानून व्यवस्था के लिए कोई मुश्किल खड़ी हो गयी तो सत्ता में होने के नाते जवाब भी तो बीजेपी से ही मांगा जाएगा. है कि नहीं?
उद्धव ठाकरे अगर विधानसभा भंग करने की सिफारिश भी कर देते हैं तो फैसला तो राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ही लेंगे. ऐसा तो है नहीं कि उद्धव ठाकरे ने सिफारिश कर दी और महाराष्ट्र में मध्यावधि चुनाव का रास्ता साफ हो जाएगा.
आखिर राज्यपाल अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल तो करेंगे ही. ऐसे में चुनाव की तो दूर दूर तक संभावना नहीं लगती. सवाल ये है कि क्या महाराष्ट्र के विधायक दोबारा चुनाव में उतरने को तैयार हैं? सारे विधायकों की छोड़िये, शिवसेना के विधायक भी चुनाव के लिए शायद ही तैयार हों?
फिर तो जहां सरकार बनने की संभावना दिखेगी, विधायक उसी तरफ अपनेआप खिंचे चले जाएंगे. जो समस्या 2019 में सोनिया गांधी के सामने खड़ी हुई थी, उद्धव ठाकरे भी वैसी ही समस्या से जूझ रहे है. अगर वो सरकार नहीं बचा पाते तो शिवसेना भी टूटेगी. तब यही माना जा रहा था कि अगर कांग्रेस सत्ता में साझीदार नहीं बनी तो कांग्रेस टूट जाएगी. सोनिया के सामने तब शामिल होने या न होने का विकल्प था. उद्धव के सामने ऐसा सीधे सीधे तो नहीं है, हां, फिर से बीजेपी के साथ हाथ मिलाने को तैयार हो जायें तो बात और है.
जैसे सब कुछ एकतरफा हो गया हो
राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के पास एनडीए साथियों को मिला कर भी 50 फीसदी वोट नहीं हैं, लेकिन द्रौपदी मुर्मू को लाकर बीजेपी ने पूरा गेम ही बदल डाला है. नीतीश कुमार तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधायी दे ही रहे हैं, खास मौकों पर दूर होकर भी साथ खड़ रहने वाले ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी प्राउड फील कर रहे हैं. महाराष्ट्र में तो बीजेपी के पास नंबर बहुमत से बहुत ज्यादा दूर है, लेकिन शिवसेना के टूट जाने की स्थिति में वो फिर से मैदान में मजबूती से डट जाएगी. शिवसेना के साथ गठबंधन टूटने के बाद से वैसे भी बीजेपी नेता दिन रात इसी खेल में तो लगे हुए थे.
दो चुनाव और डबल झटके: राज्य सभा के लिए हुए चुनाव में उद्धव ठाकरे को बड़ा झटका लगा था. छह सीटों के लिए हुए चुनाव में तीन बीजेपी और एक-एक सीट गठबंधन साथियों के हिस्से में आयी थी. उद्धव ठाकरे बीजेपी को दो से ज्यादा सीटें नहीं जीतने देना चाहते थे, लेकिन उस सीट पर बीजेपी के धनंजय महादिक ने शिवसेना के संजय पवार को हरा दिया.
राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू की जीत की ही तरह उद्धव ठाकरे की हार पक्की लगती है
महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव में तो क्रॉस वोटिंग भी हुई और दस सीटों में से पांच बीजेपी को मिली, दो-दो शिवसेना और एनसीपी को और एक सीट कांग्रेस के खाते में गयी. एमएलसी चुनाव में भी बीजेपी ने पांचवी सीट राज्य सभा की तरह ही जीत ली. मतलब, उद्धव ठाकरे के लिए एक और झटका रहा.
एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे में झगड़ा बढ़ा भी एमएलसी चुनावों के बाद ही है. आग तो पहले से ही लगी हुई थी, एमएलसी चुनाव के नतीजों ने ईंधन बन कर उसे और भड़का दिया. नाराजगी तो एकनाथ शिंदे की आदित्य ठाकरे के अयोध्या दौरे के वाकयों को लेकर भी रही, लेकिन जब उद्धव ठाकरे ने विधान परिषद चुनाव में आदित्य ठाकरे को प्रभारी बना दिया तो मामला एकनाथ शिंदे के बर्दाश्त के बाहर हो गया.
जब इतना भरोसा करते थे तो उद्धव ठाकरे को आदित्य ठाकरे की जगह एकनाथ शिंदे को ही चुनाव प्रभारी बनाना चाहिये था. एकनाथ शिंदे सक्षम थे कि वो बहुत सारी चीजें मैनेज कर सकते थे, आदित्य ठाकरे के वश का कुछ भी नहीं था - क्योंकि चुनाव अयोध्या दौरे की तरह नहीं होता कि पीतांबर पहने फोटो डाल कर ट्विटर पर लिख दिया जाये - सियाराम मय सब जग जानी.
बताते हैं कि एमएलसी चुनाव के नतीजे आने के बाद एकनाथ शिंदे और आदित्य ठाकरे के बीच गर्मागर्म बहस भी हुई. आदित्य ठाकरे की तरफ से संजय राउत भी खड़े थे और जो कुछ कहते बना जीभर के बोले भी - और फिर गुस्से में एकनाथ शिंदे ने फैसला किया कि अब बहुत हो गया. आगे से ये सब नहीं होने देंगे.
सब कुछ बीजेपी के मनमाफिक हो रहा है: एकनाथ शिंदे ने ऐसा कदम बढ़ाया कि महाराष्ट्र की राजनीति एक झटके में बीजेपी के इर्द-गिर्द घूमने लगी - ऐसा लग रहा है जैसे सब कुछ एकतरफा हो गया हो. उद्धव ठाकरे चाह कर भी कुछ करने की स्थिति में नहीं लगते. बीजेपी के लिए न चाहने की स्थिति में भी सब कुछ उसके मनमाफिक हो रहा है.
महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के पास अब तो कागज पर ही 169 विधायकों का समर्थन हासिल माना जा सकता है. कांग्रेस और एनसीपी का तो कहना है कि उनके विधायक पूरी तरह उनके साथ हैं, लेकिन उद्धव ठाकरे का तो अपने आधे विधायकों पर भी कंट्रोल नहीं रहा.
एकनाथ शिंदे अपने साथ शिवसेना के 40 विधायकों के होने का दावा करते रहे हैं - और जब से ये उठा पटक चल रही है एक बार में चार और फिर तीन और विधायकों के भी गुवाहाटी पहुंचने की खबर आयी है.
सिर्फ 13 का साथ: शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे ने पहले ही बोल दिया था कि सिर्फ 13 विधायकों को छोड़ कर सारे उनके साथ खड़े होंगे - और हुआ भी यही है कि उद्धव ठाकरे की बुलायी मीटिंग में उतने ही विधायक मातोश्री पहुंचे. उद्धव ठाकरे के साथ शिवसेना के 13 विधायकों में एक नाम आदित्य ठाकरे भी है जो उनके बेटे हैं.
पिछले चुनाव में शिवसेना को 55 सीटें मिली थीं, जबकि, तब की गठबंधन साथी, बीजेपी को 106 सीटें. फिलहाल एनसीपी के 53 और कांग्रेस के 44 विधायक हैं.
288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में बहुमत का नंबर 145 होता है और इसके लिए बीजेपी को 39 विधायकों के समर्थन की जरूरत होगी. शिवसेना टूटती है तो भी मामला दलबदल कानून के दायरे के बाहर तभी आ पाएगा जब एकनाथ शिंदे अपने साथ 55 में से कम से कम से कम 37 विधायकों को साथ रख पायें.
जैसे एकनाथ शिंदे 40-45 विधायकों के अपने साथ होने का दावा कर रहे हैं, शिवसेना सांसद संजय राउत का भी दावा है कि एकनाथ शिंदे के साथ के कम से कम 20 विधायक उनके या उद्धव ठाकरे के संपर्क में बने हुए हैं. नितिन देशमुख के उद्धव ठाकरे के साथ लौट आने से संजय राउत का दावा हवा हवाई भी नहीं लगता.
एकनाथ शिंदे की तैयारी तो ऐसी ही लगती है कि वो पहले अपने साथ दो तिहाई नंबर पक्का कर लें. तभी तो गुवाहाटी में जमे रहने का कार्यक्रम हफ्ता भर और बढ़ा दिया गया है. तब तक उम्मीद की जानी चाहिये कि राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी भी पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे - क्योंकि अब तो आगे का मामला राज्यपाल और स्पीकर की टेबल से होकर ही गुजरेगा.
अगर 37 का अपना मैजिक नंबर एकनाथ शिंदे हासिल कर लेते हैं तो ये भी तय करना होगा कि अकेले अलग पार्टी बनाना चाहते हैं या फिर बीजेपी में शामिल होने का फैसला करते हैं? फायदा तो अलग पार्टी बनाने में ही ज्यादा है, ताकि आगे भी मोलभाव का स्कोप बचा रहे, लेकिन फाइनल कॉल तो बीजेपी की होगी. आखिर वो क्या चाहती है?
सवाल ये है कि तब क्या होगा जब उद्धव ठाकरे की इमोशनल अपील के बाद कुछ विधायक एकनाथ शिंदे का साथ छोड़ नितिन देशमुख की तरह उद्धव ठाकरे के पास लौट आते हैं?
अब अगर कुछ बाकी है...
अगर सब कुछ एकनाथ शिंदे या बीजेपी के प्लान के मुताबिक नहीं हुआ तो? फिर तो ये मान कर चलना चाहिये कि एकनाथ शिंदे की हालत भी कांग्रेस नेता सचिन पायलट की तरह होकर रह जाएगी.
खास बात ये है कि एकनाथ शिंदे भी सचिन पायलट की ही तरह शिवसेना छोड़ने की बात नहीं कर रहे हैं. राहुल गांधी के शब्दों में धैर्य के साथ डटे हुए हैं. हाल ही में सचिन पायलट की मौजूदगी में राहुल गांधी ने ऐसे ही चुटकी ली थी.
आखिर सचिन पायलट भी तो ऐसे ही अपने समर्थक विधायकों को लेकर होटल पहुंच गये थे. उधर, अशोक गहलोत भी अपने समर्थकों के साथ अलग होटल में डेरा जमा लिये. संशय होने पर होटल भी बदले जाने लगे. सचिन पायलट को कई दिनों तक बारगेन की पोजीशन में भी रहे, लेकिन जैसे ही कांग्रेस नेतृत्व ने अशोक गहलोत के प्रभाव में दरवाजे बंद कर लिये - सचिन पायलट को छोड़ कर उनके साथ के विधायक धीरे धीरे खिसकने लगे. एक दिन हालत ये हो गयी कि सचिन पायलट को बैकफुट पर आना पड़ा.
अपनी तरफ से एकनाथ शिंदे ने भरत गोगावले को शिवसेना का नया चीफ व्हिप बना दिया है. अगर चीजें उनके पक्ष में बनी रहीं तो खुद को शिवसेना का अध्यक्ष भी घोषित कर देंगे. जैसे चिराग पासवान के खिलाफ बगावत करके उनके चाचा पशुपति कुमार पारस लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष बन गये - और लोक सभा में स्पीकर ने उनको संसदीय दल के नेता के तौर पर मान्यता भी दे दी थी.
सचिन पायलट भी तब हरियाणा के होटल में टिके थे जहां बीजेपी की सरकार है. ठीक वैसे ही जैसे एकनाथ शिंदे पहले बीजेपी सरकार वाले गुजरात गये और फिर असम के गुवाहाटी पहुंच गये - और शिवसेना के बागी विधायकों के साथ डेरा डाले हुए हैं.
जब बीजेपी ने देखा कि सचिन पायलट वैसी स्थिति में नहीं हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा खेल कर पायें, तो पार्टी शांत हो गयी. बीजेपी शांत हुई तो सचिन पायलट खामोश हो गये - और धैर्यपूर्वक अब भी कांग्रेस में बने हुए हैं. एकनाथ शिंदे ने भी अपने रास्ते बंद तो नहीं ही किये हैं.
अब तक तो ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि उद्धव ठाकरे की शिवसेना विधायकों से इमोशनल अपील का कोई असर हुआ हो, लेकिन आगे क्या हो कौन जानता है? एक बात तो तय है बीजेपी अब ऑपरेशन लोटस के सीधे सीधे इस्तेमाल से परहेज करने लगी है. कम से कम महाराष्ट्र में तो वो ऐसा शायद ही करने की सोचे.
बेशक देवेंद्र फडणवीस खुद को समंदर समझते हैं और लौट कर आन की हड़बड़ी में भी हैं, लेकिन ये भी जरूरी तो नहीं कि हर बार आलाकमान की मंजूरी मिले ही. हां, 72 घंटे और ढाई साल की सरकार में फर्क तो है ही.
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