मोदी की सुरक्षा के लिए जितना खतरा अर्बन नक्सल हैं, उतनी ही पुणे पुलिस!
प्रधानमंत्री मोदी की सुरक्षा के लिए खतरा 5 अर्बन नक्सलियों को पुणे पुलिस ने गिरफ्तार तो किया, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने केस को ट्रांजिट रिमांड के लायक भी नहीं समझा. और सुप्रीम कोर्ट ने तो कार्रवाई को हाउस-अरेस्ट तक ही सीमित कर दिया है. ताज्जुब है.
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देशभर में कथित अर्बन नक्सलों के 'ठिकानों' पर छापे और गिरफ्तारियां सिर्फ भीमा-कोरेगांव हिंसा तक सीमित होतीं तो स्थानीय कानून व्यवस्था के मामले से ज्यादा समझने की जरूरत शायद ही होती. मामला तब गंभीर हो जाता है जब प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश से जुड़ जाये. पहला सवाल तो ये कि अगर वास्तव में ये मामला इतना गंभीर है तो ऐसे विरोध का क्या मतलब है? और दूसरा कि जो मामला प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ा हो उसकी जांच इतनी धीमी गति से हो और इतनी देर से गिरफ्तारियां हों, बिलकुल समझ में नहीं आता! या फिर तस्वीर का कोई दूसरा पहलू भी है जिनकी वजह से गिरफ्तारियों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. पुणे पुलिस के छापों और गिरफ्तारी का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा है - और देश भर में बहस हो रही है. ट्विटर पर एक नया हैशटैग ट्रेंड कर रहा है #MeTooUrbanNaxal.
ये तो लापरवाही की हद है!
पुणे पुलिस ने 6 जून को कुछ आरोपियों की गिरफ्तारी के दौरान 18 अप्रैल को लिखे एक पत्र के बरामद किए जाने का दावा किया था जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या का जिक्र था. उसके तीन महीने बाद पुणे पुलिस ने पांच बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देश भर में जगह जगह छापे मार कर गिरफ्तार किया है. ये हैं - वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंजाल्विस, मानवाधिकार और ऐसे मसलों को लेकर सरकार के कड़े आलोचक रहे हैं.
पुलिस की लेटर थ्योेरी बेदम क्यों लगती है?
आईआईटी से पढ़ीं सुधा भारद्वाज वकील और ऐक्टिविस्ट हैं. गौतम नवलखा मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार हैं. वरवर राव कवि और वामपंथी विचारक हैं. अरुण फरेरा पेशे से वकील और वरनॉन गोंजाल्विस लेखक-कार्यकर्ता हैं.
पुणे के संयुक्त पुलिस आयुक्त शिवाजी बोकडे का दावा है कि सभी छापे पुख्ता सबूतों के आधार पर मारे हैं. शिवाजी बोकडे का कहना है, "6 जून को पांच कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उनके पास से बरामद किए गए कागजात के आधार पर इन 'नक्सली शुभचिंतकों' की गिरफ्तारी हुई है." सभी के खिलाफ IPC की विभिन्न धाराओं और UAPA यानी गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम ऐक्ट के तहत केस दर्ज किया गया है.
हैरानी की बात तो ये है कि जब पुलिस के पास पुख्ता सबूत थे और मामला देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश का है तो गिरफ्तारी में तीन महीने क्यों लगे? अगर सबूत के नाम पर तीन महीने पहले मिली वो चिट्ठी और दूसरे कागजात ही हैं तो अब तक पुलिस जांच के नाम पर कुंडली मारे क्यों बैठी हुई थी?
जब से पुणे पुलिस को साजिश की चिट्ठी मिली है, तब से प्रधानमंत्री मोदी कई बार लोगों के बीच पहुंचे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की शवयात्रा के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी पूरे रास्ते पैदल चले. क्या पुणे पुलिस ये गिरफ्तारियां पहले नहीं कर सकती थी? ये तो पुणे पुलिस ही समझा पाएगी कि प्रधानमंत्री मोदी जब सड़क पर खुले में पैदल चल रहे थे तो वो सोयी हुई थी और जब मन किया तो छापे मार कर लोगों को उठा लिया.
ये सब उस केस का हाल है जो देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ा है. ऐसे केस से जिसमें मौजूदा प्रधानमंत्री के हत्या की साजिश एक पूर्व प्रधानमंत्री की तरह रची जा रही हो. अगर वास्तव में पुणे पुलिस के पास सबूत हैं तो ठीक, वरना हर दावे का हिसाब-किताब अदालत में तो होना ही है.
सिर्फ पुलिस की लापरवाही या कोई और मजबूरी है?
गौतम नवलखा की गिरफ्तारी को दिल्ली हाईकोर्ट में तत्काल चुनौती दी गयी. नवलखा के वकील दलील रही कि पुलिस FIR में उनके मुवक्किल का नाम ही नहीं हैं, फिर गिरफ्तारी किस आधार पर की गई?
जब पुख्ता सबूत हैं तो कोर्ट में पुलिस चुप क्यों?
दिल्ली हाई कोर्ट के पूछने पर, बताते हैं, पुलिस यही नहीं बता पायी कि गौतम नवलखा को किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया है. फिर कोर्ट ने अभियोजन पक्ष से मराठी में लिखे सभी दस्तावेजों का अनुवाद पेश करने को कहा. साथ ही, सुनवाई पूरी होने तक दिल्ली से बाहर ले जाने पर रोक लगा दी. कोर्ट ने केस को ट्रांजिट रिमांड के लायक नहीं माना.
सुधा भारद्वाज के मामले में भी पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट ने पुलिस को पुणे ले जाने की इजाजत नहीं दी. कोर्ट ने सुधा भारद्वाज को सिर्फ हाउस अरेस्ट का हुक्म दिया, जब तक सुनवाई पूरी नहीं होती. देर रात जस्टिस अरविंद सिंह सांगवान के घर पर हुई सुनवाई के बाद पुलिस ने सुधा भारद्वाज को उनके घर पहुंचा दिया.
बहरहाल, अब तो सुप्रीम कोर्ट ने सभी पांच आरोपियों को सिर्फ हाउस अरेस्ट में रखने का हुक्म दे दिया है. मोटे तौर पर समझा जाये तो देश की सबसे बड़ी अदालत को नहीं लगता कि पुलिस के आरोपों में कोई खास वजन है.
समझने वाली बात ये भी है कि जिस मामले को प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ा होने का दावा किया जा रहा है, क्या सुप्रीम कोर्ट इस कदर पुलिस के हाथ बांध देता? रिमांड पर देना तो दूर सुप्रीम कोर्ट ने हाउस अरेस्ट से ज्यादा की अनुमति ही नहीं दी है. पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट दोनों के आदेश भी बिलकुल ऐसे ही हैं.
क्या पुलिस को प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़े मामले की जांच यूं ही करना चाहिये? एक तरफ पुलिस के साथ साथ राज्य सरकार और केंद्र सरकार के मंत्री पुख्ता सबूत होने के दावे कर रहे हैं और दूसरी तरफ अदालत केस को आरोपी के हाउस अरेस्ट से ज्यादा नहीं मान रही है? ये क्या चक्कर है? अगर ये सिर्फ लापरवाही नहीं है तो फिर क्या समझा जाये? क्या पुलिस किसी तरह के राजनीतिक दबाव में काम कर रही है? वैसे पुलिस कार्रवाई का विरोध कर रहे लोग एक स्वर में इसे राजनीतिक बदले की पुलिसिया कार्रवाई ही बता रहे हैं.
केस की सुनवाई की दौरान सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी काबिले गौर है, "असहमति का होना किसी भी लोकतंत्र के लिए सेफ्टी वॉल्व है... अगर असहमति की अनुमति नहीं होगी तो प्रेशर कूकर की तरह फट भी सकता है."
साजिश के खत का मजमून
पुलिस का दावा है कि उसे दो चिट्ठियां मिली थीं जो माओवादियों के एक दूसरे को संदेश थे. चिट्ठियों में देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रोड शो के दौरान हत्या किये जाने का सुझाव था. साथ ही, इन चिट्ठियों से पुलिस को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना का भी पता चला.
पुलिस के मुताबिक चिट्ठियों में बीजेपी के सूबे दर सूबे शासन के विस्तार को लेकर चिंता जतायी गयी है. लिखा है, 'अगर ऐसा ही चलता रहा तो माओवादी पार्टी को खतरा हो सकता है... इसलिए राजीव गांधी की तरह एक हत्याकांड को अंजाम दिया जाये... मोदी को रोड शो के दौरान टारगेट करना एक अच्छी योजना हो सकती है...'
पुलिस का दावा है कि उसने गिरफ्तार भी उन्हीं लोगों को किया है जिनके नाम का इन पत्रों में जिक्र है. अगर पुलिस का दावा सही है तो संतोष इस बात का किया जाना चाहिये कि जो लोग व्हाट्सऐप और तेज तर्रार मैसेंजर के जमाने में चिट्ठियों से काम चला रहे हैं वे बहुत बड़े अनाड़ी हैं. हालांकि, गिरफ्तारी के बाद उनके प्रचार प्रसार और बड़ी अदालतों के दरवाजे खटखटाने की जो स्पीड है उस पैमाने पर तो पुलिस की चिट्ठी थ्योरी भी तमाम पुलिसिया किस्सों का ही हिस्सा लगती है.
#MeTooUrbanNaxal
जिस चिट्ठी की बरामदगी का पुलिस ने दावा किया है उसी के बाद से एक नया शब्द प्रचलन में आया - अर्बन नक्सल.
'बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम' जैसी फिल्म भी बनाने वाले विवेक अग्निहोत्री का इस टॉपिक पर अपना रिसर्च रहा है और 'अर्बन नक्सल' नाम से ही उन्होंने एक किताब भी लिखी है.
एक इंटरव्यू में विवेक अग्निहोत्री का कहना था, '...ये मसला सिर्फ जंगलों का नहीं है, इसके मास्टरमाइंड शहरों में ही हैं, जो मेरी नजर में अर्बन नक्सल हैं. इंटरनेशनल टेरर ऑर्गेनाइजेशन से इन लोगों को फंडिंग मिलती है. इसी सोर्स से ये हथियार इकट्ठा करते हैं. ये एक रणनीति के तहत काम करते हैं. ये हमारे सिस्टम में अपने लोगों को भेज देते हैं. ये सब इस तरह होता है कि हमें पता भी नहीं चलता.'
आज तक के लाइव बहस में भी विवेक अग्निहोत्री और स्वामी अग्निवेश भिड़ गये. असल में विवेक अग्निहोत्री ने कह दिया कि जिस अदालत से देश में हिंसा फैलाने वाले फैसले सुनाये जाते हैं उस अदालत के चीफ जस्टिस स्वामी अग्निवेश हैं.
सुरक्षा एजेंसियों द्वारा हुई गिरफ्तारियों पर @vivekagnihotri और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश की गर्मागर्म बहस#HallaBolलाइव https://t.co/fOz5QPkk43 pic.twitter.com/Sb2pvxTN8Q
— आज तक (@aajtak) August 28, 2018
इसी बीच विवेक अग्निहोत्री ने ट्विटर पर एक नयी बहस छेड़ दी - और देखते ही देखते विरोध में एक नया #MeToo कैंपेन शुरू हो गया.
I want some bright young people to make a list of all those who are defending #UrbanNaxals Let’s see where it leads. If you want to volunteer with commitment, pl DM me. @squintneon would you like to take the lead?
— Vivek Agnihotri (@vivekagnihotri) August 28, 2018
देखते ही देखते #MeTooUrbanNaxal ट्रेंड करने लगा और लोग लिस्ट में शामिल करने को लेकर ट्वीट की बौछार कर दी.
I have all symptoms of being an #UrbanNaxal. Who should I report this to? #MeTooUrbanNaxal
— Suresh Mathew (@Suresh_Mathew_) August 29, 2018
Hi @vivekagnihotri,
Dissent is important for our democracy to function and to hold our Government accountable. I intend to do exactly that.
Put me on your list.#metoourbannaxal
— Meghnad (@Memeghnad) August 29, 2018
I love my country. Will fight for it till my last breath
— Rana Safvi رعنا राना (@iamrana) August 29, 2018
Hey @vivekagnihotri, I volunteer to be on your list. Let's tag @vivekagnihotri with the hashtag #MeTooUrbanNaxal and help him build his list. We should all help this man in his noble endeavour. https://t.co/zY1Azarv8l
— Pratik Sinha (@free_thinker) August 29, 2018
I think. I debate. I read. I question. I dissent. I criticise. I emphatise. I protest. I probe. I exist. #MeTooUrbanNaxal
— amrita madhukalya (@visually_kei) August 29, 2018
लोगों के कड़े विरोध के बीच विवेक अग्निहोत्री ने एक और ट्वीट कर अपनी बात भी रखी. एक ही ट्वीट में जवाब भी और किताब का प्रमोशन भी.
My answer is here. Please read it and make up your own mind. pic.twitter.com/Za0Yp5deg1
— Vivek Agnihotri (@vivekagnihotri) August 25, 2018
पुनश्च :
मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर के कलेक्टर की जन सुनवाई चल रही थी. इसमें 61 साल के पीके पुरोहित अपने गांव की सड़क बनाने की गुहार लेकर पहुंचे थे. बीबीसी से बातचीत में पुरोहित ने बताया कि कलेक्टर ने उनका आवेदन लोक निर्माण विभाग में भेज दिया.
पुरोहित बताते हैं, "उस वक्त वहां कोई मौजूद नहीं था... मैं वापस कलेक्टर के पास पहुंचा और उनसे बात की, लेकिन दोबारा आने की वजह से कलेक्टर नाराज़ हो गए और मुझे डांटने लगे." इसके बाद पुलिस को बुलाया गया और पुरोहित को धारा 151 के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. बीबीसी के सवाल पर कलेक्टर अभय वर्मा का कहना रहा, "वो नशे की हालत में थे और उनकी स्थिति ठीक नहीं थी. हमने उन्हें बहुत समझाया लेकिन वो नहीं समझे. इसलिए पुलिस कार्रवाई के लिए उन्हें थाने भेज दिया गया." इस वाकये का भीमा-कोरेगांव हिंसा की जांच के तहत मालूम हुए 'प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश' और उसी सिलसिले में देश भर में सात जगहों पर छापे के दौरान हुई पांच गिरफ्तारियों से कोई लेना देना नहीं है. न ही छत्तीसगढ़ में एक डीएम का नौकरी छोड़ कर बीजेपी में शामिल होने से ही कोई वास्ता है.
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