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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 27 अगस्त, 2020 09:49 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) बीजेपी (BJP) से अलग होने के बाद विपक्षी खेमे के स्वाभाविक पार्टनर बन चुके हैं. महाराष्ट्र में तो उनकी पार्टी शिवसेना का गठबंधन ही कांग्रेस और एनसीपी से है, लेकिन कुछ दिनों से वो विपक्षी दलों के बीच पैठ बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं. सोनिया गांधी ने कांग्रेस और गैर-बीजेपी मुख्यमंत्रियों की एक वर्चुअल मीटिंग बुलायी थी जहां ममता बनर्जी (Mamata Banerjee and Sonia Gandhi) से मुखातिब होकर उद्धव ठाकरे ने पूछा - सबसे पहले हमें तय करना होगा कि डरना है या लड़ना है?

डरने या लड़ने की ये बातें बीजेपी को लेकर हो रही थीं और उसी प्रसंग में उद्धव ठाकरे ये सवाल उठा रहे थे. उद्धव ठाकरे समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अगर मिल कर लड़ने का फैसला नहीं होता तो अलग अलग रह कर डरना ही होगा. लेकिन बड़ा सवाल है कि विपक्ष के नेताओं को मिल कर लड़ाई लड़ने में कोई दिलचस्पी है भी क्या?

जहां तक डरने या लड़ने का सवाल है तो ये सवाल उद्धव ठाकरे को दूसरों से पूछने की बजाये खुद से पूछना और खोजना भी चाहिये - क्योंकि जिससे लड़ना है, उद्धव ठाकरे बाकियों के मुकाबले अकेले ज्यादा सक्षम हैं.

उद्धव ठाकरे के पास आपदा में अवसर तो है

मौके के हिसाब से तो उद्धव ठाकरे का सवाल ठीक माना जा सकता है. ममता बनर्जी और सोनिया गांधी दोनों की राजनीतिक जरूरतें एक दूसरे को फिर से करीब आने को मजबूर कर रही हैं. मजबूरी उद्धव ठाकरे की भी है. सुशांत सिंह राजपूत केस की सीबीआई जांच को लेकर शिवसेना की अगुवाई वाली सरकार राजनीतिक तौर पर गच्चा खा चुकी है. आने वाले दिनों में मुश्किलों की आशंका निश्चित तौर पर उद्धव ठाकरे को परेशान कर रही होगी.

बिहार चुनाव की तारीख आते आते सुशांत सिंह राजपूत केस का तूल पकड़ना तय मान कर चलना चाहिये. ममता बनर्जी के सामने चुनाव है और सोनिया गांधी की तरह ही उद्धव ठाकरे भी घर की लड़ाई से पहले से ही परेशान हैं. परभणी से शिवसेना सांसद का इस्तीफा भी इन्हीं परेशानियों में से एक सबूत है.

शिवसेना सांसद संजय जाधव ने एनसीपी के सामने घुटने टेक देने का आरोप लगाते हुए उद्धव ठाकरे को अपना इस्तीफा सौंप दिया है. एक नियुक्ति को लेकर नाराज संजय जाधव ने अपने इस्तीफे में लिखा है कि शिवसेना वो कार्यकर्ताओ को न्याय न मिलने से दुखी है. शिवसेना नेताओं और कार्यकर्ताओं को लगने लगा है कि नियुक्तियों और अफसरों के ट्रांसफर पोस्टिंग में एनसीपी का दबदबा बना हुआ है. कांग्रेस की भी शिकायत रहती है कि महाराष्ट्र की सत्ता में हिस्सेदार होने के बावजूद न तो उनकी सलाह मानी जाती है और न ही किसी अर्जी पर सुनवाई होती है. गठबंधन सरकार के लिए ये कोई नयी बात नहीं है. बीजेपी के तीन पहियों वाली सरकार को भले ही उद्धव ठाकरे गरीबों का रिक्शा बतायें, लेकिन सफर इतना मुश्किल है कि नीचे गड्ढे ही गड्ढे हैं और ऊपर खतरे की तलवार लटकी हुई है.

uddhav thackerayबिखरे विपक्ष में उद्धव ठाकरे के पास नेता बनने का मौका तो है, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल में अनफिट होने का खतरा भी है

जहां तक बीजेपी से मिलकर लड़ने की बात है तो फिलहाल चुनावी राजनीति में स्कोप कम ही है क्योंकि 2024 अभी बहुत दूर है. बिहार चुनाव में उद्धव ठाकरे चाहें तो कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार पर विचार कर सकते हैं - लेकिन क्या सोचा है कि बिहार के लोग शिवसेना नेता से किस हद तक खफा है और कैसा व्यवहार कर सकते हैं? सुशांत सिंह राजपूत केस में उद्धव ठाकरे सरकार का सीबीआई जांच का विरोध करना और बिहार पुलिस के साथ मुंबई पुलिस और बीएमसी का व्यवहार अभी तो बिहार के लोग भूलने से रहे. पश्चिम बंगाल में अगर किसी सूरत में सोनिया गांधी और ममता बनर्जी हाथ मिलाने को तैयार होते भी हैं तो उद्धव ठाकरे की कोई खास भूमिका नहीं रहने वाली है. मुद्दों की बात और है. मुद्दों के विरोध को लेकर उद्धव ठाकरे, सोनिया गांधी और ममता बनर्जी के साथ खड़े हो सकते हैं, लेकिन उसमें भी बहुत बड़ा पेंच है.

क्या उद्धव ठाकरे केंद्र की मोदी सरकार का वैसा विरोध कर सकते हैं जिस हद तक सोनिया गांधी और राहुल गांधी कर रहे हैं. जब चीन के मुद्दे पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के विरोध में ममता बनर्जी साथ नहीं दे पा रही हैं तो उद्धव ठाकरे किस तरीके से मन बना रहे हैं? उद्धव ठाकरे कैसे भूल जाते हैं कि चीन के मुद्दे पर वो कांग्रेस के साथ खड़े हो सकते हैं?

कांग्रेस तो धारा 370 और CAA के विरोध में भी खड़ी रही है - उद्धव ठाकरे ऐसे मुद्दों पर विपक्ष के साथ खड़े होकर विरोध करने का मन बना चुके हैं?

ये तो साफ है कि उद्धव ठाकरे को शिवसेना की पुरानी छवि का वारिस बनना मंजूर न था. पूर्वांचल के लोगों के विरोध वाली राजनीतिक विरासत राज ठाकरे के हिस्से में छोड़ कर उद्धव ठाकरे नये मिजाज की राजनीति करने लगे हैं, लेकिन सुशांत सिंह राजपूत केस में उस छवि को गहरा झटका भी लगा है जिसे भरने लंबा वक्त लग सकता है. फिलहाल सत्ता में होने का फायदा भी है और आम लोगों की भलाई के लिए बहुत कुछ करने का मौका भी उद्धव ठाकरे के पास है.

विपक्षी खेमे में मुद्दों पर विरोध की राजनीति और संसद सत्र में विपक्ष की आवाज में शामिल होकर उद्धव ठाकरे को भले ही कुछ फायदा मिल जाये, लेकिन असल बात तो ये है कि बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ उद्धव ठाकरे की अकेली आवाज जितनी असरदार हो सकती है, उतनी विपक्षी नेताओं के साथ मिलकर तो मुश्किल है.

शिवसेना यू-टर्न भी लेगी क्या?

उद्धव ठाकरे ने बीजेपी का साथ छोड़ने के 6 महीने बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मदद मांगी थी - और निराश नहीं होना पड़ा. बीजेपी अब भी उद्धव ठाकरे के साथ बाकी विपक्षी दलों जैसा सलूक नहीं करती बल्कि थोड़ा अलग तरीके से पेश आती है जिसमें एक लिहाज भी है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि शिवसेना और बीजेपी दोनों ही एक ही लाइन की राजनीति करते हैं.

याद कीजिये जब बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटा नहीं था तभी एक बार देवेंद्र फडणवीस संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने पहुंचे थे. संघ प्रमुख ने साफ साफ फडणवीस को बोल दिया था कि अगर शिवसेना नेतृत्व अलग जाकर सरकार बनाने की कोशिश करता है तो करने दिया जाये, लेकिन बीजेपी को तोड़-फोड़ करने की जरूरत नहीं है. हालांकि, बाद में देवेंद्र फडणवीस अचानक रात भर की तैयारी के बाद सुबह ही सुबह एनसीपी के अजीत पवार को साथ लेकर सरकार भी बना लिये. 72 घंटे मुख्यमंत्री भी रहे, लेकिन फिर भाग खड़े हुए. बाद में कभी भी देवेंद्र फडणवीस वो तेवर नहीं दिखा पाये है. जब भी सरकार गिराने की बात आती है बस यही कहते हैं कि गठबंधन सरकार आपसी खींचतान से अपनेआप गिर जाएगी और बीजेपी की कोई दिलचस्पी नहीं है.

एक खास बात और भी देखने को मिलती है कि जिस तरह राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार की आलोचना तो करती हैं, लेकिन अशोक गहलोत का नाम नहीं लेतीं. ठीक वैसे ही देवेंद्र फडणवीस भी नाम लेकर कोई हमला नहीं बोलते. और ये सिर्फ देवेंद्र फडणवीस ही नहीं बीजेपी का कोई भी बड़ा नेता उद्धव ठाकरे के साथ वैसा व्यवहार तो अब तक नहीं ही करता देखने को मिला है जैसा सोनिया गांधी, राहुल गांधी और ममता बनर्जी के साथ होता आ रहा है.

ये तो उद्धव ठाकरे भी महसूस करते ही होंगे कि बीजेपी नेता विपक्ष के दूसरे नेताओं से अलग तरीके से ठाकरे परिवार के साथ पेश आते हैं. अब रामदास अठावले महीने में जितनी बार भी बोलें कि महाविकास आघाड़ी सरकार गिर जाएगी उसकी बात और है.

सुशांत सिंह राजपूत के मामले में भी नारायण राणे हमलावर हैं तो उनकी अपनी निजी सियासी दुश्मनी भी तो है. नारायण राणे को लेकर गठबंधन के दौर में शिवसेना नेतृत्व हर कदम पर विरोध करता रहा. अगर नारायण राणे के बेटे नितेश राणे भी आदित्य ठाकरे को बेबी पेंग्विन बोल कर कठघरे में खड़ा करते रहते हैं तो वहां भी मामला निजी राजनीतिक विरोध का ही लगता है, लेकिन देवेंद्र फडणवीस या किसी बीजेपी नेता ने ऐसे तो नहीं किया.

यहां तक कि सुशांत सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट से सीबीआई जांच का आदेश आने के बाद भी बीजेपी नेता किरीट सोमैया ने इस्तीफा भी मांगा तो अनिल देशमुख का, उद्धव ठाकरे का नहीं. अनिल देशमुख एनसीपी कोटे से उद्धव सरकार में गृह मंत्री हैं.

ऐसे तो नहीं लेकिन उद्धव ठाकरे को तब मुश्किल होगी जब वो विपक्ष के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का फैसला कर लेते हैं. फिर उद्धव ठाकरे को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की लाइन भी छोड़नी होगी. अगर अयोध्या में वर्चुअल पूजा की सलाह भविष्य की ऐसी ही किसी योजना का संकेत है तो उद्धव ठाकरे को पहले शिवसेना का राजनीतिक एजेंडा नये सिरे से लिखना होगा.

और फिर उद्धव ठाकरे को इस बात के लिए भी तैयार रहना होगा कि जिस तरह पश्चिम बंगाल में बीजेपी हिंदुत्व का मुद्दा उठाकर ममता बनर्जी को घेरती है और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर पाकिस्तान की भाषा बोलने का इल्जाम लगाती है - उद्धव ठाकरे के खिलाफ भी ठीक उसी तरह हमलावर और आक्रामक हो जाएगी.

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#उद्धव ठाकरे, #विपक्ष, #ममता बनर्जी, Uddhav Thackeray, Mamata Banerjee And Sonia Gandhi, BJP

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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